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तंबू में विस्थापितों की ठिठुरती जिंदगी

बेनीपट्टी (मधुबनी) : सोमवार की सुबह 11 बजे अचानक आसमान मेंं काले बादल छा गये. देखते ही देखते बिजली की कड़कती आवाज के साथ तेज बारिश होने लगी. आम लोगों के लिए यह भले ही महज बारिश की फुहार हो, पर इसकी हर बूंद बेनीपट्टी मधवापुर प्रखंड सीमा पर त्रिमुहान पुल पर कपड़े के तंबू […]

बेनीपट्टी (मधुबनी) : सोमवार की सुबह 11 बजे अचानक आसमान मेंं काले बादल छा गये. देखते ही देखते बिजली की कड़कती आवाज के साथ तेज बारिश होने लगी. आम लोगों के लिए यह भले ही महज बारिश की फुहार हो, पर इसकी हर बूंद बेनीपट्टी मधवापुर प्रखंड सीमा पर त्रिमुहान पुल पर कपड़े के तंबू मेंं अपने बच्चों के साथ रह रहे बाढ़ विस्थापितों के लिये वज्रपात के समान था. जैसे-जैसे बारिश की बौंछार तेज होती गयी. लोगों की परेशानी भी बढ़ती गयी. बाढ़ मेंं विस्थापित

तंबू में विस्थापितों
हर परिवार अपने अपने देवी देवता को याद कर इस बारिश को रोकने की दुआ मांग रहे थे.
बाढ़ के कहर के कारण पिछले नौ दिनों से पुल पर किसी तरह गुजर कर रही सिमरकोण की मनतोरिया देवी और हथिरवा गांव की ममता देवी कह रही थी कि ” पता नै हमरा सबसे बलू की गलती होलई जे भगवान हमरे सब के जान लेबै लेल बलू उतारू हथिन. पहनिहे बलू सबटा घर पईन मेंं भसिया गेल हइ. दस दिन स हम आउर बाल बच्चा के ल क बलू सड़क पर छी. लेकिन दैबा के इहो नै देखल जाई हई. सरकार एक्को टा पनियों नै देलकई. कपड़ा के निच्चा मेंं छोट छोट बच्चा भींग रहल हई. कोना दिन कटबै से नै बुझाई हई.’
‘ यह कहती हुई ममता देवी तंग पुल पर अपने 5,7 व 10 साल के तीन बच्चों के साथ पॉलीथिन ओढ़े वर्षा के पानी से बचने का लगातार प्रयास किये जा रही थी, पर पॉलीथिन छोटा था. चार लोग इसमेंं समा नहीं पा रहे थे. ऊपर से कुछ कपड़ा और राहत मेंं मिला चूड़ा गुड़ भी था. जो बारिश के पानी मेंं भींग रहा था. वह आखिर बचाती तो किसे बचाती. बच्चों को या इस फटेहाल जिंदगी मेंं दाने-दाने को तरस रहे दाने को.
कहते हैं जब मुसीबत आती है, तो अकेले नहीं आती. इसी समय ममता का छोटा बच्चा राजू भी उसकी ममता की परीक्षा लेने को बेताब था. भोजन के लिये चिल्लाये जा रहा था. पर इस आफत की घड़ी मेंं उसे कुछ समझ मेंं नहीं आ रहा था कि आखिर वह करे भी तो क्या. उसके सारे अनाज धौंस नदी के तेज धारा मेंं बह गये थे. घर मेंं कमर भर पानी प्रवेश कर जाने के कारण वह बेघर हो चुकी थी. पुल पर पुराने कपड़े का तंबू तान कर स्थिति बदलने की उम्मीद मेंं बैठी थी. माल मवेशी के साथ अपने बच्चों को भोजन देने की चुनौती उसे जान खाये जा रही थी. आस पास के लोगों से कुछ मदद लेकर नौ दिन तो गुजार दिये, पर रोज-रोज वो कैसे मांगे. ऊपर से हो रही तेज बारिश और हवा के झोंके से बना उसका तंबू भी साथ छोड़ने को बेचैन था. हवा के झोंके कभी तंबू के कपड़े उड़ा रहे थे, तो कभी तंबू मेंं लगा बांस का खंभा नदी में भागने को तैयार था.
परेशान ममता जब कपड़े को दोनों हाथों से पकड़ कर बैठती, तो फिर बांस के खंभे भागने लगते थे. चंद पल के लिए जब दोनों को संभालने लगती थी, तो फिर बच्चों को भूख से बिलखने की आवाज और मवेशियों की आवाज उसकी बेचैनी छीन रखी थी. फिर क्या ममता सिसकने लगी. कहा, यौ बाबूसभ गरीबक जीवन पहाड होयत अछि. एहि स नीक त भगवान हमरा सभके एहि नदी के धार मेंं एके साथ बहा लैतई त सेहे नीक रहइत. अइ जीवन सय मरनाइये नीक. जे अपन बाल बच्चा के पेट नै भरि सकैत छी . यक करुण कथा किसी एक ममता की नहीं, बल्कि बेनीपट्टी प्रखंड स्थित सोईली पुल पर शरण लिये तीन दर्जन से अधिक विस्थापितों की भी थी. जो बाढ़, वर्षा व तेज हवा के बीच अपना घर छोड़ कर तंबू मेंं रहने को विवश थे.

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