कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र है, किंतु फल प्राप्त करने में वह सृष्टि के नियमों के बंधनों में बंधा हुआ है. अन्य जीवधारी इस तथ्य को अपनी स्वाभाविक प्रेरणा से समझते हुए तदनुरूप आचरण करते रहते हैं, पर मनुष्य है जो तुरत-फुरत परिणाम मिलने में विलंब होने के कारण प्राय: चूक करता रहता है.
अदूरदर्शिता अपनाता है और यह भूल जाता है कि विवेकशीलता की उपेक्षा करने पर अगले ही दिनों किन दुष्परिणामों को भुगतने के लिए बाध्य होना पड़ेगा. यह वह भूल है, जिसके कारण मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक गलतियां करता है. फलत: उलझनों, समस्याओं, विपत्तियों का सामना भी उसे ही अधिक करना पड़ता है.
कोई समय था, जब मनुष्य अपनी गरिमा का अनुभव करता था एवं सृष्टा का युवराज होने के नाते, अपने चिंतन और कर्तृत्त्व को ऐसा बनाये रहता था कि सुव्यवस्था बने और किसी को किसी प्रकार की प्रतिकूल स्थितियों का सामना न करना पड़े. इस संसार में इतने साधन मौजूद हैं कि यदि उनका मिल-बांट कर उपयोग किया जाये, तो किसी को किसी प्रकार के संकटों का सामना न करना पड़े. प्राचीनकाल में इसी प्रकार की शुद्धि को अपनाया जाता रहा है.
कोई कदम उठाने से पहले यह सोच लिया जाता था, कि उसकी आज या कल-परसों क्या परिणति हो सकती है? औचित्य को अपनाये भर रहने से वह सुयोग बना रह सकता है, जिसे पिछले दिनों सतयुग के नाम से जाना जाता था. सन्मार्ग का राजपथ छोड़ कर उतावले लोग लंबी छलांग लगाते और कंटीली झाड़ियों में भटकते हैं.
स्वार्थ आपस में टकराते हैं और अनेकानेक समस्याएं पैदा होती हैं. मनुष्य-मनुष्य के बीच दीख पड़नेवाले दुर्व्यवहारों की परिणति इन दिनों हर क्षेत्र में समाप्त होती चली जाती है. टूटे हुए मनोबल का व्यक्ति किस प्रकार कोई उच्चस्तरीय साहस कर सकेगा?
प्रगति के नाम पर सुविधा-साधनों की अभिवृद्धि होते हुए भी चिंतन, चरित्र और व्यवहार में निकृष्टता भर जाने के कारण जो हो रहा है, वह ऐसा है जिसे निर्धनों, अशिक्षितों और पिछड़े स्तर के समझे जानेवालों की तुलना में भी अधिक हेय समझा जा सकता है. इसे प्रगति कहा जाता भले ही हो, पर वस्तुत: है
अवगति ही.
– पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य