श्री श्री आनंदमूर्ति, आध्यात्मिक गुरु
(आनंद मार्ग के प्रवर्तक)
इस जगत की हर वस्तु के साथ भय मिश्रित रहता है. जिनके पास बहुत अधिक धन है, उनका व्यवसाय बहुत अच्छा चल रहा है, मगर उनके व्यवसाय में क्षति की आशंका भी रहती है. जो बहुत अच्छा स्पोर्ट्समैन या चैंपियन है, उसे भी हर समय डर रहता है कि चैंपियनशिप छिन न जाये. इसी कारण बड़े-बड़े चैंपियन अपने बेहतर प्रदर्शन काल के दौरान ही कर्मक्षेत्र से अवकाश ग्रहण कर लेते हैं, जिससे लोगों को कह सकें कि अब तो मैं खेलकूद में भाग नहीं लेता, यदि भाग लेता, तो चैंपियनशिप बनाये रखता. हर एक काम में डर छिपा रहता है. इस धरती पर कोई भी ऐसी वस्तु नहीं, जहां डर न हो. शास्त्र में कहा गया है कि केवल एक ही वस्तु है, जिसमें डर समाया नहीं रहता है- वह है वैराग्य. केवल इसमें ही भय नहीं है.
वैराग्य की अवस्था में मनुष्य कब प्रतिष्ठित होता है? इस प्रश्न का समाधान है- जब मनुष्य यह समझने लगता है कि जिस वस्तु का रंग किसी के मन पर लगता है या लग सकता है, उसका हमारे मन पर प्रभाव नहीं पड़ सकता, उसमें से कोई भी वस्तु स्थायी नहीं है, आज है, कल चली जायेगी. इस कारण मन पर किसी भी वस्तु के रंग को लगने ही नहीं देना चाहिए. जो चरम सत्य रूपी बंधु है, मात्र उन्हीं को लेकर रहना होगा, क्योंकि मन तो किसी न किसी विषय को लेकर ही रहेगा. यह विषयरहित नहीं हो सकता, विषय का वर्जन कर मन रह ही नहीं सकता. जो सत्कर्म नहीं करता, वह असत्कर्म करता है. यही नियम है. इस कारण जिसे विषय का रंग नहीं लग रहा है, उस विषय को लेकर ही रहना पड़ेगा. यह अविषय ही परमपुरुष हैं, जो पहले भी थे, आज भी हैं और सदा रहेंगे. वह हैं ‘सत्’. इस सत् का जो बाहरी प्रकाश है, उसे ही ‘सत्य’ कहा जाता है.
इसलिए कहा जाता है कि ‘सत्य नास्ति भयं कश्चित्,’ अर्थात जिसने सत्य का आश्रय लिया है, जिसने परमपुरुष का आश्रय लिया है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं है. इस आनंदस्वरूप ब्रह्म को जिन्होंने जान लिया है, वे और किसी वस्तु से भयभीत नहीं होते. डरने का कोई कारण ही नहीं है, क्योंकि परमपुरुष समस्त प्रकार की साहसिकता और तेजस्विता के सर्वश्रेष्ठ शिखर पर आसीन हैं. उन्हीं परमपुरुष का जिसने आश्रय लिया है, उसमें साहसिकता और तेजस्विता होगी ही. जिसमें साहसिकता और तेजस्विता है, उसमें डर किस प्रकार रह पायेगा? सत्य तो एकदम निर्भय है. ‘सत्यमेव जयते नानृतं’- जब सत्य के साथ असत्य का संग्राम शुरू होता है, तब सत्य की जय अवश्यंभावी है. इस कारण जो असत्य है, जो आज है, पर कल नहीं रहेगा. ‘यः आगच्छति सः गच्छति’ किंतु सत्य था, है, और रहेगा. इस कारण जय उसी की होती है, जो सत्याश्रयी होता है, क्योंकि असत्य चलायमान है. इस कारण चलने के पथ पर कभी उसकी जय हो भी जाये, तो वह सामयिक होती और सामयिक होने से वह चली जाती है. इसलिए स्थायी जय उसकी नहीं होती, परंतु सत्य तो स्थायी है, इस कारण उसकी जय स्थायी ही होगी. स्थायी जय को संस्कृत में ‘विजय’ कहा जाता है और अस्थायी जय को ‘जय’ कहते हैं.
