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Bakrid 2020: अपने रब की रजामंदी के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दे ऐ बंदे

Bakrid 2020: इस्लाम धर्म में जो भी त्योहार हैं, उसकी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है. ईद-उल-अजहा यानी बकरीद का भी एक पवित्र ऐतिहासिक पक्ष है. यह त्योहार पैगंबर हजरत इब्राहीम अलै सलाम की सुन्नत की अदायगी का नाम है. ज्ञातव्य हो कि इस पर्व का मूल संदेश यह है कि एक इंसान अपने रब यानी ईश्वर की रजामंदी के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर सकता है. सीएम कॉलेज दरभंगा के प्रधानाचार्य डॉ मुश्ताक अहमद ने बकरीद के बारें में कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं...

Bakrid 2020: इस्लाम धर्म में जो भी त्योहार हैं, उसकी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है. ईद-उल-अजहा यानी बकरीद का भी एक पवित्र ऐतिहासिक पक्ष है. यह त्योहार पैगंबर हजरत इब्राहीम अलै सलाम की सुन्नत की अदायगी का नाम है. ज्ञातव्य हो कि इस पर्व का मूल संदेश यह है कि एक इंसान अपने रब यानी ईश्वर की रजामंदी के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर सकता है. सीएम कॉलेज दरभंगा के प्रधानाचार्य डॉ मुश्ताक अहमद ने बकरीद के बारें में कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं…

ईश्वर की रजामंदी ही एक इंसान की कामयाबी समझी जाती है. यही वजह है कि हजरते इब्राहीम (अ0स0) अपने रब की खुशनुदी हासिल करने के लिए अपने एकमात्र पुत्र हजरत इस्माइल अलै0सलाम को अल्लाह की राह में कुर्बान (बलिदान) करने के लिए तैयार हो गये. इतिहास साक्षी है कि एक ऐसा बाप जिसे आखिरी उम्र में एक मात्र पुत्र की प्राप्ति हुई हो और जब वह अपने स्वप्न में देखता है कि अल्लाह (ईश्वर) उनसे अपनी सब से प्यारी चीज की कुर्बानी चाहता है, तो वह बगैर किसी चिंता के अपने पुत्र हजरते इस्माइल (अ0स0) की कुर्बानी देने को तैयार हो जाते हैं. अल्लाह को हजरते इब्राहीम के समर्पण और उनकी साफ नीयत व मुहब्बत इतनी पसंद आयी कि हजरते इस्माइल की जगह दुंबा (एक प्रकार का बकरा) को खड़ा कर दिया. उसी की याद में जब तक दुनिया रहेगी, उस वक्त तक इस्लाम धर्म के मानने वाले हजरते इब्राहीम की सुन्नत को ईदुल अजहा के तौर पर मनाते रहेंगे.

यह त्योहार इस्लामी कैलेंडर के जिलहिज्ज महीने की दसवीं तारीख को मनाया जाता है और तीन दिनों तक कुर्बानी दी जा सकती है. यही वह महीना है, जिसमें मुसलमान अपने हज जैसे पवित्र कर्तव्य को भी पूरा करते हैं. यह कुर्बानी वैसे तमाम मुसलमानों पर फर्ज है, जो अार्थिक दृष्टि से संपन्न हैं, क्योंकि इस्लाम में सामाजिक संतुलन पर विशेष ध्यान रखा गया है. इसलिए कमजोर गरीब लोगों पर कुर्बानी देना फर्ज नहीं किया गया है. जबकि जो धनवान हैं, उन पर फर्ज है और कुर्बानी का जानवर मात्र कुर्बानी करने वाले या उनके परिवार के लिए ही नहीं होता, बल्कि कुर्बानी का तोहफा उन गरीबों तक पहुंचाना भी फर्ज है, जो इसके लायक नहीं हैं. कुर्बानी दिखावे की चीज नहीं है, क्योंकि यह एक इबादत है और इस्लाम में इबादत इंसान की पाक नियत को पूरा करने का नाम है.

