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किताब ‘सपने सच होते हैं’ की दूसरी कड़ी

‘सपने सच होते हैं’ इस किताब के लेखक हैं डॉ संतोष तिवारी. उन्होंने किताब के बारे में बताया है कि मैंने यह किताब अपनी सच्ची जिंदगी के कुछ लम्हों को उन युवा साथियों के साथ साझा करने के लिए लिखी है, जिन्होंने कुछ ऊंचाइयां छूने के सपने देखे हैं. अगर वे ठान लें तो प्रतिकूल […]

‘सपने सच होते हैं’ इस किताब के लेखक हैं डॉ संतोष तिवारी. उन्होंने किताब के बारे में बताया है कि मैंने यह किताब अपनी सच्ची जिंदगी के कुछ लम्हों को उन युवा साथियों के साथ साझा करने के लिए लिखी है, जिन्होंने कुछ ऊंचाइयां छूने के सपने देखे हैं. अगर वे ठान लें तो प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कामयाबी उनकी मुट्ठी से दूर नहीं रह सकती. लेखक लंबे समय तक देश के प्रतिष्ठित हिंदी अखबारों में पत्रकार रहे. पुस्तक के दूसरे भाग में उन्होंने शीर्षस्थ पत्रकारों के साथ बिताये पलों की जानकारी दी हैं:-
डॉ. संतोष कुमार तिवारी संपर्क : 09415948382 ईमेल – santoshtewari2@gmail.com

सपने सच होते हैं की पहली कड़ी यहां पढ़ें

इस लेख में अमृत लाल नागर, नरेंद्र मोहन, तुषारकांति घोष, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायायन अज्ञेय, अशोक जैन, एम. वी. कामथ जैसे कुछ शीर्ष पत्रकारों, लेखकों और अखबार मालिकों से हुए मेरे निजी अनुभव हैं. यहां उन लोगों का जिक्र जानबूझ कर नहीं किया गया है जो अभी जीवित हैं. अन्यथा ये लेख उनकी चापलूसी समझा जायेगा. कहीं-कहीं इस लेख में जिक्र किए गए पत्रकारों और लेखकों के गुरूओं की भी चर्चा की गई है. इससे उनके व्यक्तित्व को ज्यादा आसानी से समझा जा सकता है. इस सब को लिखने के पीछे कारण यह है कि आज की पीढ़ी भी गुजरे जमाने के इन शीर्षस्थ व्यक्तियों के बारे में जान सके.

अमृत लाल नागर (1916 – 1990) : कलम के मजदूर और उनके गुरु रूप नारायण पाण्डेय (1883 – 1958) : आत्म प्रचार से कोसों दूर. अमृत लाल नागरजी मेरे पितातुल्य थे. उन्होंने तमाम उपन्यास, कहानियां, फिल्म सिक्रप्ट, रेडियो ड्रामा, आदि लिखे. लेखन से जो थोड़ा बहुत पैसा मिलता था, उससे उनका घर चलता था. अपने अंतिम दिनों में एक बार उन्ंहोने कहा था कि मैं अब किसी ऐसे समारोह में नहीं जाता हूं, जहां कोई मंत्री या राजनेता आ रहा हो. वह कहने लगे कि मेरे जीवन का यह संध्या काल है. मुझे बहुत सी रचनाएं पूरी करनी है. मैं अपना समय बर्बाद नहीं कर सकता. नागरजी एक पुरानी हवेलीनुमा मकान में रहते थे. उस मकान की हालत जर्जर थी. और वह लखनऊ के चौक मुहल्ले की एक गली में था. उनके पास पैसा कम था. परंतु वह लोकप्रिय बहुत थे. अगर कोई चिट्ठी में इतना ही पता लिख दे – अमृत लाल नागर, लखनऊ, तो भी डाक से चिट्ठी उन्हीं के यहां पहुंच जाती थी. नागरजी को मैं दादाजी कहता था. मैंने एक बार उनसे पूछा था कि दादा जी, आपका भी कोई गुरू रहा है? नागरजी ने तपाक से जवाब दिया कि पं. रूप नारायण पांडेय मेरे साहित्यक गुरू थे.
नागरजी बताने लगे कि मैं ही नहीं जय शंकर प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, आदि सभी पाण्डेयजी का गुरू की तरह सम्मान करते थे. मुंशी प्रेमचंद जब भी मुझे कोई पत्र लिखते, तो पांडेयजी के हालचाल पूछना नहीं भूलते थे. सन् 1936 में जब जयशंकर प्रसाद लखनऊ आए थे एक नुमाइश देखने, तो वह पूरे एक समूह में पांडेयजी के घर मिलने गये थे. उस जुलूस में मैं भी शामिल हो लिया था. नागरजी कुछ इस प्रकार बता रहे थे जैसे कि वह पांडेयजी से अभी कल ही मिले हों. हालांकि पांडेयजी की मृत्यु 1958 में पचहतर वर्ष की आयु में हुई थी .मैंने पूछा कि दादाजी ये रूप नारायण पांडेय कौन थे? मैं तो इनके बारे में कुछ जानता नहीं हूं .
