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ग्रामीण सड़कों की मरम्मत की गुणवत्ता की निगरानी जरूरी

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक राज्य की ग्रामीण सड़कों की मरम्मत की बड़ी योजना बनी है. संभवतः छठ के बाद मरम्मत के काम शुरू हाने वाले हैं. पर, सवाल है कि क्या मरम्मत में गुणवत्ता का ध्यान रखा जायेगा? सड़कों और पुलों के निर्माण में कौन कहे, मरम्मत की गुणवत्ता को लेकर भी हमेशा सवाल उठते […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
राज्य की ग्रामीण सड़कों की मरम्मत की बड़ी योजना बनी है. संभवतः छठ के बाद मरम्मत के काम शुरू हाने वाले हैं. पर, सवाल है कि क्या मरम्मत में गुणवत्ता का ध्यान रखा जायेगा? सड़कों और पुलों के निर्माण में कौन कहे, मरम्मत की गुणवत्ता को लेकर भी हमेशा सवाल उठते रहे हैं.
इस बार भी उठ सकते हैं. पर, यदि खुद मुख्यमंत्री उसकी गुणवत्ता पर निगरानी रखें तो स्थिति में फर्क पड़ सकता है. यदि ‘टिस’ या किसी अन्य प्रामाणिक एजेंसी की टीम से उसकी सोशल आॅडिट करा दी जाये तो और भी फर्क पड़ेगा. कुछ साल पहले एक ग्रामीण सड़क की मरम्मत स्थल से गुजरने का मौका मिला था.
जैसे-तैसे बेमन से काम करा रहे ठेकेदार से मैंने पूछा कि क्या आप लोगों को मरम्मत के लिए पर्याप्त पैसे सरकार से नहीं मिलते? उसने कहा कि मिलते तो हैं, पर कई लोगों को देने भी पड़ते हैं. संबंधित सरकारी लोगों के तो बंधे हुए हैं. पर स्थानीय बाहुबलियों की अलग से मांग होती है. यदि बाहुबलियों की संख्या एक से अधिक हुई तो और भी आफत! हमें भी तो कुछ मुनाफा होना चाहिए. ले देकर जो बचता है, उससे थोड़ा-बहुत जरूरी मरम्मत करा दी जाती है.
जरूरी मरम्मत यानी जहां गड्ढे अधिक गहरे हैं, वहीं काम होते हैं. इस तरह इस राज्य में वर्षों से मरम्मत के काम में भी उपेक्षा हुई है. इस बार नयी एजेंसी मरम्मत के काम में लग रही है. क्या बेहतर मरम्मत का प्रबंध किया जा सकेगा? सबसे निचले स्तर पर ग्रामीण सड़क, बिजली और चौकीदार सरकार के प्रतिनिधि होते हैं. यदि इस बार भी गंगाजल की तरह जहां-तहां अलकतरा छिड़क कर खानापूरी करवा देनी है तब तो कोई बात नहीं. फिर तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा. टूटी-फूटी ग्रामीण सड़कें जिस तरह लघु वाहन चालकों की रीढ़ कमजोर करती रही हैं, वैसे ही करती रहेगी. मैं 1996 में पटना के आशियाना-दीघा रोड स्थित किराये के मकान में रहने गया था. तब आशियाना-दीघा रोड ग्रामीण सड़क ही थी. तब स्कूटर चलाता था. उस समय उस जर्जर सड़क ने मेरी हड्यिों के साथ जो सलूक किया, उसका खामियाजा आज तक भुगत रहा हूं. जाहिर है कि ऐसा मैं अकेला नहीं हूं.
मायावती व एससी-एसटी एक्ट : उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार ने अक्तूबर, 2007 में पुलिस को एक दिशा-निर्देश भिजवाया था. दिशा-निर्देश अनुसूचित जाति-जन जाति कानून के सही कार्यान्वयन को लेकर था. इस कानून के दुरुपयोग की शिकायतों की पृष्ठभूमि में वह दिशा-निर्देश भेजा गया था. पुलिस को यह निर्देश दिया गया था कि वास्तविक शिकायतों की गंभीरता से जांच हो और इस कानून को कड़ाई से लागू किया जाये. पर, साथ ही पुलिस को यह भी निर्देश दिया गया था कि शिकायतें फर्जी पाये जाने पर आईपीसी की धारा-182 के तहत कार्रवाई हो.
याद रहे कि इस धारा में यह प्रावधान किया गया है कि ‘यदि कोई व्यक्ति इस आशय से झूठी शिकायत करे कि लोक सेवक अपनी कानूनी शक्ति का उपयोग दूसरे व्यक्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए करे’ तो ऐसे अपराध में छह माह तक की सजा का प्रावधान है. हाल में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने भी कहा कि इस कानून की जिन धाराओं में गिरफ्तारी होनी है, उसमें यदि सात साल से कम की सजा का प्रावधान है तो गिरफ्तारी से पहले जांच होगी.
भीख नहीं, सौदेबाजी : बसपा सुप्रीमो कांशी राम अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती वर्षों में रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया में थे. पर उन्होंने जल्द ही उस दल को छोड़ दिया. कांशी राम ने इस संबंध में 1987 में कहा था कि ‘मैंने आरपीआई से नाता इसलिए तोड़ लिया क्योंकि यह पार्टी अन्य दलों से सौदेबाजी के बजाय भीख मांगा करती थी.’
