Tariff War : चीन ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ वॉर का पलटवार करने में दो दिन भी नहीं लिये. अमेरिका का सामरिक मित्र और सबसे बड़ा व्यापार साझीदार यूरोपीय संघ भी हल खोजने के लिए बातचीत जारी रखने के साथ पलटवार की तैयारी का एलान कर चुका है. तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि भारत चुप क्यों है? भारत की चुप्पी के संभावित कारणों पर विचार करने से पहले चीन और भारत पर लगे टैरिफों की तुलना कर लेना आवश्यक है.
ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल के मध्य, 2018 में चीन की कुछ वस्तुओं पर 25 प्रतिशत टैरिफ लगाया था, जिसे बाइडेन ने अपने राष्ट्रपतिकाल में जारी रखा. सत्ता संभालते ही ट्रंप ने चीन के सभी आयातों पर 20 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया था, जिसमें ताजा 34 प्रतिशत टैरिफ को जोड़ दें, तो चीनी आयातों पर अब 54 प्रतिशत टैरिफ हो जाएगा, जिसके जवाब में चीन ने भी अमेरिकी आयातों पर 34 प्रतिशत टैरिफ का ऐलान किया है. ट्रंप के पहले कार्यकाल के टैरिफों से बचने के लिए चीनी कंपनियों ने वियतनाम, कंबोडिया और लाओस में कारखाने लगा लिए थे. पर इन तीनों पर क्रमशः 46. 49 और 48 प्रतिशत टैरिफ लगाकर ट्रंप ने वे रास्ते भी बंद कर दिए हैं.
अमेरिका आसियान और यूरोपीय संघ के बाद चीन का सबसे बड़ा व्यापार साझीदार है और सबसे लाभदायक मंडी है. वहां इतना भारी टैरिफ लगने के बाद कई चीनी कंपनियों का कारोबार ठप हो सकता है. भवन निर्माण उद्योग में चल रही भारी मंदी, कर्ज के संकट और मांग गिरने के कारण चीनी अर्थव्यवस्था सुस्त है. सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद बेरोजगारी बढ़ रही है, जिससे असंतोष फैल सकता है. हालांकि ट्रंप के व्यापार युद्ध में अमेरिका से कई गुना नुकसान चीन का होगा, क्योंकि चीन के निर्यात अमेरिका के आयातों के तीन गुना से भी अधिक है. फिर भी चीनी सरकार ने हालात देखते हुए और दुनिया की नजरों में मु्क्त व्यापार का नया चैंपियन बनकर उभरने के लिए पलटवार करना सही समझा. चीन के इतने तेज पलटवार की उम्मीद शायद ट्रंप को भी नहीं थी. इसलिए उन्होंने इसे चीन की भूलभरी चाल बताया. पर असली सवाल यह है कि ट्रंप ने पूरी दुनिया के साथ टैरिफ जंग छेड़ने के लिए ऐसा समय क्यों चुना, जब यूक्रेन और गाजा के युद्ध रुकवाने की उनकी कोशिशें खटाई में पड़ती नजर आ रही हैं.
यह सही है कि पिछले 30-40 वर्ष से अमेरिका को लगातार व्यापार घाटा हो रहा है और उसकी 50,000 से एक लाख करोड़ डॉलर पूंजी हर साल लाभ कमाने वाले देशों में रही है. इनमें चीन, यूरोपीय संघ, आसियान, मेक्सिको, वियतनाम, जापान और कनाडा प्रमुख हैं. पिछले चार दशकों में अमेरिका के 90 हजार कारखाने बंद हुए हैं और उनमें काम करने वाले 50 लाख कर्मचारियों की नौकरियां चली गयी हैं. ट्रंप अमेरिका के इसी व्यापार घाटे को कम करके पूंजी का पलायन रोकना चाहते हैं और विनिर्माण क्षेत्र को बहाल करना चाहते हैं.