इस पर उन्होंने फौरन अपनी डेस्क खोलकर उसमें से तीन-चार फोटो रूप नारायण पांडेयजी के मुझे दिखाए. सभी फोटो ब्लैक एण्ड व्हाइट थे.नागरजी बताने लगे कि पांडेय जी ने अतीत की गौरवशाली पत्रिका माधुरी का संपादन बीस वर्ष से ज्यादा समय तक किया था . वह साहित्यिक पत्रिका सुधा के भी संपादक रहे थे . हिन्दी के शैशव काल में हिन्दी को आगे बढ़ाने में इन पत्रिकाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है . इन पत्रिकाओं में जयशंकर प्रसाद और मुंशी प्रेमचंद, आदि लिखा करते थे. नागरजी ने कहा – पाण्डेयजी ने पद्य और गद्य दोनों में मौलिक लेखन तो किया ही था . साथ में बालोपयोगी लेखन भी किया . उन्होने बच्चों के लिए बाल भागवत, बाल महाभारत, बाल रामायण आदि लिखी . साथ ही साथ सात संस्कृत ग्रंथों, 17 बंगला नाटकों और 31 बंगला उपन्यासों व कहानी संग्रहों का हिन्दी में अनुवाद भी किया .
मैंने पूछा कि दादाजी, आप पाण्डेयजी को अपना गुरू मानते हैं, तो यह बताइए कि उनकी किन बातों ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया .मेहनत, शालीन व्यक्तित्व, गहरी अध्ययनशीलता और नयी पीढ़ी के प्रति उदार दृष्टिकोण. वह सदा नए- नए लेखकों को प्रोत्साहित करते रहे. माधुरी में उन्होंने निराला जी को मुखपृष्ठ पर छापा था. हम लोग भी उनकी कृपा से ही आगे बढ़े हैं. नागरजी ने कहा – पाण्डेयजी आत्म प्रचार से इतना दूर भागते थे कि कवि सम्मेलनों या सभाऒं में सभापतित्व का आमंत्रण आने पर वह अक्सर अपने घर से खिसक जाया करते थे.
नागरजी ने पाण्डेयजी की आत्म प्रचार से भागने की प्रवृत्ति के बारे में एक रोचक किस्सा सुनाया कि जब पाण्डेयजी साठ के हो गए, तो मैंने उनका सार्वजनिक तौर पर सम्मान करना चाहा. उनका सम्मान करने की मेरी प्रबल इच्छा थी. पर पाण्डेय जी ऐसे थे कि कभी इस बारे में बात आगे बढ़ने ही नहीं देते थे. जब वह 66 वर्ष के हो गए तब कहीं हम उनका अभिनन्दन कर पाए. लखनऊ म्युनिस्पिल बोर्ड के कमेटी रूम में समारोह हुआ. पर बहुत सजग रहना पड़ा . समारोह से पहले दो लोगों की डयूटी लगाई गई कि वे पाण्डेयजी पर निगाह रखें, ताकि ऐसा ना हो कि पाण्डेयजी समारोह में आने से बचने के लिए कहीं और निकल जाएं.
नागरजी का मत था कि अगर पाण्डेयजी सम्पादन और अनुवाद का कार्य न करते, तो कविरूप में बहुत सफल होते. तेरह वर्ष की आयु में ही उनके कंधों पर गृहस्थी चलाने का भार आ पड़ा था. इस कर्तव्य को निभाने के लिए उन्होंने लेखनी का सहारा लिया और आजीवन लिखते रहे.
नागरजी ने बताया कि पाण्डेयजी ने अनुवाद का बहुत काम किया. संस्कृत से भी और बंगला से भी. उनके अनुवाद उत्कृष्ट स्तर के थे. उन्होंने टैगोर के उपन्यास चोखेर बाली का शब्दांश अनुवाद किया था – आंख की किरकिरी में .टैगोर ने भी उनके अनुवाद की प्रशंसा की थी. महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने श्रीमदभागवत के उनके अनुवाद को बहुत सराहा था. पाण्डेयजी वास्तव में कलम के मजदूर थे. अमृत लाल नागरजी के साथ मेरा जो समय गुजरा, तो मैंने देखा कि अपने गुरू पाण्डेयजी की तरह वह भी कलम के मजदूर थे.
नरेन्द्र मोहन (1934 – 2002) : दूरदृष्टि और तीक्ष्ण व्यापारी बु़द्धि
नरेन्द्र मोहनजी से मेरा रिश्ता लव एण्ड हेट का था. उनका अखबार दैनिक जागरण पहले कानपुर से ही निकलता था. वर्ष 1979 में वह लखनऊ से भी निकलना शुरू हुआ. जब मुझे पता चला कि यह अखबार लखनऊ से निकलने वाला है, तो मैं नरेन्द्र मोहनजी से मिलने कानपुर गया. मैंने उनसे सिर्फ एक ही बात कही कि मेरे पास सिफारिशी पत्र नहीं है. आप मेरा लिखित टेस्ट लें या इंटरव्यू लें या दोनो ही लें, परंतु लखनऊ में अपना स्टाफ भर्ती करते समय, मुझे भी मौका दें.नरेन्द्र मोहनजी ने मेरा लिखित टेस्ट लिया, फिर इंटरव्यू भी लिया और मुझे संपादकीय विभाग में नौकरी भी दी.
उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था. उनकी लंबाई करीब छह फीट से कुछ ज्यादा ही होगी. शक्ल से ही वह बहुत पैसे वाले लगते थे. परंतु वह सेल्फ मेड आदमी थे.जब लखनऊ संस्करण शुरू हुआ, तो उन्होंने लगभग एक हफ्ता एक ही टेबल के आर पार बैठकर मेरे साथ काम किया.मैं उनका सम्मान इसलिए करता था कि एक तो उन्होंने मुझे नौकरी दी और दूसरा यह कि उन्हें हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत का बहुत अच्छा ज्ञान था. साथ ही साथ उन्हें अखबार के सभी विभागों का भी अच्छा व्यावहारिक ज्ञान था. विज्ञापन, प्रेस, सर्कुलेशन, संपादकीय, आदि सभी विभागों पर उनकी मजबूत पकड़ थी.