‘एक दिन पूरे देश पर राज करने’ का सपना पाल रहे कांशी राम को यह मंजूर नहीं था. वे चाहते थे कि हमें बेगिंग यानी भीख मांगने के बदले बारगेन यानी सौदेबाजी करनी चाहिए. कांशी राम के अनुसार 1971 के लोकसभा चुनाव में आरपीआई ने कांग्रेस से सीटों का तालमेल किया था. पर इस तालमेल में कांग्रेस ने आरपीआई को सिर्फ एक सीट दी थी. लगता है कि कांशी राम ने यही गुरुमंत्र मायावती को दिया था.
लगता है कि सुश्री मायावती इन दिनों उसी कांशी राम फाॅर्मूला’ का इस्तेमाल कर रही हैं. मायावती ने गत माह की सोलह तारीख को यह कह दिया कि ‘सम्मानजनक सीटें मिलने पर ही बसपा महागठबंधन का हिस्सा बनने को राजी होगी. वरना हमारी पार्टी अकेले ही चुनाव लड़ना बेहतर समझती है.’ मायावती ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अपने लिए विधानसभा की इतनी अधिक सीटें मांग दी थी जितनी कांग्रेस उन्हें दे नहीं सकती थी. वैसे भी कांशी राम को भी जब यह लगता था कि अकेले लड़ने से पार्टी का अधिक फैलाव होगा तो वे भी वैसा ही करते थे. 16 सितंबर के बाद कुछ ही दिनों तक मायावती ने कांग्रेस की ओर से पहल की प्रतीक्षा की. पर, कोई उत्साहजनक जवाब नहीं मिलने पर मायावती ने अलग रास्ता अपनाने का निर्णय किया. दूसरी ओर, पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ऐसे ही अवसर की तलाश में थे.
वे गत 21 सितंबर को लखनऊ पहुंचे और छत्तीसगढ़ के लिए बसपा से सीटों का तालमेल कर लिया. ध्यान रहे कि व्हील चेयर पर चलने वाले अधेड़ अजीत जोगी तो रायपुर से लखनऊ पहुंच गये, पर कांग्रेस का कोई जवान नेता भी दिल्ली से मायावती के यहां नहीं पहुंच सका. खैर अब तो मायावती की ट्रेन खुल चुकी है. शायद ही बीच में रुके. हालांकि, राजनीति में कब क्या होगा, यह कहना मुश्किल है. वैसे कांग्रेस को यह तय करना होगा कि वह सौदेबाजी में बसपा को कितनी अधिक सीटें देने को तैयार है. कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने कहा है कि मायावती के साथ बातचीत का रास्ता अभी खुला है.
भूली-बिसरी याद : सन 1974-75 के बिहार आंदोलन के समय की बात है. उसे जेपी आंदोलन भी कहा जाता था. पूर्व मुख्यमंत्री व वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दारोगा प्रसाद राय ने एक दिन कह दिया कि ‘जय प्रकाश जी आलोचना तो करते हैं, पर कोई विकल्प नहीं सुझाते. यह नहीं बताते कि करना क्या है.’ जेपी को यह बात लग गयी. हालांकि, उन्होंने यह महसूस किया कि राय जी की बात वाजिब है. जेपी भी मानते थे कि जो आदमी आलोचना करे, उसे विकल्प सुझाना चाहिए. अन्यथा कोरी आलोचना से क्या फायदा?
इस संबंध में आचार्य राम मूर्ति ने लिखा कि ‘जेपी तुरन्त काम मेें लग गये. दिन रात पढ़कर, लिख कर, उन्होंने एक योजना बना डाली. उसका नाम रखा ‘बिहार के लिए घोषणा पत्र.’ वह घोषणापत्र राज्य सरकार के पास भेज दिया गया. उसके बाद दशकों बीत गये. लेकिन आज तक नहीं मालूम कि जेपी के उस घोषणा पत्र का क्या हुआ. जेपी जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर उस घोषणा पत्र को छपवा कर बंटवाया गया था. जेपी के घोषणा पत्र में मुख्यतः एग्रो इंडस्ट्रियल इकाॅनोमी की योजना है. अब भी उस पर काम होना बाकी है.
और अंत में : बहुत पहले मैंने कहीं पढ़ा था कि बिहार कोषागार संहिता की धारा-46 के तहत जिलाधिकारी को अपने अधीन के कोषागार का साल में चार बार निरीक्षण और सत्यापन करना है. क्या जिलाधिकारी ऐसा करते हैं? इतना ही नहीं, पुलिस हस्तक की धारा-21 में प्रावधान है कि जिलाधिकारी नियमित अंतराल पर अपने जिले के पुलिस थानों का निरीक्षण करेंगे. यदि ये निरीक्षण करते होते तो मीडिया में तत्संबंधी खबरें जरूर आतीं. मुझे नहीं मालूम कि जिलाधिकारियों पर से काम का बोझ घटाने के लिए बिहार कोषागार संहिता और पुलिस हस्तक की संबंधित धाराओं में संशोधन किया गया है या यह जिम्मेदारी किसी अन्य अफसर को दी गयी है.

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