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पब्लिक स्कूल से दूर हैं गरीब बच्चे

सुपौल : जिले में शिक्षा के अधिकार कानून की धज्जियां उड़ रही हैं. सरकार के लाख प्रयास के बावजूद सुपौल जिला ही नहीं, बल्कि कोसी इलाके के नामी-गिरामी प्राइवेट स्कूल गरीब बच्चों की हकमारी कर रहे हैं. बिहार शिक्षा परियोजना की ओर से सरकार के आदेश के आलोक में शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के […]

सुपौल : जिले में शिक्षा के अधिकार कानून की धज्जियां उड़ रही हैं. सरकार के लाख प्रयास के बावजूद सुपौल जिला ही नहीं, बल्कि कोसी इलाके के नामी-गिरामी प्राइवेट स्कूल गरीब बच्चों की हकमारी कर रहे हैं. बिहार शिक्षा परियोजना की ओर से सरकार के आदेश के आलोक में शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के अंतर्गत कमजोर वर्ग के 25 प्रतिशत बच्चों को निजी स्कूलों में अमीरजादों के साथ नामांकित करने का आदेश जारी हुआ था. यह शिक्षा प्राइवेट स्कूलों को मुफ्त में नहीं देनी थी

बल्कि इसके बदले उन गरीब बच्चों की पढ़ाई का खर्च सर्व शिक्षा की ओर से अदा किया जाना था. बावजूद इसके जिले में संचालित प्रस्वीकृत निजी स्कूल प्रबंधन द्वारा नियमों की अनदेखी किया जा रहा है. साथ ही इन स्कूलों में पिछले कुछ वर्षो में किताब, ड्रेस और फीस के नाम पर वसूले जा रहे पैसों को कई गुणा बढ़ा दिया गया है. और तो और इन स्कूलों में पढ़ाना मध्यम वर्ग के लोगों के औकात से भी बाहर है. बच्चों की हकमारी कर रहे स्कूलों पर कार्रवाई की बात पर शिक्षा विभाग के अधिकारियों का कहना है कि वे सिर्फ इन स्कूलों के खिलाफ रिपोर्ट कर सकते हैं. कार्रवाई और अपीलीय पदाधिकारी प्राथमिक शिक्षा के डायरेक्टर होते हैं.

दबे मुंह शिक्षा विभाग के पदाधिकारी यह भी मानते हैं कि अगर नियम और कानून का कड़ाई से पालन किया गया तो अधिकांश प्राइवेट स्कूल बंद हो जायेंगे और इनकी संख्या अंगुली पर गिनने लायक हो जायेगी.