वह वेतन बहुत कम देते थे. काम के घंटे भी बहुत ज्यादा थे. मैं शाम को कोई चार बजे आफिस जाता था और लौटते-लौटते सुबह के लगभग एक-दो तो बज ही जाते थे. कभी-कभी चार बजे घर लौटता था. नया अखबार था, इसलिए काम भी ज्यादा था. मैं जानता था कि मेरा शोषण हो रहा है, परंतु इस सबको लेकर मेरा कोई गिला-शिकवा न था.
मेरे आत्मसम्मान को तब बहुत धक्का लगता था, जब स्टाफ मीटिंग में उनको बहुत अच्छे कप में चाय दी जाती थी और बाकी लोगों को साधारण कपों में. उस जमाने में मेरा भी अहंकार ज्यादा था.नरेन्द्र मोहनजी जब स्टाफ मीटिंग करते थे तो सबसे पूछते थे कि आपकी क्या प्राब्लम है . लोग उन्हें अपनी-अपनी समस्याएं बताते भी थे. कभी-कभी समस्या बताने वाले खुद भी डांट खा जाया करते थे. जब मेरा नंबर आता था तो वह मुझसे पूछते थे – और पंडित जी, आपकी क्या प्राब्लम है? मैं कह देता था – कुछ नहीं.
अपने आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए जैसे ही मुझे लखनऊ के दूसरे अखबार अमृत प्रभात में नौकरी मिली, मैं दैनिक जागरण से खिसक लिया. नरेन्द्र मोहनजी ने मुझे जागरण में रोकना चाहा. पर मैंने उनकी एक न मानी. दैनिक जागरण में जो मेरा शोषण हुआ, वह वास्तव में जीवन में आगे बहुत काम आया. बाद में यह समझ में आया कि इसी शोषण के कारण मैं अखबार के तमाम पहलू इतनी जल्दी सीख गया, जिसे सीखने में और लोगों को पूरा जीवन लग जाता है. दैनिक जागरण ने मुझे कठिन परिस्थितियों में भी अखबार निकालना सिखाया और मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि उस जमाने का वह सबसे अच्छा ट्रेनिंग संस्थान था.
नरेन्द्र मोहनजी दैनिक जागरण के मालिक संपादक थे. अखबार में नफा नुकसान का वे बहुत ध्यान रखते थे. उन्हीं की दूरदृष्टि और तीक्ष्ण व्यापारी बु़द्धि का नतीजा था कि उनके जीवन काल में ही दैनिक जागरण एक छोटे से अखबार से उभरकर देश का सबसे ज्यादा प्रसारित होने वाला समाचार पत्र बन गया था, जो कि आठ अरब रुपये से ज्यादा का था. और उसके संस्करण देश के कई शहरों से निकलने लगे थे.
अखबारों में जब एफडीआई शुरू करने का मामला आया, तो नरेन्द्र मोहनजी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने फारेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट का समर्थन किया था, जबकि टाइम्स आफ इंडिया ने इसका विरोध किया था.
दैनिक जागरण छोड़ने के बाद भी नरेन्द्र मोहनजी से मैंने संपर्क बनाए रखा. मेरा यह सोचना था कि अगर कभी किसी अखबार में मुझे लात पड़ जाएगी, तो कम से कम नरेन्द्र मोहनजी तो मुझे नौकरी दे ही देंगे. अर्थात मैंने नरेन्द्र मोहन को स्कूटर या कार की स्टेफनी की तरह प्रयोग करना चाहा, हालांकि उस स्टेफनी की कभी जरूरत नहीं पड़ी.
एक बार दैनिक जागरण के लखनऊ संस्करण में मजदूर यूनियनें हावी हो गईं. तब नरेन्द्र मोहनजी ने मुझे वहां का स्थानीय संपादक बनाना चाहा. इस पर मैंने एक शर्त रख दी कि मेरे स्थानीय संपादक बनने से पूर्व जागरण के पुराने कर्मचारियों से उस संस्थान के जो मुकदमे चल रहे हैं, वे आउट आफ कोर्ट सेटल किए जाएं. अर्थात अदालत के बाहर उन्हें आपस में बैठकर उन्हें निपटा लिया जाए.
इस शर्त को रखने के बाद नरेन्द्र मोहनजी से मेरा संपर्क टूट गया.
तुषार कांति घोष (1898 – 1994) : सहृदयता का सागर
दैनिक जागरण छोड़ने के बाद मैंने अमृत बाजार पत्रिका समूह के हिंदी अखबार अमृत प्रभात में काम किया. तब उस समूह के मालिक संपादक तुषार कांति घोष से कई बार मिलने का मौका मिला. जब मैं उनसे पहली बार मिला, तब भी उनकी उम्र 80 साल से ऊपर थी. परंतु वह स्वस्थ और सक्रिय थे.
तुषार बाबू के पिताजी शिशिर कुमार घोष (1840-1911) ने अमृत बाजार पत्रिका अखबार का प्रकाशन जेसोर जिले के अमृत बाजार गांव से सन् 1868 में शुरू किया था. यह जिला अब बंगलादेश में है. इस अखबार ने आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के खिलाफ अग्रणी भूमिका निभाई थी. तुषार बाबू देश की आजादी के लिए जेल भी गए थे.
