Attack on Media : ऑस्कर वाइल्ड ने लिखा था, ‘अमेरिका में राष्ट्रपति का रुतबा चार साल के लिए रहता है, लेकिन पत्रकारिता का असर हमेशा-हमेशा के लिए रहता है.’ अब अमेरिका में राष्ट्रपति की मजबूत पकड़ मीडिया में दिखती है. डोनाल्ड ट्रंप पत्रकारों तथा उनके संस्थानों को फटकारते, निशाना बनाते और अपमानित करते हैं. दुनियाभर के राजनेता पत्रकारों को दया का पात्र समझने लगे हैं. संपादकों, रिपोर्टरों, मीडिया मालिकों और विचार लेखकों को धनी व प्रभावशाली लोगों की तरफ से मानहानि के मुकदमों का सामना करना पड़ता है. जो सूचना और संवाद उद्योग अब तक सच का खुलासा करके, बगैर भय के रिपोर्टिंग करके या ताकतवर राजनीतिक शहंशाहों से सवाल करके जिंदा रहा, वह अब इश्तहार और प्रिटिंग प्रेस रिलीज बांटने, पहले से लिखे व संपादित किये गये इंटरव्यू और महत्वपूर्ण विचार पृष्ठों पर राजनेताओं या कॉरपोरेट दुनिया के लोगों द्वारा शीर्ष नेताओं के पक्ष में लिखे जाने वाले छद्म लेखन का माध्यम रह गया है.
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि फ्री प्रेस के खिलाफ लड़ाई उस देश ने शुरू की है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कसमें खाता है. अपने कामकाज की शैली तथा बातचीत की प्रतिकूल रिपोर्टिंग से नाराज अमेरिकी राष्ट्रपति ने पूरी दुनिया के मीडिया के खिलाफ जंग छेड़ दी है. जब सबसे शक्तिशाली तथा लोकतांत्रिक दृष्टि से बेहद समृद्ध देश का राष्ट्रपति हर मंच से पेशेवर पत्रकारों को निशाना बनाता है, तो यह संक्रामक बीमारी का रूप धारण कर लेती है और जंगल की आग की तरह फैलती है. विगत फरवरी में व्हाइट हाउस में टीवी पत्रकारों के सामने यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के साथ हुई सार्वजनिक झड़प के बाद ट्रंप ने टिप्पणी की, ‘फेक न्यूज मीडिया हर बात को तोड़-मरोड़कर पेश करता है- उसका गढ़ा गया झूठ हमारे लोकतंत्र के लिए खतरा है.’ उधर उदार यूरोपीय नेता की छवि वाले ओलाफ शुल्ज ने एक आयोजन में मीडिया को चेताया, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहीं खत्म होती है, जहां उससे हिंसा भड़कती है, सोशल मीडिया पर अंकुश लगाया ही जाना चाहिए.’
इस वर्ष की शुरुआत में फ्रेंच राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कथित रूप से उन मीडिया संस्थानों को बंद कर देने को कहा, जो उनकी नीतियों का विरोध करते हैं. मैक्रों दरअसल एक्स की एक पोस्ट पर आगबबूला हो गये थे, जिसमें घरेलू मुद्दों को न सुलझा पाने के कारण उन पर सवाल उठाये गये थे. पिछले साल जर्मनी की धुर दक्षिणपंथी नेत्री एलिस वाइड्रल ने कहा था, ‘मुख्यधारा का मीडिया संभ्रांतों की कठपुतली है- पत्रकार हमें बदनाम करने के लिए सच को तोड़ते-मरोड़ते हैं.’ जिस इंग्लैंड को लोकतंत्र का जनक माना जाता है, आश्चर्यजनक रूप से वहां के प्रधानमंत्री भी मीडिया को नीचा दिखाने में पीछे नहीं हैं. मीडिया पर लगे प्रतिबंध का औचित्य ठहराते हुए कीर स्टारमर ने चेताया, ‘हम उन तमाम भ्रामक सूचनाओं पर अंकुश लगायेंगे, जो अलगाववाद को हवा देती हैं.’ एक ऑनलाइन पोस्ट के आधार पर की गयी गिरफ्तारी पर हंगरी के प्रधानमंत्री ने पिछले महीने संसद में कहा, ‘पूरे पश्चिमी विश्व में हावी राजनेताओं और मीडिया के भ्रष्ट नेटवर्क का सफाया किया जाना चाहिए.’ भारत में सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता प्रशासनिक और दूसरी एजेंसियों के जरिये पत्रकारों को निशाना बना रहे हैं.
