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पितृश्राद्ध: ऋषियों की तपस्थली है गयाधाम

आचार्य लाल भूषण मिश्र ‘याज्ञिक’ अष्टमी तिथि यानी मंगलवार का श्राद्ध सोलह वेदी तीर्थ की अंतिम पांच वेदियों पर संपन्न होगा. इनमें चार वेदियां, मतंगपद, क्रौंचपद, अगस्त्य पद व कश्यप पद ऋषियों के पद (चरण) हैं. वहीं इंद्र पद देवता का पद है. ऋषियों के पद पर श्राद्ध से पितरों को इंद्रलोक की प्राप्ति होती […]

आचार्य लाल भूषण मिश्र ‘याज्ञिक’

अष्टमी तिथि यानी मंगलवार का श्राद्ध सोलह वेदी तीर्थ की अंतिम पांच वेदियों पर संपन्न होगा. इनमें चार वेदियां, मतंगपद, क्रौंचपद, अगस्त्य पद व कश्यप पद ऋषियों के पद (चरण) हैं. वहीं इंद्र पद देवता का पद है. ऋषियों के पद पर श्राद्ध से पितरों को इंद्रलोक की प्राप्ति होती है व इंद्र पद पर श्राद्ध से पितरों को इंद्रलोक की प्राप्ति होती है. श्राद्ध विधान के अनुसार, सोलह वेदी के उत्तर भाग में स्थित गज कर्णिका वेदी पर तर्पण से पितरों की मुक्ति होती है.

अपनी माता शांता की उपस्थिति में भारद्वाज ऋषि ने पिता का श्राद्ध उपयुक्त कश्यप पद पर किया था. पिंड को ग्रहण करने के लिए क्षेत्राधिकारी पिता का सांवला हाथ व पिता का सफेद हाथ प्रकट हुआ. माता शांता द्वारा दोनों हाथों पर पिंड देने का संकेत पाकर भी भारद्वाज ऋषि ने कश्यप पद वेदी पर ही पिंड अर्पण किया. इससे पिता को ब्रह्मलोक की प्राप्ति हुई. गयाधाम में अनेक ऋषियों का अागमन हुआ है. मरीचि ऋषि ने गया जी में आकर तपस्या द्वारा विष्णु भगवान से वरदान प्राप्त किया था कि गया पितरों को मुक्ति देने वाली नगरी हो. गया के गोदावरी सरोवर के उत्तर में स्थित गिद्धकूट पर्वत पर ऋषियों ने गिद्ध का रूप धारण कर तपस्या की थी. गिद्ध रूप धारी ऋषि के नाम पर इस पर्वत का नाम गिद्धकूट है.

महिमामय है श्री धेनु तीर्थ

डॉ राकेश कुमार सिन्हा ‘रवि’
चप्पे, चप्पे पर तीर्थ, पुरातन स्मारक व धरोहरों से समृद्ध गया में धेनु तीर्थ पुलिस लाइन व केंद्रीय कारागार के पीछे पर्वत पर है, जहां कामधेनु, पुष्पकरणी, सिंगरा तीर्थ हैं. यहां युग पिता ब्रह्मा ने गोलोक के पंच गौ- सुनंदा, सुमना, सुशीला, सुरभि व कपिला को आह्वान कर गयासुर के जमाने के समय हुए यज्ञ में गया तीर्थ में अवतरित किया था. वहीं धेनु तीर्थ है, यह पुरातन अवशेष आज बढ़ती आबादी के कारण लुप्त होता जा रहा है. 1980 के दशक तक इस क्षेत्र में प्राचीन दीवार विद्यमान रही, जहां अब सरकारी र्क्वाटर बना दिये गये हैं. यहां के पिंडदान की चर्चा वृहद गया माहात्म्य में भी है. इसी क्षेत्र में 1560 में सिंगरा मठ बना था. पर्वत के दक्षिण में गया का गोबच्छवा कुंड है. इसकी स्थिति आज अच्छी नहीं है.

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