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VIDEO : पटना बोरिंग रोड चौराहे पर खड़े ग्रामीण इलाकों से मजदूरी तलाशने आये मजदूरों का दर्द

आशुतोष कुमार पांडेय @ पटना पटना : भिखारी ठाकुर की लिखित कहानी ‘बिदेसिया’ मजदूरों के साथ-साथ पलायन के दर्द को भी पीड़ा के साथ अभिव्यक्त करती है. भिखारी ठाकुर की इस कालजयी रचना पर गाहे-बगाहे रंग मंच पर नाटक देखने को आज भी मिलता है. भविष्य को लेकर होने वाले पलायन और दरकते रिश्तों की […]

आशुतोष कुमार पांडेय @ पटना

पटना : भिखारी ठाकुर की लिखित कहानी ‘बिदेसिया’ मजदूरों के साथ-साथ पलायन के दर्द को भी पीड़ा के साथ अभिव्यक्त करती है. भिखारी ठाकुर की इस कालजयी रचना पर गाहे-बगाहे रंग मंच पर नाटक देखने को आज भी मिलता है. भविष्य को लेकर होने वाले पलायन और दरकते रिश्तों की कहानी भिखारी ठाकुर कि इस कहानी का जड़ है. गांव की गरीबी से तंग आकर परदेस या शहरों में कमाने वाले मजदूर अपने परिवार को छोड़ जाते हैं. रोजगार की तलाश में पलायन के पीछे जहां गांव-घर छूटता है, वहीं मानवीय रिश्ते भी कमजोर पड़ जाते हैं. कुछ इसी तरह के ‘बिदेसिया’ के पात्र रोजाना बिहार की राजधानी पटना के सबसे व्यस्ततम चौराहे बोरिंग रोड पर खड़े होकर 365 दिन हर सुबह अपने आकस्मिक मालिकों का इंतजार करते हैं, ताकि कोई मालिक आये और उन्हें मजदूरी के लिए लेकर जाये.

इन मजदूरों में किसी का नाम सुरेश है, कोई रमेश है, कोई मुन्ना है, कोई साहिल है, सत्यदेव है. इन मजदूरों की आंखें रोजाना सुबह अपने पास हर आने वाले शख्स को घेर लेती है. घेरने के साथ ही अपना परिचय देने लगते हैं, मैं मिस्त्री हूं, मैं बढ़ई हूं, मैं मिट्टी काट लेता हूं और मैं पेंट कर लेता हूं. सड़क से गुजरने वाला हर शख्स इन्हें मालिक दिखता है. इनकी कातर निगाहें गांव में अपने बाल-बच्चों को अकेला छोड़कर दिन-भर की मजदूरी की तलाश में लोगों की चिरौरी करती है. मजदूरों में शामिल मुन्ना कहते हैं कि- सर कभी काम मिलता है और कभी नहीं भी मिलता है. कई बार काम करने के बाद लोग कहते हैं, मजदूरी कल ले लेना. कई तरह की परेशानियों को जूझते हुए यह अपने काम पर जाते हैं. कई बार निराश होकर लौटना भी पड़ता है.

गांव के खेतों में मजदूरी रही नहीं, गैर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले 15 सालों में 50 लाख से ज्यादा मजदूर सूखा और बाढ़ झेलते-झेलते तंग आकर पलायन कर चुके हैं. जो बचे हैं, उन्हें मनरेगा और सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता. सालों भर यह मजदूर अपने आपको को बाजार के चौराहे पर खड़े करते हैं और इनकी बोली लगती है. कई मजदूरों ने बताया कि काम लेने वाले लोग मानक मजदूरी भी नहीं देते. राज्य सरकार ने 6 अप्रैल 2015 को एक अधिसूचना जारी कर कुशल और अकुशल मजदूरों की मजदूरी में 8 से 13 रुपये की वृद्धि की थी. 2015 के उस आदेश के आलोक में देखें, तो अकुशल मजदूरों को 194 रुपये और अर्ध कुशल को 203 रुपये, कुशल को 247 रुपये और अतिकुशल को 301 रुपये. हालांकि, यह मजदूरी की रकम अन्य कई राज्यों की तुलना में काफी कम है, लेकिन मजदूरी की मानें, तो तय रकम भी कोई मालिक भुगतान नहीं करता.

मजदूरों का दर्द ऐसा कि उनके मुताबिक काम मिल जाये, वही बड़ी बात होती है. कई-कई दिन तक ऐसे ही खाली हाथ लौटना पड़ता है. वहीं, न्यूनतम मजदूरी की बात करें, तो न्यूनतम मजदूरी उसे कहा जाता है, जिसमें न्यूनतम मजदूरी से आशय उस मजदूरी से है, जो श्रमिक एवं उसके परिवार को जीवित रहने का आश्वासन प्रदान करने के साथ-साथ श्रमिक की कार्य कुशलता को भी अनुरक्षित करती है. इस प्रकार, न्यूनतम मजदूरी के अंतर्गत यह आशा की जाती है कि यह जीवन की अनिवार्यताओं को पूरा करने के अतिरिक्त श्रमिकों की कार्य क्षमताओं को भी बनाये रखेगी, अर्थात समुचित शिक्षा, शारीरिक आवश्यकतायें तथा सामान्य जीवन-निर्वाह के लिए भी पर्याप्त मात्रा में सुविधायें प्रदान की जायेंगी.काशइन मजदूरों को यह नसीब होता.

राजधानी पटना से सटे मसौढ़ी, जहानाबाद, नकटा दियरा और बिहटा से लेकर बाकी गांव और इलाकों में भी मनरेगा की स्कीम है, लेकिन मजदूरों को यह पता भी नहीं है. जानकार कहते हैं कि भारतीय निर्धन गांव जहां वर्ष में कुछ ही महीने व्यक्ति को काम मिलता है और शेष माह वह बेरोजगारी के अभिशाप को भोगता है. ग्रामीण इलाकों की स्थिति ऐसी नहीं है कि व्यक्ति को खाली समय में काम मिल सके. इसलिए खेती के समय यह मजदूर सिर्फ गांव में होते हैं और बाद के दिनों में शहरों में काम तलाशने के लिए आते हैं. इनमें से ज्यादातर मजदूर अकुशल होते हैं, जिन्हें कठिन श्रम के बाद ही मजदूरी मिल पाती है.

हमारे समाज में मजदूर वर्ग को हमेशा गरीब इंसान समझा जाता है, धूप में मजदूरी करने वालों को ही हम मजदूर समझते है. इसके विपरीत मजदूर समाज वह अभिन्न अंग है, जो समाज को मजबूत व परिपक्व बनाता है, समाज को सफलता की ओर ले जाता है. शारीरिक व मानसिक रूप से मेहनत करने वाला हर इन्सान मजदूर है, फिर चाहे वह ईट सीमेंट से सना इन्सान हो या एसी ऑफिस में फाइल के बोझ तले बैठा एक . किसी कवि ने सच कहा है -मैं एक मजदूर हूं भगवान की आंखों से मैं दूर हूं, छत खुला आकाश है, हो रहा वज्रपात है, फिर भी नित दिन मैं, गाता राम धुन हूं, गुरु हथौड़ा हाथ में, कर रहा प्रहार है, सामने पड़ा हुआ, बच्चा कराह रहा है, फिर भी अपने में मगन, कर्म में तल्लीन हूं, मैं एक मजदूर हूं.

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