कभी राजनीतिक वर्ग मीडिया को संरक्षण देता था. ऐसा वह दया दिखाने के लिए नहीं करता था. अपनी नीतियों और संदेशों को जनता तक पहुंचाने के लिए राजनेताओं को मीडिया की जरूरत पड़ती थी. कभी शीर्ष कॉरपोरेट व्यक्तित्व तक अगर साख वाले पत्रकारों का पीछा करते थे, तो इसलिए नहीं कि उन्हें नीति निर्माण से जुड़ी जानकारियों की जरूरत होती थी, बल्कि नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों से जुड़ी जानकारियां हासिल करने के लिए वे ऐसा करते थे. वही मीडिया अब बड़ी तेजी से अपनी वह साख खो रहा है, जिसे उसने काफी लंबे समय में अर्जित किया था. पत्रकार अखबारों में जो कुछ लिखते हैं या प्राइम टाइम के प्रायोजित शो में जो कुछ दिखाते हैं, उन पर विश्वास करने वाले लोग बहुत कम रह गये हैं. ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ की प्रसार संख्या 2015 में साढ़े छह लाख थी, जो घटकर तीन लाख से भी कम रह गयी है. दस वर्ष में उसकी प्रसार संख्या 54 फीसदी घटी है. ‘द वॉल स्ट्रीट जर्नल’ के 40 फीसदी पाठकों ने उसका साथ छोड़ दिया है. ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ की प्रसार संख्या 2015 में 4.30 लाख थी, जो 2023 में घटकर 1.25 लाख रह गयी.
इंग्लैंड, यूरोप और जापान में भी मीडिया को ऐसे ही दबावों का सामना करना पड़ रहा है. एक दशक पहले जिस ‘द डेली मेल’ की प्रसार संख्या 15 लाख थी, वह आज सात लाख में सिमट गयी है. ‘टाइम’ और ‘द इकोनोमिस्ट’, जैसी पत्रिकाओं को कभी राजनीति और अर्थनीति की सबसे प्रामाणिक पत्रिकाओं में माना जाता था. पर ये भी तेजी से पाठक खो रही हैं. जहां ‘टाइम’ की प्रसार संख्या में 45 प्रतिशत की कमी आयी है, वहीं ‘द इकोनोमिस्ट’ की प्रसार संख्या 35 फीसदी घट गयी है. भारत में मीडिया से जुड़े प्रकाशन ढलान पर हैं. सिर्फ यही नहीं कि सभी अखबारों की कुल प्रसार संख्या में भारी गिरावट आयी है, बल्कि राजनीतिक उद्देश्यों से चालित और संचालित सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की बाढ़ आ जाने से अखबारों के राजस्व में भी 50 प्रतिशत से अधिक कमी आयी है. ज्यादातर लोकप्रिय और प्रतिष्ठित पत्रिकाएं आज या तो लुप्त हो चुकी हैं या इनके बंद हो जाने के आसार हैं.
अब सत्तारूढ़ संभ्रांतों को अपने संदेश प्रसारित करने के लिए दूसरे प्रसार माध्यम मिल गये हैं. उन्हें विरासत वाले मीडिया माध्यमों की जरूरत नहीं है. अपनी प्रशंसा में चूर ये राजनेता नये तरह के उन सोशल इंफ्लूएंसर्स को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य पैसा बनाना है. सत्ता प्रमुख अपने कॉरपोरेट साथियों को मौजूदा मीडिया प्लेटफॉर्म को खरीद लेने या नया प्लेटफॉर्म शुरू करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, ताकि सत्तारूढ़ पार्टियों का अच्छे से हितपोषण हो सके. आंकड़ा बताता है कि पारंपरिक ब्रिटिश मीडिया का राजस्व 2007 का चौथाई हिस्सा रह गया है. भारतीय मीडिया में भी विज्ञापनों पर खर्च चूंकि सोशल और डिजिटल मीडिया में शिफ्ट होता गया है, ऐसे में, प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया राज्य और केंद्र सरकारों के फंड पर दयनीय रूप से निर्भर हैं. अलबत्ता मीडिया की बदहाली का कारण खराब अर्थशास्त्र है. गले में फंदा डालने का काम मीडिया ने खुद किया है. उसे याद रखना चाहिए : ‘अगर सभी सुर्खियां एक जैसी हैं, तो यह खबर नहीं, मुफ्त का विज्ञापन है.’
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)