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‘सपने सच होते हैं’- 3 : पत्रकारों में होती है खबर खोजने की अद्‌भुत क्षमता

पत्रकारों में खबर को सूंघने की अद्‌भुत क्षमता होती है, इसी क्षमता की बदौलत वे खबरों को जल्द से जल्द सामने लेकर आते हैं. ‘सपने सच होते हैं’ किताब के तीसरे भाग में डॉ संतोष तिवारी ने पत्रकारों की इसी खूबी का बखान किया है. लेखक लंबे समय तक देश के प्रतिष्ठित हिंदी अखबारों में […]

पत्रकारों में खबर को सूंघने की अद्‌भुत क्षमता होती है, इसी क्षमता की बदौलत वे खबरों को जल्द से जल्द सामने लेकर आते हैं. ‘सपने सच होते हैं’ किताब के तीसरे भाग में डॉ संतोष तिवारी ने पत्रकारों की इसी खूबी का बखान किया है. लेखक लंबे समय तक देश के प्रतिष्ठित हिंदी अखबारों में पत्रकार रहे. आज पढ़ें किताब की अगली कड़ी:-

संपर्क : 09415948382 ईमेल – santoshtewari2@gmail.com

पत्रकारों में होती है खबर खोजने की अद्‌भुत क्षमता

जिस तरह से कुत्ते में सूंघने की शक्ति बहुत तेज होती है. उसी प्रकार पत्रकारों में खबर खोजने की शक्ति भी बहुत तेज होती है. शायद इसलिए पत्रकारों को अंग्रेजी में ‘वाचडाग’ कहते हैं. मैंने जीवन का बहुत लंबा समय पत्रकारिता के क्षेत्र में गुजारा है. बात वर्ष 1989 की है. मैं उन दिनों नवभारत टाइम्स, लखनऊ, में काम करता था. वह इंटरनेट और मोबाइल युग के पहले का जमाना था. बीएसएनएल. का लैंडलाइन फोन लगवाने के लिए एक लंबी प्रतीक्षा सूची हुआ करती थी. आवेदन पत्र देने के दो-तीन साल बाद फोन कनेक्शन मिल पाता था.

वर्ष 1989 में मुझे ब्रिटेन के कार्डिफ विश्वविद्यालय में पत्रकारिता में पूर्णकालिक पीएचडी. करने के लिए एक ब्रिटिश स्कॉलरशिप मिली थी. स्कॉलरशिप तीन वर्ष के लिए थी. इसमें वहां की ट्यूशन फीस और रहने का खर्चा आदि सब कुछ शामिल था. परंतु वे लोग भारत से ब्रिटेन आने-जाने का हवाई यात्रा किराया नहीं दे रहे थे.
मैंने स्कॉलरशिप मिलने की बात नवभारत टाइम्स दफ्तर में या बाहर के अन्य साथियों में से किसी को भी नहीं बताई थी. यह सोचा कि जब तक हवाई किराये की व्यवस्था न हो जाये, तब तक किसी को न बताया जाये. क्योंकि मान लो कि किराये की व्यवस्था न हो पायी, तो मैं ब्रिटेन नहीं जा पाऊंगा और तब ये सब लोग मेरी खिल्ली उड़ायेंगे.
मैंने स्कॉलरशिप मिलने की बात अपने घर पर भी नहीं बतायी थी, क्योंकि मैं हवाई किराए का वजन अपने बुजुर्ग पिताजी के कंधों पर डालना नहीं चाहता था. मैं स्वयं अपनी कमाई से बचाए हुए पैसे लगाकर ब्रिटेन जा सकता था. परंतु कंजूस स्वभाव होने के कारण ये हिम्मत नहीं जुटा पाता था. इस बीच एक दिन सुबह करीब ग्यारह बजे मैं नवभारत टाइम्स अखबार के दफ्तर में बैठा था. तभी हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स आफ इंडिया का एक कम उम्र वाला नया-नया रिपोर्टर मेरे पास आया और धीरे से बोला, ‘भाई साहब मुबारक हो. आप इग्लैंड कब जा रहे हैं?’
मैं एकदम सन्नाटे में आ गया. वास्तव में मैं अचरज में पड़ गया कि इतनी टॉप सीक्रेट खबर इसको कैसे लीक हो गई? इसको कैसे पता चल गई? मैंने शरद गुप्ता को कोई जवाब नहीं दिया, जैसे कि मैंने उसकी कोई बात सुनी ही न हो और मैं सिर झुकाकर अपना कुछ लिखने का काम करने लगा.परंतु उसने मुझसे फिर पूछा, ‘भाई साहब, आप इंग्लैंड कब जा रहे हैं?’
मैंने उसको घूर कर देखा और पूछा, ‘ये टॉप सीक्रेट खबर तुमको कैसे पता चली?’ वह हंसने लगा और उसने कुछ भी बताने से इनकार कर दिया. परंतु मेरे बहुत जिद करने पर वह बोला, ‘आज सबेरे आप टाइम्स आफ इंडिया के दफ्तर में आये थे. और आपने ब्रिटिश काउंसिल के नाम एक पत्र मैनुअल टाइपराइटर पर टाइप किया था जिसमें आपने मांग की थी कि आपको ब्रिटेन जाने का किराया दिया जाये.’
इसके बाद उसने कुछ बताने से इनकार कर दिया.
मैंने उससे कहा, ‘हां, मैंने टाइप किया था. पर तुम्हें ये खबर कैसे लगी?’ इस पर वह फिर हंसने लगा. मेरे बहुत जिद करने पर उसने बताया, ‘आप जिस टाइप राइटर पर बैठे थे. उस पर आपने एक नये कार्बन का इस्तेमाल भी किया था. और टाइप करने के बाद उस कार्बन को कूड़ेदान में फेंक दिया था. चूंकि उस समय तक आफिस में सफाई हो चुकी थी. तो उस कूड़ेदान में सिर्फ आपका फेंका हुआ नया कार्बन ही था.’
शरद गुप्ता नेआगे कहा, ‘जब मैं आफिस में आया तो मुझे एक कार्बन की जरूरत थी. जो कि मुझे नहीं मिल रहा था. अचानक मेरी निगाह कूड़ेदान पर पड़ी, जहां एक नया कार्बन पड़ा हुआ था जो कि सिर्फ एक ही बार इस्तेमाल हुआ था. मैंने उस कार्बन को उठाया और उस चिट्ठी को पढ़ लिया, जो कि आपने ब्रिटिश काउंसिल को लिखी थी.’

किताब ‘सपने सच होते हैं’ की दूसरी कड़ी

सपने सच होते हैं-1

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