तुषार बाबू देश और विदेश के एक बड़े सम्मानित पत्रकार थे. उनका निधन अगस्त 1994 में लगभग 95 साल की आयु में हुआ. तब उनके निधन की खबर न्यूयार्क टाइम्स और इंग्लैंड के कुछ अखबारों ने भी छापी थी. तुषार बाबू अक्सर इलाहाबाद और लखनऊ आते थे. इन दोनों शहरों से उनका अंग्रेजी अखबार नार्दर्न इंडिया पत्रिका और हिन्दी दैनिक अमृत प्रभात प्रकाशित होते थे.वह बहुत ही उदार और सहृदय व्यक्ति थे. एक बार जब वह इलाहाबाद आए थे, तब उनके दफ्तर का एक मुस्लिम ड्राइवर उनसे मिलने आया. उसने तुषार बाबू के पैर छुए और कहा – मुझे नौकरी से निकाल दिया गया है.
क्यों निकाला गया?
क्योंकि मुझे पेट्रोल चोरी करते रंगे हाथ पकड़ा गया था.
– पेट्रोल क्यों चुराते थे?
क्योंकि मेरी तनख्वाह 900 रूपए है और मेरे पांच बच्चे हैं. इतनी कम पगार में घर की गाड़ी नहीं चल पाती थी.
इस पर तुषार बाबू ने उसकी तनख्वाह बढ़ाकर उसे फिर नौकरी पर वापस रख लिया.तुषार बाबू के पुत्र तरूण बाबू भी कुछ ऐसे ही मिजाज के थे. तरूण बाबू जब दफ्तर आते थे, तो तमाम लोग उनसे एक दूसरे की बुराई करने पहुंच जाते थे. परंतु वह इस सब पर ज्यादा ध्यान नहीं देते थे. वह सिर्फ इतना देख लेते थे कि अखबार घाटे में तो नहीं चल रहा है.
तरूण बाबू पश्चिम बंगाल में कांग्रेस सरकार में बहुत लंबे अरसे तक मंत्री रहे थे. मेरा उनका अनुभव तब का है, जब वे मंत्री नहीं थे. मैंने देखा कि वह छोटे से ब्रीफकेस में अपने तीन चार कुर्ते पायजामे लेकर सफर करते थे. उस ब्रीफकेस में कपड़े टांगने के लिए हैंगर भी रखे होते थे. वह जब दिल्ली आते थे, तो वह अपने दफ्तर के ही एक कमरे में रूक जाते थे. जबकि उनकी हैसियत दिल्ली के किसी भी बड़े से बड़े होटल में रूकने की थी. वह सिर्फ एक लक्जरी करते थे कि सफर में उनके साथ उनका रसोइया भी चलता था, क्योंकि वह बाहर का बना खाना नहीं खाते थे.
राजेन्द्र माथुर (1935 – 1991) : एक सहज निडर व्यक्तित्व;और उनके गुरू राहुल बारपुते : पैसा कम, इज्जत ज्यादा राजेन्द्र माथुर से मेरा संपर्क पहली बार तब हुआ, जब वह लखनऊ से नवभारत टाइम्स अखबार निकालना चाह रहे थे. उसमें उन्होंने पहले दिल्ली में इंटरव्यू लिया, और फिर कुछ दिन बाद लखनऊ में लिखित टेस्ट भी लिया. जब मेरा सलेक्शऩ उन्होंने कर लिया, तो मैंने उनसे पूछा कि हर चीज का एक तरीका होता है. भोजन में पहले रोटी खाई जाती है. फिर चावल खाया जाता है. इसी तरह नौकरी के लिए पहले लिखित टेस्ट होता है. फिर इंटरव्यू लिया जाता है. परंतु आपने यह उल्टी गंगा क्यों बहाई?
राजेन्द्र माथुर ने बताया कि पहले मैं यह समझ रहा था कि सब सीनियर पत्रकार हैं. इनका लिखित टेस्ट क्या लिया जाए? सिर्फ इंटरव्यू से ही काम चला लिया जाए. परंतु इंटरव्यू में सभी एक से बढ़कर एक स्मार्ट निकले. इसलिए बाद में लिखित टेस्ट लेना जरूरी हो गया. निडरता और सहजता माथुरजी के प्रधान गुण थे. एक बार प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनको अपने यहां डिनर के लिए बुलाया था तो माथुर जी ने यह कह दिया था कि वह उस दिन इंदौर जा रहे हैं, जहां एक संस्था का आमंत्रण वह पहले से ही स्वीकार कर चुके हैं.वास्तव में अगर प्रधानमंत्री डिनर या लंच पर बुलाए, तो दिल्ली के अधिकांश संपादक नाक रगड़ते हुए सारे काम छोड़कर भागे-भागे प्रधानमंत्री आवास पर पहुंच जाएंगे.
