जीवात्मा के साथ निरंतर रहनेवाला परमात्मा परमेश्वर का ही प्रतिनिधि है. वह सामान्य जीव नहीं है. चूंकि अद्वैतवादी चिंतक शरीर के ज्ञाता को एक मानते हैं, अतएव उनके विचार से परमात्मा तथा जीवात्मा में कोई अंतर नहीं है. इसका स्पष्टीकरण करने के लिए भगवान कहते हैं कि वे प्रत्येक शरीर में परमात्मा रूप में विद्यमान हैं. वे जीवात्मा से भिन्न हैं, पर हैं, दिव्य हैं. जीवात्मा किसी विशेष क्षेत्र के कार्यों को भोगता है, लेकिन परमात्मा किसी सीमित भोक्ता के रूप में या शारीरिक कर्मों में भाग लेनेवाले के रूप में विद्यमान नहीं रहता. अपितु वह साक्षी, अनुमतिदाता तथा परम भोक्ता के रूप में स्थित रहता है.
उसका नाम परमात्मा है, आत्मा नहीं. वह दिव्य है. आत्मा तथा परमात्मा भिन्न-भिन्न हैं. परमात्मा के हाथ-पैर सर्वत्र रहते हैं, लेकिन जीवात्मा के साथ ऐसा नहीं होता है. चूंकि परमात्मा परमेश्वर है, अतएव वह अंदर से जीव की भौतिक भोग की आकांक्षा पूर्ति की अनुमति देता है. परमात्मा की अनुमति के बिना जीवात्मा कुछ भी नहीं कर सकता. जीव भुक्त है और भगवान भोक्ता या पालक है. जीव अनंत हैं और भगवान उन सबमें भिन्न रूप में निवास करता है. प्रत्येक जीवन परमेश्वर का नित्य अंश है.
लेकिन जीव में परमेश्वर के आदेश को अस्वीकार करने की प्रकृति पर प्रभुत्व जताने के उद्देश्य से स्वतंत्रतापूर्वक कर्म करने की प्रवृत्ति पायी जाती है. चूंकि उसमें यह प्रवृत्ति होती है, अतएव वह परमेश्वर की तटस्थ शक्ति कहलाता है. जीव या तो भौतिक शक्ति में या आध्यात्मिक शक्ति में स्थित हो सकता है. जब तक वह भौतिक शक्ति द्वारा बद्ध रहता है, तब तक परेमर मित्र रूप में परमात्मा की तरह उसके भीतर रहते हैं. भगवान उसे आध्यात्मिक शक्ति में वापस ले जाने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं.
लेकिन अपनी अल्प-स्वतंत्रता के कारण जीव निरंतर आध्यात्मिक प्रकाश की संगति को ठुकराता है. स्वतंत्रता का यह दुरुपयोग ही बद्ध प्रकृति में उसके भौतिक संघर्ष का कारण है. अतएव, भगवान निरंतर बाहर तथा भीतर से आदेश देते रहते हैं. वे जीव को यह विश्वास दिलाते हैं कि भौतिक क्षेत्र में उसके कार्यकलाप वास्तविक सुख के अनुकूल नहीं हैं.
-स्वामी प्रभुपाद