एक कहानी है. एक बार बादशाह अकबर ने बीरबल से कहा- कोई ऐसी बात बताओ, जिसे सुनकर सुखी मनुष्य का मन दुखी हो जाये और दुखी का मन आनंद से भर उठे. बीरबल ने कहा – ऐसा दिन नहीं रहेगा. इस जगत में हर वस्तु के संबंध में ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह आया है, अनंत काल तक के लिए और अनंत काल तक ही साथ रह जायेगा. इसी कारण इसे आप्तकाम ऋषि कहा जाता है अर्थात जिसकी इच्छा आप्त के माध्यम से पूर्ण हुई है. ईश्वर से मिली वस्तु से जिनका मन भर गया है, वही हैं ‘आप्तकाम’.
सत्य का असली घर क्या है? यह है सत्यस्वरूप परम ब्रह्म-परमपुरुष. इसके अलावा सत्य का आश्रय लिये बिना अग्रगति का और कोई भी उपाय नहीं है.
धर्म क्या है? ‘ध्रियते धर्म: स एव परमप्रभु:’ अर्थात जो तुम्हें धारण कर रहा है, जो तुम्हारे जीवन का आधार है. हर वस्तु अपनी विशेषता से पहचानी जाती है. तुम्हारी जो विशेषता है, वही तुम्हारा धर्म है. जो तुम्हारा आधार है, वही तुम्हारा धर्म है. इसलिए धर्म का जो निर्देश है, वह मानना ही पड़ेगा. वहां प्रश्न नहीं.
पलायनी वृत्ति नहीं है वैराग्य
वैराग्य है क्या? वैराग्य का अर्थ है उस वस्तु के रंग में अपने मन को रंगने न देना. जगत में जो भी वस्तुएं हैं, मनुष्य कभी जानबूझ कर और कभी अनजाने में उनकी ओर आकृष्ट होता है. हर चीज पर रंगों का प्रभाव रहता है. जब मनुष्य मन को इतना मजबूत बना लेता है कि किसी रंग के द्वारा प्रभावित नहीं होता, तब उस अवस्था को वैराग्य कहते हैं. वैराग्य का अर्थ सब कुछ छोड़छाड़ कर भागना नहीं है. ‘वैराग्य’ का अर्थ पलायनी वृत्ति नहीं है, बल्कि दूसरे के द्वारा प्रभावित न होना है. संसार को असार जानना, देह को मिट्टी समझना- वैराग्य है. उसके लिए यह जरूरी नहीं है कि तुम शहर या गांव में रहो या हिमालय की किसी गुफा में रहो. अगर तुम्हें यह बात समझ आ गयी कि तुम्हारा यह देह मिट्टी है और जिस संसार को तुम देख रहे हो, यह सदा नहीं रहेगा, इस बात का निश्चय हो जाये, यही वैराग्य है. ठीक उसी प्रकार, कीचड़ में पैदा होनेवाली मछली कीचड़ में रहती है, परंतु फिर भी उसके शरीर पर कीचड़ नहीं लगता. ऐसी अवस्था को ही कहते हैं वैराग्य.
प्रस्तुति : दिव्यचेतनानंद अवधूत
सुवचन
भगवान से प्रार्थना करो– हे प्रभु, अपने करुणापूर्ण मुख से मेरी रक्षा करो. मुझे असत् से सत् की ओर, तम से ज्योति की ओर, मृत्यु से अमृतत्व की ओर ले चलो.
– रामकृष्ण परमहंस
जिस तरह एक प्रज्वलित दीपक को चमकने के लिए दूसरे दीपक की जरूरत नहीं होती, उसी तरह आत्मा, जो खुद ज्ञान स्वरूप है, उसे खुद के ज्ञान के लिए और किसी ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती.
– आदि शंकराचार्य
प्रसन्नता सद्भाव की एक छाया है. वह सद्भाव का ही पीछा करती है. सदा प्रसन्न रहने का इससे सरल कोई और तरीका नहीं है.
– ओशो रजनीश