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Kartik Purnima 2025: महिमा कार्तिक पूर्णिमा की

Kartik Purnima 2025: ‘भविष्य’ पुराण में कार्तिक पूर्णिमा का विशेष महत्व बताया गया है. यह दिन स्नान, दान और देवपूजन के लिए सर्वोत्तम माना गया है. इस माह को कृत्तिका नक्षत्र से जोड़ा गया है, और इसे भगवान श्रीकृष्ण, शिव व कार्तिकेय को समर्पित ‘देवदीपावली’ के रूप में मनाया जाता है.

-मार्कण्डेय शारदेय
ज्योतिष व धर्म विशेषज्ञ

Kartik Purnima 2025: ‘भविष्य’ पुराण में आया है कि श्रीराम सीता-लक्ष्मण के साथ वनवास चले गये थे. भरतजी ननिहाल से अयोध्या आये. उन्हें पिता की मृत्यु और राम-वनगमन की जानकारी मिली तो माता कैकेयी को खूब दुत्कारा. इसके बाद कौसल्या के पास आये. उन्हें लगा कि कौसल्या मां के मन में होगा कि यह करतूत भरत की ही है, इसलिए वह लगे कसम पर कसम खाने कि मेरा इस कुकृत्य में कोई योग नहीं. उसी में उन्होंने कहा –

‘वैशाखी कार्तिकी माघी तिथयोsमरपूजिताः।
अप्रदानवतो यान्ति यस्यार्योनुमते गतः’।।

अर्थात्; यदि श्रीराम के वनवास में मेरी सम्मति रही हो तो वैशाख, कार्तिक एवं माघ- इन अधिक पुण्यमयी तथा देवताओं द्वारा भी वंदनीय तीनों पूर्णिमाओं में बिना स्नान-दान के ही मुझसे व्यतीत हो जाएं. यह सुन कौसल्या ने विश्वास कर उन्हें गले से लगा लिया. स्पष्ट है कि अन्य पूर्णिमाओं की अपेक्षा इन तीनों की महत्ता अधिक है.

हमारे बारह महीनों का क्रम समय-समय पर बदलता रहा है. कभी आग्रहायण (अगहन, मार्गशीर्ष) से प्रारंभ होकर कार्तिक तक चलता था. प्रायः व्रतादि में आज भी यही मान्य है. अंतिम मास होने से इसमें धार्मिक कार्य पूर्णता पाते हैं, अतः इसका माहात्म्य अधिक हो जाता है. अंत भला तो जग भला…

यों तो हमारे सभी महीने ही विष्णु को समर्पित हैं व विष्णुमय हैं, परंतु हमारे धर्मशास्त्र कार्तिक, माघ एवं वैशाख मास में प्रातः स्नान एवं श्रीहरि के पूजन का महत्त्व बताते थकते नहीं-‘तुला-मकर-मेषेषु प्रातःस्नानं विधीयते’.

इन तीनों में भी तुलना करना मुश्किल है. फिर भी कार्तिक के संदर्भ में कहा गया है- ‘द्वादशेष्वपि मासेषु कार्तिकः कृष्णवल्लभः ’,यानी बारहों महीनों में कार्तिक श्रीकृष्ण को अत्यधिक प्रिय है, इसीलिए ‘स्कन्द’ पुराण में कहा गया है –

‘न कार्तिकसमो मासो न कृतेन समं युगम्।
न वेदसदृशं शास्त्रं न तीर्थं गंगया समम्’।।

अर्थात्; कार्तिक के समान कोई महीना नहीं, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं, वेदों के समान कोई शास्त्र नहीं तथा गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है.

इसका कारण है कि अत्यंत सूक्ष्म छह ताराओं का सघन पुंज कृत्तिका नक्षत्र के आधार पर ही इस महीने का नाम पड़ा है.

