औरंगाबाद (ग्रामीण) : नवीनगर प्रखंड में बिहार-झारखंड की सीमा पर स्थित अति प्राचीन धार्मिक शक्तिपीठ गजनाधाम आस्था का केंद्र बिंदु है. मान्यता है कि जो भी स्वच्छ मन से मां गजना की आराधना करता है उसकी मनोकामना अवश्य पूरी होती है. मंदिर के समीप से बहती कररबार नदी गजनाधाम की शोभा में चार चांद लगाती दिखती है.
गजनाधाम पहुंचने पर शांति की परम अनुभूति प्राप्त होती है. मां की महिमा चारों ओर फैली हुई है. प्रति वर्ष नवरात्र, आद्र्रा नक्षत्र और चैत मास में लाखों श्रद्धालु दर्शन को आते है. वैसे सालोभर श्रद्धालु दर्शन पूजन के लिए आते रहते है.
पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब ब्रह्म द्वारा सृष्टि निर्माण किया जा रहा था, तो गजासुर के नेतृत्व में असुरों ने इस कार्य में बाधा डाली. तब ब्रह्म ने सृष्टि की रक्षा के लिए आदि शक्ति को पुकारा. मां गौरी रूपी दुर्गा हाथी पर सवार होकर प्रकट हुईं और गजासुर का संहार किया.
गजासुर का अंत करने वाली दुर्गा गजगौरी कहलायीं और उसी समय से यह स्थल का नाम गजनाधाम पड़ा. भगवती गजगौरी ने अपने तन के मैल से आदि गणोश (दस भुजी गणोश) को उत्पन्न किया और उन्हें अपना हाथी एवं अस्त्रों से सुसज्जित किया, तब ब्रह्मा ने आदि गणोश की पूजा कर सृष्टि रचना आरंभ की.
राजा खेत सिंह ने शुरू की थी गजगौरी की पूजा : मुगलों के भय से अपने सतीत्व को बचाने के लिए क्षत्रणियां जौहर हो जाती थीं. इसमें पद्मिनी जौहर व्रत प्रसिद्ध है. पृथ्वीराज के मित्र व बुंदेलखंड के राजा खेत सिंह ने नारियों द्वारा सतीत्व की रक्षा स्वयं करने के लिए गजगौरी पूजन की प्रथा चलायी.
इस प्रथा के अनुसार, नवविवाहिता को पति के घर में प्रवेश करने के पूर्व मुंह दिखायी के बाद संबंधियों द्वारा उपहार स्वरूप तलवार भेंट किया जाता था. नव वधू उसी तलवार से भेड़-बकरियों को काटते हुए रक्त को लांघ कर पति के घर में प्रवेश करती थी. बुंदेलखंड से इस क्षेत्र में चंदेलों के आने के साथ ही गजगौरी पूजन की प्रथा नवीनगर के साथ-साथ समीपवर्ती राज्य झारखंड में भी शुरू हुई.
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, बुंदेलखंड के युवराज चंपत राय की रानी का भी नाम गजना देवी था. चंपत राय ने पलामू फतह कर पलामू राज्य की स्थापना की. जब मुगल पलामू विजय के लिए पहुंचे तो तब गजना देवी स्वयं हाथी पर चढ़ कर कररबार नदी के तट पर युद्ध करती हुई वीरगति को प्राप्त हुईं. इस कारण भी इस स्थान का नाम गजना पड़ा.