रविकांत पाठक, देव
पौ फटते ही पेट की चिंता. खुद का और परिवार की तरक्की की चिंता. रिश्तेदारी निभाने की चिंता. बाल-बच्चों की पढ़ाई की चिंता. बीमारी में होने वाले खर्च की चिंता. बच्चों की शादी-विवाह की चिंता. यानी चिंताओं का महासागर. विस्तर से उठते ही आपाधापी. काम मिलेगा या नहीं इसकी एक अलग चिंता. ऐसे में तमाम चिंताओं को दूर करने के लिए रोजगार की एक अलग चिंता. यह व्यथा उन मजदूरों की है, जो हर सुबह काम की तलाश में देव शहर में पहुंचते हैं. हर दिन सैकड़ों की संख्या में मजदूरों की भीड़ शहर के नीम पेड़ के समीप लगती है. वैसे इस जगह को मजदूर बाजार के रूप में जाना जाता है. यहां देव प्रखंड के विभिन्न क्षेत्रों से अहले-सुबह ही मजदूर पहुंचने लगते हैं और काम मिलने का इंतजार करने लगते है. बड़ी बात यह है कि यहां हर दिन मजदूरों की बोली लगती है. कमाई के अनुसार मजदूरी तय होती है. कई बार ऐसा भी होता है कि जब मजदूर बिना काम मिले थक-हार कर घर लौट जाते हैं. ऐसे में पूरे दिन वे चिंता में डूबे रहते है. देव शहर में यह सिलसिला एक दशक से चल रहा है. बड़ी बात यह है कि अधिकतर मजदूरों के पास जॉब कार्ड नहीं है. मौसम चाहे जो भी हो न उनके आने का सिलसिला रूका है और न उनके जीवन को बदलने का कभी प्रयास हुआ. टकटकी लगाये बैठे इन पेशेवर मजदूरों की व्यथा, तो सुनते ही बनती है.सरकार के नुमाइंदों का नहीं है ध्यान
काम की तलाश में पहुंचने वाले मजदूरों का कहना है कि सरकार रोजगार गारंटी योजना को लागू तो किया, लेकिन काम की गारंटी नहीं है. उल्टे यहां सरकारी स्तर पर मनरेगा में कम मजदूरी मिलती है. मजदूरी की राशि कब मिलेगी. इस बात की गारंटी भी नहीं है. ऐसे में वे काम की तलाश में शहर तक आने को विवश होते हैं. मजदूरों की मानें, तो वे 20 साल पूर्व जहां थे. वहीं, आज भी हैं. थक हार कर रोटी की जुगाड़ में शहर की सड़कों पर आने को विवश होते हैं. इन दिनों शादी-विवाह के मौसम में कुछ मौसमी रोजगार मिल जा रहा है, तो खाने-पीने की समस्या कुछ हद तक दूर हो जा रही है. लग्न खत्म होते ही फिर काम की बेचैनी बढ़ जाती है. मजदूरों की कहानी उनकी ही जुबानीक्या कहते हैं मजदूर
1. काम की तलाश में पहुंचे मजदूर नन्हों सिंह ने बताया कि जब तक सरकार द्वारा फैक्ट्रियां नहीं लगायी जायेंगी, तब तक मजदूर वर्ग का विकास नहीं होगा. सरकार और जनप्रतिनिधि दोनों को पहल करनी होगी. हमेशा काम की चिंता सताते रहती है. 2. मजदूर तुलसी राम ने कहा कि मजदूरों का पलायन रोकने के लिए मनरेगा योजना का प्रयास ठीक था. लेकिन, पंचायत रोजगार सेवक की खानापूर्ति में असल मजदूरों को काम नहीं मिल पाता है. जो काम करते है उन्हें समय पर पैसा नहीं मिलता है. 3. मजदूर राजेश राम ने बताया कि बेरोजगारों को ग्रामीण क्षेत्रों में हमेशा रोजगार नहीं मिलती है. इससे शहर की तरफ मुंह मोड़ना पड़ता है. सरकार को ध्यान देना चाहिए. जनप्रतिनिधि भी उन पर ध्यान नहीं देते हैं. गरीबों के लिए संचालित योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच रहा है. 4. मजदूर नंदकिशोर चौधरी ने बताया कि दिल्ली, पंजाब या अन्य प्रदेशों में काम करने वालों को 50 फीसदी की मनरेगा में उपस्थिति दिखाकर रोजगार दिया जाता है. असली मजदूर को छोड़ने से गरीबी बढ़ी है. परिवार के कई सदस्यों का भरण-पोषण नहीं हो रहा है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है