लेकिन राजीव गांधी ने भी माथुरजी की बात का बुरा नहीं माना. उन्होंने फिर माथुर जी को बुलाया और कहा कि मैं इस इस दिन राजस्थान के दौरे पर जा रहा हूं. आप भी मेरे साथ हवाई जहाज में चलें. पूरे दिन आपसे बात होगी.माथुरजी ने राजीव गांधी का यह निमंत्रण स्वीकार कर लिया था. माथुरजी की निडरता कुछ ऐसी थी जैसी कि मैंने दुनिया के मशहूर अखबार लंदन टाइम्स के संपादक साइमन जेंकिंस में देखी थी. साइमन जेंकिंस का मैंने इंटरव्यू किया था. मेरी उनसे कोई एक घंटे तक बातचीत हुई थी. उस दौरान उन्होंने मुझसे कहा था कि वह रूपर्ट मर्डोक के अखबार लंदन टाइम्स के संपादक बनने से अच्छा एक कालमिस्ट बनना पसंद करेंगे. उन्होंने कहा था कि रूपर्ट मर्डोक खबरों के इन्वेस्टीगेशन पर उतना पैसा खर्च नहीं करते, जितना उन्हें करना चाहिए. बाद में साइमन जेंकिंस ने लंदन टाइम्स छोड़ दिया था और एक कालमिस्ट बन गए. उनके कालम ब्रिटिश अखबारों के साथ साथ दुनिया के कई अखबारों में भी छपते हैं. जिनमें हिंदुस्तान का अखबार स्टेट्समैन भी शामिल है.
राजेंद्र माथुर के साथ मेरी कई बार एक-एक घंटे या दो-दो घंटे की भी बातचीत हुई. मैंने देखा कि बातचीत में वह कभी किसी की बुराई नहीं करते थे. परंतु एक बार वह एक अखबार मालिक के बारे में कहने लगे कि उनके पास इतना पैसा है कि वह इंपोर्टेड इत्र से नहाकर सुगंध बिखेर सकते हैं, परंतु उनकी इज्जत नहीं है.
माथुरजी ने आगे कहा कि पत्रकारिता में मेरे गुरू राहुल बारपुते जी के पास पैसा तो नहीं है, परंतु सार्वजनिक इज्जत के मामले में वह उस अखबार के मालिक संपादक से कई कई गुणा ज्यादा है.माथुरजी को पत्रकारिता में लाने में राहुल बारपुतेजी का बहुत बड़ा हाथ था. मशहूर व्यंग्यकार शरद जोशी माथुरजी को लेकर राहुल बारपुते जी के पास गए थे. बारपुतेजी इंदौर के नई दुनिया अखबार के संपादक थे. माथुरजी अंतरराष्ट्रीय मामलों पर उस अखबार में कालम लिखना चाहते थे.
बारपुतेजी ने उनसे कहा कि कुछ लिखकर ले आओ, तब बताएंगे. इस पर माथुर जी उनके पास अपने तीन चार लेख लिखकर ले गए. जिन्हें बारपुते जी ने पसंद किया. और यहीं से शुरू हो गया पत्रकारिता में माथुर जी का सफर.माथुरजी एक बार बता रहे थे कि अगर मैं किसी अन्य संपादक के पास यह कहने जाता कि मैं अंतरराष्ट्रीय मामलों पर कालम लिखना चाहता हूं, तो वह मुझसे दर्जनों किस्म के प्रश्न पूछता. जैसे कि तुमने तो अंग्रेजी में एम.ए. किया है. तुम हिंदी में कैसे लिख सकते हो. तुमने तो पालिटिकल साइंस, हिस्ट्री, इकनामिक्स पढ़ी नहीं. तुम्हारे कालम लिखने से अखबार का क्या फायदा होगा, आदि, आदि. वह मुझे एक नया लड़का समझकर भगा देते.
राहुल बारपुतेजी प्रेरणा के एक अद्भुत स्रोत थे. जिनके साथ सात-सात आठ-आठ घंटे बैठकर माथुर जी ने जीवन के बीस साल से ज्यादा समय गुजारा.माथुरजी हिंदी में ही नहीं अंग्रेजी में भी एक सिद्धहस्थ लेखक थे. हिंदी पत्रकारिता पर उनके तीन लेखों की श्रृंखला टाइम्स आफ इंडिया में प्रकाशित हुई थी. माथुर जी का विश्वास था कि हर हिंदी पत्रकार को अंग्रेजी का भी ज्ञान होना चाहिए.
एक बार मैंने टाइम्स आफ इंडिया के के. बालाकृष्णन से कहा था कि माथुर जी हिंदी में चोटी के पत्रकार हैं. इस पर उन्होंने जवाब दिया कि माथुर जी हिंदी में ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी में भी उनके सरीखा कोई नहीं है.अपने गुरू राहुल बारपुतेजी के बारे में माथुरजी ने अद्भुत बात बताई थी कि सन 1955 में जब वह पहली बार उनसे मिले, तब बारपुतेजी के पास एक रेडियो भी नहीं था. जबकि माथुरजी के पास फिलिप्स का एक रेडियो था. और सबसे मजे की बात यह थी कि बारपुतेजी को यह कमी महसूस भी नहीं होती थी कि उनके पास रेडियो नहीं है.
बाबा के नाम से मशहूर बारपुतेजी मस्त-मौला आदमी थे. वह भोगवादी सभ्यता के बहुत खिलाफ थे. उनका मानना था कि पत्रकारों को ज्यादा वेतन नहीं लेना चाहिए और समाज सेवा ही उनका ध्येय होना चाहिए.जब दिल्ली में दिल का दौरा पड़ने से राजेंद्र माथुर का निधन हुआ, तब बारपुतेजी उनकी तेरहवीं में दिल्ली आए थे. तब उन्होंने कहा था कि माथुर जी गुलाब के फूल की तरह थे, जो खिलते ही गए और खिलते ही गए और खिलते ही गए.
