भगवद्गीता का ज्ञान परंपरा विधि से करना चाहिए. परंपरा विधि के लुप्त होने पर उसके सूत्रपात के लिए अर्जुन को चुना गया. हमें चाहिए कि हम अर्जुन का अनुसरण करें, तभी हम भगवद्गीता का सार समझ सकेंगे और तभी कृष्ण को भगवान के रूप में जान सकेंगे.
परमेश्वर कृष्ण को वे ही जान सकते हैं, जो अर्जुन तथा उसके अनुयायियों की भांति भक्ति के माध्यम से भगवान के संपर्क में रहते हैं. आसुरी या नास्तिक प्रकृति के लोग कृष्ण को नहीं जान सकते. ऐसा मनोधर्म जो भगवान से दूर ले जाए, परम घातक है. भगवद्गीता कृष्ण की वाणी है और क्योंकि यह कृष्ण का तत्व विज्ञान है, अत: इसे कृष्ण से ही समझना चाहिए जैसे कि अर्जुन ने किया. इसे नास्तिकों से ग्रहण नहीं करना चाहिए. परम सत्य का अनुभव तीन प्रकार से किया जाता है- निराकार ब्रह्म, अंतर्यामी परमात्मा तथा भगवान. अत: परम सत्य के ज्ञान की अंतिम अवस्था भगवान है.
हो सकता है सामन्य व्यक्ति अथवा ऐसा मुक्त पुरुष, जिसने निराकार ब्रह्म अथवा अंतर्यामी परमात्मा का साक्षात्कार किया है, भगवान को न समझ पाये. ऐसे व्यक्तियों को चाहिए कि वे भगवान को भगवद्गीता के श्लोकों से जानने का प्रयास करें, जिन्हें स्वयं कृष्ण ने कहा है. कभी-कभी निर्विशेषवादी कृष्ण को भगवान रूप में या उनकी प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं, किंतु अनेक मुक्त पुरुष कृष्ण को पुरुषोत्तम रूप में नहीं समझ पाते. इसीलिए अर्जुन उन्हें पुरुषोत्तम संबोधित करता है. इतने पर भी कुछ लोग नहीं समझ पाते हैं कि कृष्ण समस्त जीवों के जनक हैं. इसीलिए अर्जुन उन्हें भूतभावन कह कर संबोधित करता है. यदि कोई उन्हें भूतभावन के रूप में समझ लेता है, तो भी वह उन्हें परम नियंता के रूप में नहीं जान पाता.
इसीलिए उन्हें भूतेश या परम नियंता कहा गया है. यदि कोई भूतेश रूप में भी उन्हें समझ लेता है, तो भी उन्हें समस्त देवताओं के उद्गम के रूप में नहीं समझ पाता. इसीलिए उन्हें देवादेव, सभी देवताओं का पूज्यनीय देव कहा गया है. यदि देवादेव रूप में भी उन्हें समझ लिया जाये, तो भगवान कृष्ण प्रत्येक वस्तु के परम स्वामी के रूप में समझ नहीं आते. इसीलिए उन्हें जगत्पति कहा गया.
– स्वामी प्रभुपाद