आज कल एक सामाजिक बीमारी यह पैदा हो गयी है कि समाज में खुद को ऊंचा दिखाने के लिए पचास हजार से लेकर लाख तक के हलाल जानवरों की कुर्बानी करने का ढिंढोरा पीटा जाता है. जबकि इस्लाम में जाहिरी अर्थात दिखावटी नुमाइश इबादत में कभी जायज नहीं है, क्योंकि ऐसे जाहिरी आचरण से गरीब तबके के लोगों में एक मायूसी उत्पन्न होती है. इससे परहेज करने की आवश्यकता है, क्योंकि इस्लाम मजहब सामाजिक समरसता के मूल संदेश पर आधारित है. यह त्योहार एक साथ दो संदेश देता है. प्रथम यह कि इस पृथ्वी पर जो भी इंसान बसता है, उसका अपना कुछ भी नहीं है, सब ईश्वर का है और इंसान को ईश्वर की रजामंदी के लिए ही अमल (कर्तव्य) करना चाहिए. दूसरा संदेश यह है कि एक धनवान का धन मात्र उनके ऐश-व-आराम के लिए ही नहीं है, बल्कि उन निर्धनों के लिए है, जो चाहते हुए भी अपने जीवन में खुशी हासिल करने के लायक नहीं हैं.

यही वजह है कि कुर्बानी के जानवर के एक तिहाई हिस्से को गरीबों में बांटने का हुक्म है. अगर ऐसा किया जाता है तो एक तरफ ईश्वर की रजामंदी हासिल होती है, तो दूसरी तरफ उन गरीबों की खुशी से इंसान को एक सुकून हासिल होता है. शर्त यह है कि त्योहार को मजहबी उसूलों की रोशनी में मनाया जाये, ताकि इस्लाम जो सामाजिक समरसता का प्रतीक है, वह अपनी प्रासंगिकता को पूरा कर सके. कुरआन शरीफ में साफ तौर पर कहा गया है कि ‘‘फसल्ले लेरब्बेका वन्हर’’ अर्थात नमाज पढ़ो और अपने रब की खुशनुदी के लिए कुर्बानी करो. हदीस शरीफ में भी कहा गया है कि पैगंबर हजरत मोहम्मद (स0) ने कहा कि ‘या अयोहन्नास इन्ना अला कुल्ले अहले बैतिन फी कुले आम उजहिया’ अर्थात (ऐ लोगों हर साल हर घर पर एक कुर्बानी वाजिब है.

उसी तरह एक दूसरी हदीस है, ‘जो धनवान हैं और कुर्बानी नहीं करते, वह हमारी ईदगाह के करीब भी न आये. इससे यह साबित हो गया कि इस्लाम धर्म में इस पवित्र कुर्बानी का धार्मिक महत्व क्या है. वैसे दुनिया के अन्य धर्मों में भी कुर्बानी की प्रथा रही है. यहूदियों के यहां भी कुर्बानी का जिक्र है और बाइबिल में भी इसका इशारा मिलता है. हमारे हिंदुस्तान में भी सनातन धर्म में बलि की प्रथा है और सभी धर्मों में कुर्बानी और बलि देने का एकमात्र उद्देश्य यह रहा है कि मनुष्य अपने ईश्वर को प्रसन्न करें.

इस्लाम धर्म में भी कुर्बानी का एकमात्र उद्देश्य सुन्नते इब्राहीम की अदायगी है और ईश्वर के प्रति अपने आप को समर्पण करने का प्रमाण है, क्योंकि हदीस में साफ तौर पर कहा गया है कि कुर्बानी के जानवर की खाल (चमड़ा), बाल और रक्त ईश्वर तक नहीं पहुंचते, बल्कि कुर्बानी देने वाले की नीयत को ईश्वर कबूल करता है. यहां यह बताना भी आवश्यक है कि इस्लाम धर्म में किसी भी तबके की दिलआजारी (दिल दुखाने) की इजाजत नहीं है. इसलिए कुर्बानी को खुली जगहों पर करने की मनाही है, बल्कि आदमी की बात तो छोड़िए, एक जानवर को दूसरे जानवर के सामने भी जबह करने की मनाही की गयी है. आज जब पूरा विश्व कोरोना महामारी से जूझ रहा है, ऐसे में इस्लाम धर्म साफ तौर पर सामूहिकता से परहेज करने की वकालत करता है. यह अच्छी बात है कि भारत के सभी मुस्लिम उलेमाओं ने ईदगाह और मस्जिदों में न जाने की बात कही है और ईद की तरह बकरीद की नमाज भी अपने घरों में ही अदा करने की सलाह दी है. कुर्बानी भी अपनी सहूलियत से करने की वकालत की है.

News posted by : Radheshyam kushwaha

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