प्रभाष जोशी : ‘बारपुतेजी का असीम प्रेम मिला’;और उनके गुरू राहुल बारपुते : किसी पालिटिकल रैट रेस में नहीं जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी भी राहुल बारपुते को गुरू जैसा सम्मान देते थे. जोशीजी भी नई दुनिया में काम कर चुके थे. एक बार उन्होंने मुझे बताया था कि बारपुतेजी अखबार में कभी किसी को यह इंप्रेशन नहीं होने देते थे कि वह अकेले ही नई दुनिया चला रहे हैं. उनका यह भी कहना था कि जितनी स्वतंत्रता और प्रेम बारपुतेजी ने उन्हें दिया, वह सामान्यत: कोई भी अपने अखबार में नहीं देता.
जोशीजी का यह भी कहना था कि बारपुतेजी किसी भी पालिटिकल रैट रेस में नहीं थे. उन्हें कोई राज्यसभा का मेंबर नहीं बनना था और वह अपनी जिंदगी अपने तरीके से अपनी शर्तों पर जीते थे. वह किसी से भी कम्पटीशन करने के चक्कर में नहीं रहते थे.प्रभाष जोशी से मेरा पहली बार संपर्क तब हुआ जब वह दिल्ली में जनसत्ता निकालने जा रहे थे. उन्होंने मुझे पहले लिखित टेस्ट के लिए बुलाया. इसके बाद इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. इसके बाद सैलरी तय करने के लिए फिर बुलाया. इन तीनों बुलावों में उन्होंने लखनऊ से दिल्ली आने जाने का किराया भी दिया.
इस पर मैंने प्रभाष जोशीजी से पूछा कि इस तरह से अगर आप एक-एक व्यक्ति पर इतना खर्च करेंगे तब तो जनसत्ता पर आर्थिक बोझ बहुत बढ़ जाएगा. तब जोशी जी का जवाब था कि जनसत्ता के मालिक रामनाथ गोयनका ने उन्हें एक लाख रूपए का बजट स्वीकृत किया है और कहा है कि हिंदुस्तान में जहां कहीं से भी संभव हो जनसत्ता में बेस्ट टैलेंट भर्ती किए जाएं. उस जमाने में एक लाख रूपया एक बड़ी रकम होती थी.प्रभाष जोशीजी ने मुझे जनसत्ता के लिए सेलेक्ट किया था, परंतु उसी समय राजेंद्र माथुरजी ने भी मुझे नवभारत टाइम्स के लखनऊ संस्करण के लिए सेलेक्ट किया था. घर का मोह होने के कारण मैंने लखनऊ नवभारत टाइम्स को ज्वाइन करना ही उचित समझा.
अशोक जैन (1934 – 1999) : जमीन से जुड़ा एक इंसान
नवभारत टाइम्स में काम करते समय टाइम्स आफ इंडिया समूह के मालिक अशोक जैन के बारे में जानने का मौका मिला.अशोक जैन ने अपने जीवनकाल में ही अपने सभी अखबारों की बागडोर अपने बेटे समीर जैन के हवाले कर दी थी.मैंने टाइम्स ग्रुप के लखनऊ आफिस में कोई दस साल काम किया और इस दौरान कई बार अशोक जैन लखनऊ आए. जब वह लखनऊ आते थे तो अखबार के दफ्तर का रंग रोगन नया किया जाता था. वास्तव में रेड कार्पेट बिछाया जाता था. परंतु अशोक जैन ने उस लाल गलीचे पर कभी कदम भी नहीं रखा. वह कभी भी लखनऊ दफ्तर में नहीं आए.
एक बार अशोक जैन के लखनऊ आने का प्रोग्राम था. नारायण दत्त तिवारी उन दिनों यू.पी. के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने अशोक जैन से फोन पर कहा कि लखनऊ आने पर आप मेरे साथ लंच या डिनर करें. परंतु अशोक जैन ने साफ मना कर दिया. उन्होंने कहा कि मैं एक धार्मिक कार्यक्रम में आ रहा हूं और सिर्फ उसी में भाग लूंगा. और कहीं नहीं जाऊंगा.जैनियों का रथ चलता है. अशोक जैन उसी रथ में लखनऊ की सीमा में जब घुसे, तो नारायण दत्त तिवारी उनका स्वागत करने के लिए पहले से ही वहां मौजूद थे.
मुझे जब यह सब पता चला, तो मैं अशोक जैन को देखने के लिए उस धार्मिक कार्यक्रम में गया, जिसमें भाग लेने वह लखनऊ आए थे. वहां वह एक बहुत सीधे सादे और सरल आदमी लग रहे थे. सफेद धोती कुर्ता पहने हुए थे.मैंने पता किया कि लखनऊ में वह कहां रूके हैं. तब मुझे पता चला कि वह चारबाग रेलवे स्टेशन के पास सब्जी मंडी में एक अत्यंत साधारण जैन परिवार के घर पर रूके हुए हैं.मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ, क्योकि टाइम्स आफ इंडिया समूह का मालिक दुनिया के किसी भी बड़े से बड़े होटल में रुकने की हैसियत रखता था.यहां यह बात भी स्पष्ट कर देना जरूरी लगता है कि अशोक जैन ने जिस प्रकार टाइम्स आफ इंडिया समूह की बागडोर अपने हाथ से छोड़ रखी थी, उससे उनके अखबारों के कई सीनियर लोग परेशान थे. वे लोग नई पीढ़ी के साथ एडजस्ट नहीं कर पा रहे थे.