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2357 ई.पू. चीनी ग्रंथों में भी इस नक्षत्रपुंज का नाम आया है.‘ग्रह-नक्षत्र’ के लेखक श्री त्रिवेणी प्रसाद सिंह जी कहते हैं, ‘…ईसवी सन् के कोई दो हजार वर्ष पूर्व वसंत-सम्पात कृत्तिका नक्षत्र पर ही होता था. तभी कृत्तिकाओं के पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वर्गीय सेना के सेनापति माने गये; क्योंकि नक्षत्रों की गणना यहीं से आरंभ होती थी. जिस महीने चंद्रमा कृत्तिका नक्षत्र के समीप रहा, वह महीना कार्तिक महीना कहलाया…. कृत्तिकाओं के वैदिक नाम अम्बा, दुला, नितत्नी, भ्रयन्ती, मेघयन्ती, वर्षयन्ती, चुपुणीका….

पौराणिक काल में इन्हें क्रमशः सम्भूति, अनसूया, क्षमा, प्रीति, सन्नति, अरुन्धती तथा लज्जा कहा गया. बिना किसी यंत्र के कोई तो 6 ताराओं को ही देख सकता है और कोई सात को’.

हमारे महीनों के नाम विज्ञान-सम्मत नक्षत्रों पर आधारित हैं. कार्तिक का नाम कृत्तिका नक्षत्र से संबंधित है. प्रायः पूर्णिमा को यह नक्षत्र आ ही जाता है. कभी-कभी भरणी व रोहिणी का योग भी प्राप्त होता है. भरणी के यम, कृत्तिका के अग्नि एवं रोहिणी के ब्रह्मा स्वामी बताये गये हैं. यों तो इन तीनों नक्षत्रों में से किसी की व्याप्ति के कारण इस पूर्णिमा का महत्त्व नहीं घटता, परंतु स्नान-दान में कृत्तिका के रहने से महापुण्य तथा रोहिणी के होने से महाकार्तिकी कहा गया है.

महाकार्तिकी के संदर्भ में ‘भविष्य’ पुराण सत्ययुगी राजा दिलीप की पत्नी कलिंगभद्रा की कथा प्रस्तुत करता है. तदनुसार महारानी ने छह वर्षों तक लगातार कृत्तिका व्रत करने का संकल्प लिया. उपवास, देवपूजन, हवन, दान करती आ रही थीं, परंतु कालवश उद्यापन के पहले ही सांप ने डंस लिया और वह मर गयीं. उनका अगला जन्म बकरी के रूप में हुआ. लेकिन पुण्य के प्रभाव से पूर्वजन्म की बातें याद रहीं. महर्षि अत्रि के योगोपदेश से अगले जन्म में गौतमपुत्री योगलक्ष्मी हुई और उनका विवाह महर्षि शाण्डिल्य से हुआ.

कार्तिक पूर्णिमा को तीर्थस्नान के रूप में कुरुक्षेत्र, प्रयाग, पुष्कर, नैमिष, मूलस्थान (मुलतान), गोकर्ण (मैसूर), द्वारका एवं मथुरा की विशेष महिमा है. फिर भी; इसमें कुरुक्षेत्र, द्वारका, पुष्कर तथा मथुरा का फल अधिक है. पुनः अयोध्या आदि अन्य मोक्षदायक पुरियों की भी महिमा भी खूब बतायी गयी है, इसीलिए कहा गया है –

‘कुरुक्षेत्रे कोटिगुणो गंगायां चापि तत्समः।
ततोsधिकः पुष्करे स्याद् द्वारकायां च भार्गव।
अन्यपूर्याः तत्समानाः मुनयो मथुरां विना’।।

यहां ‘गंगायां चापि तत्समः’ जो कहा गया. तदनुसार जहां कहीं भी गंगा बहती हैं, वहां स्वतः तीर्थ है. यही कारण है कि लोक में इसका एक नाम ‘गंगास्नान’ भी है. हम अपने बिहार की बात करें तो यहां पटना के गंगाघाट पर कार्तिक पूर्णिमा को श्रद्धालुओं की महती भीड़ उमड़ पड़ती है. यों भी ‘कलौ गंगा विशिष्यते’ यानी कलियुग में गंगाजी की महिमा अत्यधिक है, परंतु जहां गंगा नहीं, वहां नामोच्चारण व स्मरण मात्र से भी जगत्पावनी भागीरथी की उपस्थिति सहज मान्य है. इसीलिए हम जहां कहीं रहें, देवनदी से दूरी मानते ही नहीं.