अर्थशास्त्री और विश्व व्यापार संस्थाएं इस बात पर लगभग एकमत हैं कि जिस मनमाने तरीके से ट्रंप सरकार ने टैरिफ लगाने का निश्चय किया है, उससे सप्लाई चेन टूटेगी, संरक्षणवाद बढ़ेगा, व्यापार जंग शुरू होगी और विश्व अर्थव्यवस्था में मंदी का खतरा पैदा हो जाएगा. विश्व व्यापार संगठन ने चेतावनी दी है कि टैरिफ लगने से विश्व व्यापार में एक प्रतिशत की गिरावट आ सकती है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने संयम बरतने की अपील करते हुए कहा है कि सुस्त गति से चल रही दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए टैरिफ जंग एक बड़ा खतरा बन सकती है. टैरिफों के ऐलान के बाद के दो दिनों में अमेरिकी शेयर बाजारों में कोविड महामारी के दिनों जैसी घबराहट और बिकवाली का माहौल रहा और शेयर सूचकांकों में 10 प्रतिशत से अधिक की गिरावट दर्ज हुई. पांच लाख करोड़ डॉलर की पूंजी स्वाहा हो गयी है, मंदी के खतरे का आतंक फैल गया है.
अर्थशास्त्री और व्यापार विश्लेषक चिंतित हैं, क्योंकि जब-जब संरक्षण का दौर चला है, उसने विश्व अर्थव्यवस्था को मंदी में धकेला है. अर्थशास्त्रियों का यह भी मानना है कि ट्रंप ने मुक्त व्यापार व्यवस्था को हमेशा के लिए बदल दिया है. अब वैश्विक व्यापार की जगह द्विपक्षीय मुक्त व्यापार और मिश्रित मुक्त व्यापार की व्यवस्था कायम होगी, जिसके लिए सप्लाई चेनों पर भी नये सिरे से सोचना होगा.
सप्लाई चेनों के पुनर्गठन की संभावना में ही भारत के लिए नये अवसर छिपे हैं. मिसाल के तौर पर चीन के अलावा ताइवान, वियतनाम, बांग्लादेश, श्रीलंका और मलयेशिया पर भारत से ऊंचे टैरिफ लगे हैं.
यदि भारत चीन से वहां गये वस्त्र, मशीनरी, मोटर पार्ट्स, सेमीकंडक्टर, इलेक्ट्रॉनिक और खिलौना उद्योगों को आकर्षित कर सके, तो उसका व्यापार और फैल सकता है. पर इसके लिए भारत को उद्योगों के लिए बुनियादी सुविधाएं आसानी से उपलब्ध करानी होंगी. उद्योगों के आकार और कुशलता को बढ़ाना होगा, ताकि वे विश्व बाजार की प्रतिस्पर्धा में टिक सकें. सबसे बड़ी चुनौती कृषि और खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र को बचाते हुए बाकी उद्योगों को प्रतिस्पर्धा के लिए खोलने की है. इसके अलावा भारत को भी अब अमेरिका की तरह चीन, रूस और खाड़ी के देशों के साथ चल रहे अपने व्यापार घाटे को कम करते हुए पूंजी का पलायन रोकने के गंभीर कदम उठाने चाहिए. चीन की गति से विकास करने के लिए भारत को हर साल आठ-दस लाख करोड़ की पूंजी की जरूरत पड़ेगी, जिसे वह शोध और विकास में लगा सके और बुनियादी ढांचा व सेवा बेहतर कर सके. इतनी पूंजी व्यापार लाभ के बिना कहीं से नहीं मिल सकती.
ट्रंप के टैरिफ ने जहां विदेशों में माल बेचने को और चुनौतीपूर्ण बनाया है, वहीं दूसरे देशों को नये व्यापारिक साझीदार और मंडियां खोजने पर विवश भी किया है. भारत को इसका लाभ उठाकर यूरोपीय संघ, अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, लैटिन अमेरिकी और अफ्रीकी देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते करने चाहिए. अमेरिका के साथ व्यापार समझौते की बातें चल रही हैं, जिनमें अब और तेजी आने की संभावना है.
भारत के दवा उद्योग पर भी टैरिफ की तलवार लटकी है, क्योंकि उसके एपीआई रसायन चीन से आयात किये जाते हैं. इलेक्ट्रॉनिक और मोटर पार्ट्स के पुर्जों और दवाओं के एपीआई का टैरिफ जंग से बचने के लिए ही नहीं, वरन सप्लाई चेन सुरक्षित बनाने के लिए भी अपने देश में बनाया जाना प्राथमिकता होनी चाहिए. इससे चीन के साथ चल रहे व्यापार घाटे और पूंजी पलायन में भी कमी आएगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)