अज्ञेयजी (1911 – 1987) : एक चुंबकीय व्यक्तित्व
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेयजी हिंदी पत्रकारिता और साहित्य के एक अदभुत प्रकाश पुंज थे. उनसे मेरी भेंट नवभारत टाइम्स के लखनऊ दफ्तर में हुई थी.टीवी सीरियल ‘हमलोग’ वाले मनोहर श्याम जोशी, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, आदि जैसे यशस्वी पत्रकारों के गुरू थे अज्ञेयजी.अज्ञेयजी ने कैलिफोर्निया से लेकर जोधपुर विश्वविद्यालय तक में अध्यापन कार्य किया. दिल्ली लौट कर ‘दिनमान’, ‘नवभारत टाइम्स’, अंग्रेजी की ‘वाक्’ और ‘एवरीमैंस’ जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया.
जब मैंने उनको पहली बार देखा तो वह लगभग सत्तर साल के रहे होंगे. उनका व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि जीवन में न उससे पहले और न उससे बाद में मैंने ऐसा कोई चुंबकीय व्यक्तित्व वाला व्यक्ति देखा. जब वह बोलते थे तो वास्तव में जैसे फूल झड़ते थे.पालिटिक्स से वह कोसों दूर रहते थे. राजनीतिक नेताओं से मिलने नहीं जाते थे. हालांकि अज्ञेयजी कभी क्रांतिकारी रहे थे और आजादी के लिए वह लाहौर, अमृतसर और दिल्ली की जेलों में नजरबंद रह चुके थे.अज्ञेयजी एक ऐसे कहानीकार और लेखक थे, जिनका नाम नोबेल प्राइज के लिए भी शार्ट लिस्ट हुआ था. अज्ञेयजी से भेंट में मैंने पूछा था कि क्या किसी अच्छे कहानीकार के लिए यह जरूरी है कि वह एक अच्छा व्यक्ति भी हो?
उनका जवाब था – नहीं.
पहली भेंट में ही मैं अज्ञेयजी से इतना प्रभावित हुआ था कि उस दिन शाम को उनके द्वारा खींचे गए चित्रों की प्रदर्शनी का उद्घाटन था. वे चित्र इतने अच्छे थे कि अगर अज्ञेयजी चोटी के पत्रकार और लेखक नहीं होते, तो वह चोटी के फोटोग्राफर के तौर पर जाने जाते. प्रदर्शनी में सभी फोटो ब्लैक एण्ड व्हाइट थे . उस प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए अज्ञेयजी ने एक वयोवृद्ध साहित्यकार डा. कुंवर चन्द्र प्रकाश सिंह को आमंत्रित किया था, जबकि वह इस काम के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को या किसी भी अन्य बड़े राजनेता को आसानी से बुला सकते थे.
कुंवर चन्द्र प्रकाश सिंह कभी बड़ौदा यूनिवर्सिटी में हिन्दी के विभागाध्यझ थे. उन्होंने अमेरिका में वर्ष 1980 में अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति की स्थापना की थी. यह संस्था अब भी वहां फल फूल रही है. यह संस्था एक त्रैमासिक पत्रिका ‘विश्वा’ तथा एक न्यूजलेटर ‘संवाद पत्र’ भी प्रकाशित करती है.
उस प्रदर्शनी में जाने पर यह पता चला कि 1978 या 1979 में अज्ञेयजी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था. उसकी राशि में अज्ञेयजी ने अपना कुछ पैसा मिला कर वत्सल निधि बनाई थी. इस निधि ने देश के कई शहरों में लेखक शिविर लगाए. इस का एक उदयेश्य यह भी रहा कि युवा लेखकों को भारत में घूमने के लिए आर्थिक मदद दी जाए.
इतने प्रतिभाशाली व्यक्तित्व और इतने आकर्षक व्यक्तित्व वाले अज्ञेयजी का अपनी पहली पत्नी से विवाह विफल रहा था. बाद में उनकी पहली पत्नी ने सिने अभिनेता बलराज साहनी से शादी कर ली और वह संतोष साहनी कहलाईं. अज्ञेयजी की दूसरी शादी कपिला वात्सायायन से हुई, परंतु उनसे भी उनकी दूरिय़ां बनी रहीं. अंतिम कई वर्षों में इला डालमिय़ा उनके साथ थीं.राजेंद्र माथुरजी अज्ञेयजी का इतना सम्मान करते थे कि उनकी मृत्यु पर माथुरजी ने स्वयं उन पर एक लम्बा सम्पादकीय अग्रलेख लिखा था.
एम.वी. कामथ (1921 – 2014) : माधव विट्ठल कामथ एक मंजे हुए पत्रकार थे. मैंने उनको पहली बार साल 1997 में तब देखा, जब वह बड़ौदा यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर पद के लिए चयन समिति में थे और मैं उस पद के लिए प्रत्याशी था. केरल सरकार की पूर्व मुख्य सचिव रिटायर्ड आईएएस अधिकारी पद्मा रामचन्द्रन उस चयन समिति की अध्यक्ष थीं. वह उस विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर भी थीं.
तब एम. वी. कामथ ने मुझे प्रोफेसर पद के लिए सेलेक्ट किया था. इंटरव्यू के दौरान उन्होंने एक प्रश्न किया था कि बड़ौदा यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता विभाग को चलाने में आपकी प्राथमिकताएं क्या होंगी. मेरा जवाब था – मैं गेस्ट फैकल्टी के तौर पर उन लोगों को ज्यादा से ज्यादा तादाद में जोड़ना चाहूंगा जिन्हें अखबारों, टेलीविजन, विज्ञापन, एजेंसी आदि में काम करने का लंबा अनुभव हो.
