आदर्श बहुत से हैं. मुझे कोई अधिकार नहीं कि मैं आपको बताऊं कि आपका आदर्श क्या होना चाहिए, या कि आपके गले जबरदस्ती कोई आदर्श मढ़ दूं. मेरा तो यह कर्तव्य होगा कि आपके सम्मुख मैं इन विभिन्न आदर्शों को रख दूं, और आपको अपनी प्रकृति के अनुसार जो आदर्श सबसे अधिक अनुकूल जंचे, उसे ही आप ग्रहण करें और उसी ओर अनवरत प्रयत्न करें.
वही आपका ‘इष्ट’ है, वही आपका विशेष आदर्श है. प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपना अादर्श लेकर उसे चरितार्थ करने का प्रयत्न करे. दूसरों के ऐसे आदर्शों को लेकर चलने की अपेक्षा- जिनको वह पूरा ही नहीं कर सकता- अपने ही आदर्श का अनुसरण करना सफलता का अधिक निश्चित मार्ग है. उदाहरणार्थ, यदि हम एक छोटे बच्चे से एकदम बीस मील चलने को कह दें, तो या तो वह बेचारा मर जायेगा या यदि हजार में से एकाध रेंगता-रांगता कहीं पहुंचा भी तो वह अधमरा हो जायेगा. किसी समाज के सब स्त्री-पुरुष न एक मन के होते हैं, न एक ही योग्यता के और न एक ही शक्ति के. हर एक में अनेकों असमानताएं होती हैं. अतएव, उनमें से एक का भी उपहास करने का हमें कोई अधिकार नहीं है.
अपने आदर्श को प्राप्त करने के लिए प्रत्येक को, जितना हो सके, यत्न करने दो. फिर यह भी ठीक नहीं कि मैं तुम्हारे अथवा तुम मेरे आदर्श द्वारा जांचें जाओ. सेब के पेड़ की तुलना ओक से नहीं होनी चाहिए और न ओक की सेब से. सेब के पेड़ का विचार करने के लिए सेब का मापक ही लेना होगा और ओक के लिए उसका अपना मापक! दूसरों की आलोचना करने में हम सदा यह मूर्खता करते रहते हैं कि किसी एक विशेष गुण को हम अपने जीवन का सर्वस्व समझ लेते हैं और उसी को मापदंड मान कर दूसरों में उनके दोषों को खोजने लगते हैं. इस प्रकार दूसरों को पहचानने में हम कई तरह की भूलें कर बैठते हैं.
इसलिए हमें अपने आदर्श को कभी नहीं भूलना चाहिए. आदर्श पुरुष तो वे ही हैं, जो परम शांति एवं निस्तब्धता के बीच भी, तीव्र कर्म का तथा प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल की शांति एवं निस्तब्धता का अनुभव करते हैं.
स्वामी विवेकानंद