Gandhi Premchand Madhushala: हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ वह काव्य कृति है जिसने हिंदी कविता को एक नए मुहावरे, नई भाषा और नई आत्मा से भर दिया. लेकिन इस पुस्तक को लेकर एक दौर में विवाद भी हुआ, विरोध भी हुआ और यहां तक कि गांधीजी तक शिकायत पहुंची कि यह कविता युवाओं को “शराब की राह” दिखा रही है.
दूसरी तरफ प्रेमचंद ने ‘मधुशाला’ में वह कलात्मकता देखी जो उस समय की हिंदी कविता में अनुपस्थित थी. फारसी–उर्दू की प्रतीक–परंपरा को इतनी सहजता से हिंदी में पिरोना कि वह बिल्कुल अपराजेय लगे.
‘मधुशाला’ और प्रेमचंद- वह समीक्षा जिसने बच्चन की राह बदल दी
हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा ’ नीड़ का निर्माण फिर’ में एक जगह लिखा है कि “मधुशाला के प्रकाशन के कुछ समय बाद प्रयाग में प्रेमचंद से मुलाकात हुई. उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा ‘जानते हो, मद्रास के लोग अगर किसी हिन्दी कवि का नाम लेते हैं, तो वह बच्चन का नाम है.’
यह वाक्य सिर्फ तारीफ नहीं था, बल्कि संकेत था कि साहित्य की मुख्यधारा अब बच्चन को गंभीरता से पढ़ रही थी. प्रेमचंद ने हंस पत्रिका में ‘मधुशाला’ पर एक संक्षिप्त किंतु महत्त्वपूर्ण समीक्षा लिखी, जो आज भी इस काव्य कृति की सामाजिक और साहित्यिक स्वीकृति का महत्वपूर्ण आधार मानी जाती है.
प्रेमचंद ने लिखा कि बच्चन की कविता में एक अलग व्यक्तित्व, अलग शैली और पूरी तरह नई भावनाएं हैं. उनका कहना था कि यह वह दुनिया है, जहां साकी, मदिरा, मधु और मधुशाला जैसी पारसी-उर्दू परंपराओं की छायाएं दिखती हैं, लेकिन बच्चन इसे इस कदर आत्मसात कर लेते हैं कि यह हिन्दी का ही हिस्सा महसूस होती है.

प्रेमचंद ने यह भी रेखांकित किया कि हमारी मध्यकालीन और आधुनिक कविता में बंसी, वृंदावन, वीणा और भक्ति-आध्यात्म का वर्चस्व रहा है, लेकिन बच्चन इस परंपरा को तोड़ते हुए पूरी तरह विशिष्ट प्रतीकों की दुनिया रचते हैं. यह कल्पना हिन्दी के लिए सर्वथा नई थी.
उन्होंने लिखा—
“यह श्रेय बच्चन को है कि उन्होंने फारसी का तखैयुल हिन्दी में इस तरह खपाया कि उसमें बेगानापन बिल्कुल नहीं रहा.”
यही वह समीक्षा थी जिसने ‘मधुशाला’ को सिर्फ लोकप्रियता नहीं दी, बल्कि वैचारिक वैधता भी दी.
जब ‘मधुशाला’ से डरने लगे आलोचक और गांधीजी तक पहुंची शिकायतें
1933 में ‘मधुशाला’ के प्रकाशित होते ही तहलका मच गया. युवा पीढ़ी इसे गाने लगी, पढ़ने लगी और कई हलकों में यह “विद्रोह” की किताब समझी जाने लगी. बच्चन लिखते हैं कि उन्हें धमकियां मिलीं और कुछ लोगों ने आरोप लगाया कि वे युवाओं को शराब की ओर उकसा रहे हैं.
अमिताभ बच्चन अपने ब्लॉग में लिखते हैं कि उनके पिता को “देश के युवाओं को शराब की ओर ले जाने वाला कवि” कहा गया. शिकायतें इतनी बढ़ गईं कि बात गांधीजी तक पहुंच गई.