दाखिला के समय ही ली जाती है राशि : जानकारों की माने तो नर्सरी या प्री-स्कूल और प्री-प्राइमरी में पढ़ने वाले बच्चों की कहानी तो बिलकुल ही अलग है. उनके तो बुक, कॉपी कलर, पेंसिल सब कुछ स्कूल मे दाखिला लेने के साथ ही राशि जमा करा लिया जाता है. बच्चे ने पेंसिल कितनी खर्च की, कलर अगले साल इस्तेमाल करने लायक छोड़े या नहीं, इन सबसे कोई मतलब ही नहीं. ऐसा भी नहीं कि बड़ी बहन या भाई की किताब छोटे भाई-बहन पढ़ लें. क्योंकि जब तक उनका नंबर आएगा, किताबें ही बदल जाएगी. इसलिए हजारों की किताब किलो के हिसाब कबाड़ी वाले को ही बेचनी पड़ेगी. हालांकि बच्चे ठीक-ठीक अंग्रेजी मीडियम वाले प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं लेकिन तामझाम, शोहरत और रुतबे के मुताबिक स्कूलों की फीस कम या ज़्यादा या फिर बहुत ज्यादा भी होती है और उसी के साथ अभिभावकों का दर्द भी कम या ज़्यादा होता है. सब जानते हैं कि स्कूली शिक्षा राज्य सरकार के कार्यक्षेत्र का विषय है. बोर्ड का काम परीक्षा करवाना है. लेकिन सिर्फ इसी आधार पर स्कूलों को हर बात में मनमानी करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वो प्राइवेट है और सरकार से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती. जानकारों ने यह भी बताया कि सीबीएसई ने प्राइवेट स्कूलों को साफ कहा है कि उनका काम शिक्षा का व्यवसायीकरण करना नहीं है, लेकिन केवल सर्कुलर से बात बनती नहीं दिखती. सीबीएसई को इसके लिए एक्शन में आना होगा. मनमानी करने वाले स्कूलों पर कड़ी कार्रवाई करनी होगी. ऐसी कार्रवाई जो दूसरे स्कूलों के लिए मिसाल बनें और ये साफ संदेश दें कि बच्चों की पढ़ाई को बाजार नहीं बनने दिया जायेगा. सीबीएसई को कुछ कड़े फैसले लेने होंगे तभी प्राइवेट स्कूलों में उसका ख़ौफ होगा. अन्यथा अभिभावकों का दर्द अगले अप्रैल में भी इसी तरह उभरेगा और शायद तभी अपना दर्द इसी तरह साझा करने के सिवाय कोई और चारा नहीं होगा.
व्यवसायीकरण की दौर में है शिक्षा व्यवस्था
स्कूलों-कॉलेजों में तो शिक्षा का भरपूर व्यवसायीकरण हो ही रहा है. इनसे बाहर भी निजी ट्यूशन के रूप में शिक्षा के जरिए धनार्जन का धंधा आज धीर-धीरे काफी जोर पकड़ चुका है. हालांकि ऐसा नहीं है कि ट्यूशन का ये चलन अकस्मात् जन्मा हो. अध्यापकों द्वारा बच्चों को निजी ट्यूशन देने का कार्य काफी पूर्व से किया जाता रहा है लेकिन, विगत कुछ वर्षों से निजी ट्यूशन के इस चलन में काफी वृद्धि देखने को मिल रही है. दरअसल पहले ट्यूशन शिक्षा के अंतर्गत एक विशेष सुविधा के रूप में होती थी. पर समय के साथ यह एक अनिवार्य व्यवस्था का रूप लेती जा रही है. इस बात का प्रमाण ‘राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान’ (एनएसएसओ) की हाल ही में आयी एक रिपोर्ट को देखने पर मिल जाता है. इस रिपोर्ट में एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह भी सामने आई है कि बच्चों को ट्यूशन भेजने में अब पारिवारिक पृष्ठभूमि का कोई विशेष महत्व नहीं रह गया है. पहले यही होता था कि प्रायः संपन्न परिवार के ही बच्चे ट्यूशन में जाते थे. लेकिन अब इस स्थिति में परिवर्तन आ गया है. संपन्न परिवार हो या गरीब परिवार, सभी अपनी पूरी क्षमता के अनुसार अपने बच्चे को निजी ट्यूशन के लिए भेजने लगे हैं. ये अलग बात है कि संपन्न परिवार के बच्चे कथित तौर पर ज्यादा योग्य व कुशल शिक्षकों के पास ट्यूशन लेने जाते हैं तो गरीब परिवार के बच्चे शायद साधारण योग्यता वाले शिक्षकों से मार्गदर्शन लेते हैं.
विद्यालयों की प्रस्वीकृति को लेकर अब तक शिक्षा कार्यालय को कुल 187 आवेदन प्राप्त हुआ है. जहां 90 निजी विद्यालयों को जांचोपरांत स्वीकृति प्रदान की गयी है. शेष कार्य प्रक्रियाधीन है. ससमय विभागीय निर्देश का अनुपालन नहीं करने वाले निजी विद्यालय के संचालकों पर विधि सम्मत कार्रवाई की जायेगी.
गोपीकांत मिश्र, जिला शिक्षा पदाधिकारी, सुपौल.

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