‘भविष्य’ पुराण के अनुसार, वैशाख, कार्तिक एवं माघ की पूर्णिमाएं स्नान-दान के लिए अधिक मूल्यवती हैं. वैशाखी में उज्जयिनी की शिप्रा में तो कार्तिकी में पुष्कर में तथा माघी में वाराणसी का उच्च स्थान है. इनमें ब्राह्मणों को दान के अतिरिक्त अपने सगे-संबंधियों; जैसे- बहन, भांजे, बुआ आदि के अलावे मित्रों, विपत्तिग्रस्त कुलीनों के साथ ही अन्य गरीबों को भी दान देना श्रेयस्कर माना गया है. ‘स्कन्द’ पुराण में कार्तिक के शुक्लपक्ष की अंतिम तीन तिथियों त्रयोदशी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमा के माहात्म्य में श्रीमद्भगवद्गीता एवं विष्णुसहस्रनाम के पाठ को विशेष पुण्यदायक कहा गया है. इस पूर्णिमा को प्रातः नित्यकृत्यों से निवृत्त होने के बाद केले के थम्बों, ईख तथा आम्रपल्लवों एवं रंग-बिरंगे कपड़ों से विष्णुमण्डप सुसज्जित कर बन्दनवार आदि लगाकर विष्णुपूजा का विधान भी है.

‘कृत्यसार-समुच्चय’ के अनुसार कार्तिक में कोशी नदी में स्नान भी पुण्यप्रद माना गया है. हां, एशिया के प्रसिद्ध पशुमेला का केंद्र गंगा-गंडक के संगम स्थल हरिहरक्षेत्र, सोनपुर में भी कार्तिक पूर्णिमा को स्नान एवं बाबा हरिहरनाथ के दर्शन का धार्मिक महत्त्व अत्यधिक है. दूर-दूर के लोग यहां आते हैं और गजेन्द्रमोक्ष से जुड़े इस पवित्र तीर्थ में स्नान-पूजन कर पुण्य प्राप्त करते हैं.

वस्तुतः इस दिन के मुख्य कृत्य प्रातःस्नान, देवपूजन एवं दान ही हैं. देवताओं में विशेष पूज्य श्रीहरि, भगवान शंकर एवं कार्तिकेय हैं. इस दिन का एक नाम देवदीपावली भी है. इसी दिन भगवान शंकर ने त्रिपुर-संहार किया था. इसी विजय के उपलक्ष्य में देवमंदिरों, विशेषकर शिवमंदिर में दीपप्रज्वलन का माहात्म्य है.

विष्णु-धर्मोत्तर पुराण में कहा गया है कि इस दिन त्रिपुरोत्सव मनाने से तथा सात सौ बीस बत्तियों के दीपों के दान से शिव की प्रीति बढ़ती है. यह भी मान्यता है कि इस दिन प्रज्वलित दीपों के दर्शन से कीट-पतंग, तरु-गुल्म आदि भी परम गति पाते हैं.

(लेखक की कृति ‘सांस्कृतिक तत्त्वबोध’ से)

Shaurya Punj
Shaurya Punj
रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज से मास कम्युनिकेशन में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के बाद मैंने डिजिटल मीडिया में 14 वर्षों से अधिक समय तक काम करने का अनुभव हासिल किया है. धर्म और ज्योतिष मेरे प्रमुख विषय रहे हैं, जिन पर लेखन मेरी विशेषता है. हस्तरेखा शास्त्र, राशियों के स्वभाव और गुणों से जुड़ी सामग्री तैयार करने में मेरी सक्रिय भागीदारी रही है. इसके अतिरिक्त, एंटरटेनमेंट, लाइफस्टाइल और शिक्षा जैसे विषयों पर भी मैंने गहराई से काम किया है. 📩 संपर्क : [email protected]

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