कई लोग गांधीजी के पास गए और कहा—
“यह कवि युवाओं को बहका रहा है. इसे रोका जाए.” गांधीजी ने इसके बाद हरिवंश राय बच्चन को बुलाया.
गांधीजी के सामने ‘मधुशाला’- बच्चन की आवाज, बापू की मुस्कान
दिल्ली के भंगी बस्ती में गांधीजी ठहरे थे. हरिवंश राय बच्चन हिचकिचाते हुए पहुंचे. गांधी ने शांत स्वर में कहा- जो आप लिख रहे हैं, वह मुझे सुनाइए.
बच्चन ने ‘मधुशाला’ की वो पंक्तियाँ पढ़ीं, जिनके बहाने वे गांधी को एक संदेश देना चाहते थे:
बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,
पी लेने पर तो उसके मुँह पर पड़ जाएगा ताला.
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की प्याले की,
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला.
गांधीजी ने पंक्तियां सुनीं, मुस्कुराए और बोले—
“इसमें तो कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है.”
यह सिर्फ एक टिप्पणी नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक क्षण था. साहित्य और समाज दोनों के लिए यह संदेश था कि ‘मधुशाला’ को सतही तौर पर समझना भूल होगी.

गांधीजी की हत्या और बच्चन का गहरा शोक
गांधीजी से यह संवाद बच्चन के मन में बहुत गहरे बैठ गया था. यही कारण था कि 1948 में जब गांधी की हत्या हुई, तो बच्चन जैसे टूट गए. उनकी कविताओं में जो वेदना उमड़ी. उन्होंने लिखा—
“नत्थू खैरे ने गांधी का कर अंत दिया,
क्या कहा, सिंह को शिशु मेढ़क ने लील लिया…”
बच्चन ने यह भी स्वीकार किया कि गांधी की हत्या किसी एक व्यक्ति का अपराध नहीं, बल्कि सामूहिक घृणा और संकीर्णता का परिणाम थी:
“जिस क्रूर नराधम ने बापू की हत्या की,
उसको केवल पागल-दीवाना मत समझो,
है एक प्रेरणा उसके पीछे प्रबल कुटिल…”
वे आगे लिखते हैं कि यदि किसी के मन में फिरकावादी घृणा बसती है, तो वह भारत की आत्मा के लिए सबसे बड़ा खतरा है.
प्रेमचंद, गांधी और बच्चन- ‘मधुशाला’ का तिहरा संगम
‘मधुशाला’ का यह पूरा इतिहास सिर्फ एक किताब की लोकप्रियता का इतिहास नहीं है. यह तीन महापुरुषों के दृष्टिकोणों का संगम है.
प्रेमचंद ने इसे साहित्य की नई दिशा बताया. गांधीजी ने इसकी आत्मा को समझकर इसका बचाव किया. हरिवंश राय बच्चन ने इसे अपनी पहचान और अपने युग का दर्पण बना दिया. इन तीनों की दृष्टियां मिलकर ‘मधुशाला’ को सिर्फ कविता नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक घटना बना देती हैं. गांधी, प्रेमचंद और मधुशाला एक फैसले पर आकर मिलते हैं.
इतिहास में कम ही ऐसे क्षण होते हैं जब साहित्य, समाज और राजनीति एक ही रेखा पर खड़े दिखाई दें, ‘मधुशाला’ का इतिहास ऐसा ही एक क्षण है. प्रेमचंद ने इसकी रचनात्मकता पहचानी. गांधीजी ने इसकी मंशा समझी और बच्चन ने इसे युगों तक पहुंचाया.
‘मधुशाला’ केवल कविता नहीं, बल्कि संवाद है समाज से, इतिहास से और अपनी ही अंतरात्मा से.
संदर्भ
पुस्तक समीक्षा. हंस, अप्रैल, 1936 में प्रकाशित हुई थी, विविध प्रसंग, भाग-3 में संकलित
Gandhi Darshan – गांधी दर्शन
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