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महिलाओं में सामूहिकता की भावना जरूरी

Women Empowerment : यह बेहद अफसोसनाक है. यदि कोई महिला आगे बढ़े, तो उसकी सफलता का जश्न मनाने के बजाय केकड़े की तरह उसकी टांग खींचना कहां तक जायज है! वह भी स्त्रियों द्वारा. कुल मिला कर आप उसी कथन को सही साबित कर रही हैं कि औरतें औरतों की सबसे बड़ी दुश्मन होती हैं. वही उनकी राह में रोड़े अटकाती हैं.

Women Empowerment : पिछले दिनों एक सेमिनार में अध्यक्षता कर रही थी. सेमिनार महिलाओं पर था. कई वक्ता भी महिलाएं थीं. उनमें से अधिकांश महिलाएं अपने-अपने अनुभव सुना रही थीं. साथ ही यह भी कह रही थीं कि महिलाओं की उन्नति तब तक संभव नहीं, जब तक कि हर साधनसंपन्न महिला दूसरी कमजोर महिलाओं का हाथ न पकड़े, उनकी सहायता न करे. बात सच भी है. जो साधनसंपन्न है, उसे अपने से कमजोर और साधनहीन की मदद अवश्य करनी चाहिए. कई स्त्रियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की शृंखला बनाने की बातें कर रही थीं, क्योंकि कमोबेश दुनिया भर में महिलाओं के दुख और परेशानियां एक जैसी हैं.


अपने मूल विचार में ये प्रतिज्ञाएं बहुत अच्छी हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर क्या ऐसा होता है? मैं अकसर देखती हूं कि जो महिलाएं मंच पर महिला सशक्तीकरण की जोर-शोर से वकालत करती हैं, वे मौके-बेमौके औरतों की निंदा में मशगूल हो जाती हैं. बहुतों का प्रिय विषय होता है, स्त्रियों के तथाकथित चरित्र का विश्लेषण. कोई भी स्त्री आगे बढ़े, तो बाकी की अधिकांश उसके चरित्र चित्रण में लग जाती हैं. यदि बॉस पुरुष है और उसने किसी महिला को आगे बढ़ाया है, तो महिला की योग्यता, प्रतिभा के मुकाबले मैग्नीफाइंग ग्लास लाकर यह ढूंढ़ने में लग जाती हैं कि उस महिला का अपने बॉस से क्या संबंध है, कैसा संबंध है, वह कब-कब, कहां-कहां उसके साथ देखी गयी है. फिर कहा जाता है कि हमें तो पहले से ही यह मालूम था. इस तरह की बातें अगर स्त्रियां ही स्त्रियों के संबंध में चटखारे लेकर करें, तो यह बेहद अशोभनीय है.

पुरुष विमर्श अक्सर महिलाओं को अपने मानकों के कोड़े से ठोकता रहा है. यदि महिलाएं भी ऐसा कर रही हैं, तो वे ऐसे ही पुरुष विमर्श को आगे बढ़ा रही हैं, जिसकी निंदा में रात-दिन व्यस्त रहती हैं. इस लेखिका ने दफ्तरों में अक्सर ऐसा होते देखा है. रेडियो, टीवी, अखबार, बैंक, कॉलेज, विश्वविद्यालय, राजनीति, उद्योग, शो बिज- कोई भी क्षेत्र इनसे मुक्त नहीं है. यहां तक कि लेखन के क्षेत्र में भी यह भरपूर है. यह बेहद अफसोसनाक है. यदि कोई महिला आगे बढ़े, तो उसकी सफलता का जश्न मनाने के बजाय केकड़े की तरह उसकी टांग खींचना कहां तक जायज है! वह भी स्त्रियों द्वारा. कुल मिला कर आप उसी कथन को सही साबित कर रही हैं कि औरतें औरतों की सबसे बड़ी दुश्मन होती हैं. वही उनकी राह में रोड़े अटकाती हैं.


अक्सर महिलाओं की सामूहिकता की बात भी बड़े जोर-शोर से की जाती है. बात सच भी है. एकला चलो के मुकाबले समूह अक्सर सफलता पाते हैं. अपने देश में महिलाओं की सामूहिकता कोई नयी बात भी नहीं है. यदि पुरानी पीढ़ी की स्त्रियों के कार्यकलापों पर नजर डालें, तो यह सामूहिकता हर जगह नजर आती थी. शादी, ब्याह, मुंडन आदि के अवसर पर अड़ोस-पड़ोस की सब महिलाएं अपने-अपने चकला-बेलन लेकर उस परिवार के यहां इकट्ठा हो जाती थीं. फिर घर के तमाम कामों में और खाना बनाने में मदद करती थीं. वे आपस में बातें भी करती थीं. गीत भी गाती थीं. नाचती भी थीं. ढोलक पर उनकी उंगलियां मछली की तरह तैरती थीं. घुंघरुओं की आवाज दूर तक सुनायी देती थी. यह बात शादी के समय होती थी. तब बारात और मेहमानों के लिए किसी कैटरर की व्यवस्था नहीं होती थी.

घर और बाहर की तमाम महिलाएं ही इस काम को संभालती थीं. विवाह के खाने में कोई कमी न रह जाए, कम न पड़ जाए, यही चिंता होती थी. पूड़ी बेलते-बेलते भी उनका गीत-संगीत, विवाह के अवसर पर दी जाने वाली गालियां, सब साथ-साथ चलते थे. यही हाल होली के अवसर पर भी होता था. आज उसके यहां गुझिया बनेगी, तो पड़ोस की बहुत-सी महिलाएं हाजिर हैं. कल उसके यहां बनेगी, तो वहां. यह काम अक्सर दोपहर के वक्त किया जाता था, जब वे अपने घरेलू काम से मुक्त हो जाती थीं. असली बहनापा यह था. सामूहिकता भी. इस सामूहिकता को उन महिलाओं ने ग्रंथ पढ़कर नहीं सीखा था.

फेमिनिज्म भी कोई विचार है, जो उनके लिए ही है, उस पीढ़ी की भारतीय स्त्रियों को यह पता न था, बल्कि विचार यह था कि आज हम उनके काम आ रहे हैं, कल वे हमारे काम आयेंगे. होता भी ऐसा ही था. आज फेमिनिज्म या स्त्रीवादी विचार हर जगह उपस्थित है. हर कोई अपना-अपना राग अलापता है, मगर सामूहिकता की वह भावना, जो हमारी पुरानी स्त्रियों में थी, सिरे से गायब है. इसका कारण एक तो यह है कि वक्त बदल गया है. घरेलू कामों के मुकाबले स्त्रियों की रुचि आत्मनिर्भर बनने में है, जिससे कि वे कुछ कमा सकें, किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े. पुरानी स्त्रियों के सामने ऐसे विकल्प मौजूद नहीं थे, लेकिन आज जब स्त्रियों के सामने ढेर सारे विकल्प मौजूद हैं, तब सामूहिकता की भावना भाषणों के अलावा शायद ही कहीं दिखायी देती है. ऐसा क्यों है, इस पर विचार किया जाना चाहिए. औरतें औरतों की हमदर्द बनें, ईर्ष्या की भावना को नकार सकें, एक-दूसरे का वास्तविक रूप से हाथ थाम सकें, तभी सामूहिकता और बहनापे की भावना पैदा हो सकती है. कोई संगठन भी तभी ताकत से काम कर सकता है. (ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

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