मैंने यह भी कहा था कि अगर संभव हुआ तो मैं ऐसे लोगों को अपने विभाग में रेगुलर फैकल्टी के तौर पर नियुक्त भी करना चाहूंगा.मैंने बड़ौदा विश्वविद्यालय में जुलाई 1997 में ज्वाइन किया. इसके बाद समय गुजरता गया. एक सुबह अचानक मेरे लैंडलाइन फोन की घंटी घर में बजी. मैंने फोन उठाया, तो थोड़ा चौंक गया, क्योंकि यह फोन एम.वी. कामथ का था. उन्होंने मुझसे कहा – मैं आज के दिन बड़ौदा में हूं और आपसे व आपके विद्यार्थियों से मिलना चाहता हूँ.
मैंने फौरन उनको अपने विभाग में आमंत्रित किया. वहां छात्रों को उन्होंने बताया कि साल 1948 में किस प्रकार एक युवा रिपोर्टर के तौर पर उन्होंने नाथूराम गोडसे के मुकदमे की खबर कवर की थी.
उन्होंने बताया कि अदालत में लगभग चार-पांच घंटे खड़े रह कर गोडसे ने बड़े शांत भाव से भाषण दिय़ा था और स्पष्ट किय़ा था कि मैंने गांधीजी को क्य़ों मारा. सबसे खास बात उन्होंने ये बताई कि जब जज ने गोडसे की फांसी की सजा सुनाई, तो अदालत में मौजूद लगभग सभी लोगों की आंखों में आंसू थे.
आजाद हिंदुस्तान में जिस पहले व्यक्ति को फांसी की सजा हुई, वह था 37 वर्षीय नाथूराम गोडसे. गोडसे को 15 नवंबर 1949 को अम्बाला जेल में फांसी दी गई थी. भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ. इस मामले में नाराय़ण आप्टे को भी फांसी हुई थी. इस मामले के तीन अभिय़ुक्तों को कभी पकड़ा नहीं जा सका और आज तक कोई नहीं जानता कि उनका क्या हुआ. इन तीनों के नाम थे – गंगाधर दंदावते, गंगाधर जाघव और सूर्यदेव.
एम.वी. कामथ ने मुझे अपनी पुस्तक ‘द परसूट आफ एक्सीलेंस’ भेंट की. यह किताब रूपा एंड कंपनी, नई दिल्ली, का प्रकाशन है. इस पुस्तक को मैंने कई बार पढ़ा है. इसमें तमाम लोगों की जीवन में घटी घटनाओं के साथ यह बताया गया है कि एक्सीलेंस के मतलब क्या है और इसे अपने जीवन और प्रोफेशन में कैसे प्राप्त किया जा सकता है.
एम.वी. कामथ कलम के धनी थे. साधारण सीधी-सादी अंग्रेजी लिखते थे. उन्होंने लगभग पचास पुस्तकें लिखीं और ये पुस्तकें विभिन्न विषयों पर है. जैसे कि पत्रकारिता, मीडिया, राजनीति, साहित्य, शिरड़ी साई बाबा, नरेंद्र मोदी, महात्मा गांधी, आदि. उनकी कुछ पुस्तकों का दूसरी भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है.
सन् 2009 में एम.वी.कामथ की पुस्तक ‘नरेंद्र मोदी द आर्किटेक्ट आफ माडर्न स्टेट’ प्रकाशित हुई. उन दिनों देश के तमाम राजनीतिक दल और अखबार नरेंद्र मोदी पर प्रहार कर रहे थे, क्योंकि वह गोधरा नरसंहार के बाद हुए दंगों को तुरंत रोक नहीं पाए थे.एम.वी. कामथ की पुस्तक ‘प्रोफेशनल जर्नलिज्म’ देश के तमाम मीडिया स्कूलों में पिछले 20 साल से अधिक समय से एक स्टैंडर्ड टेक्स्ट बुक रही है. इस पुस्तक की एक कापी भी मुझे एम.वी. कामथ ने भेंट की थी.
व्यक्तिगत तौर से मैं एम.वी. कामथ का इसलिए आभारी हूं, क्योंकि उन्होंने बड़ौदा में मुझे प्रोफेसर के पद पर सेलेक्ट करके लगभग डेढ़ दशक तक गुजरात की सेवा करने का मौका दिया.इस लेख के अंत में यह नतीजा निकलता है कि इन बड़े-बड़े लेखकों और पत्रकारों के जो गुरू थे, उन्होंने सदैव युवा पीढी को प्रोत्साहन दिया और इसीलिए उनका नाम आज जीवित है. दूसरी बात यह है कि जिस दौर में ये पत्रकार संपादक थे, वह ऐसा दौर था जबकि अच्छे-अच्छे लेखक संपादक बनते थे. जबकि आज संपादक का काम एक मैनेजर जैसा हो गया है. उसका अच्छा लेखक होना जरूरी नहीं है.
अक्टूबर 1989 में पीएच.डी. करने के लिए जब मैं इंग्लैंड जाने लगा, तब नवभारत टाइम्स के अपने संपादक श्री राजेन्द्र माथुरजी से मिलने गया. मैंने अनुरोध किया कि मैं इंग्लैंड से हर हफ्ते एक कॉलम लिखा करूंगा और आप उसका दो हजार रुपये प्रति कॉलम के हिसाब से पेमेंट करा दीजिएगा. माथुर जी ने कहा कि आप पहले भी लिखते रहे हैं और मैं पेमेंट कराता रहा हूं. पर इंग्लैंड आप जिस काम से जा रहे हैं, वही करें तो अच्छा रहेगा. अपना समय अन्य किसी काम में न लगाएं.

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