अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार कहते आ रहे हैं कि भारत द्वारा रूस से कच्चा तेल खरीदने से रूस को यूक्रेन युद्ध में मदद मिल रही है. ट्रंप ने इसके विरोध में भारतीय उत्पादों पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगा रखा है. दो देशों के बीच संबंधों में टैरिफ आर्थिक-कूटनीतिक सूचकांक है, जिसे एकपक्षीय नहीं होना चाहिए. अमेरिका का भारत पर 50 फीसदी टैरिफ लगाना एक तरह की दंडात्मक कार्रवाई है.
ट्रंप के इस ‘टैरिफ वार’ के कई ऐतिहासिक और कूटनीतिक संदर्भ हैं. ट्रंप अपने संपूर्ण व्यवहार में सनकी होने का प्रदर्शन करते हैं. उनकी यह सनक मानसिक न होकर वैचारिक है. अपने व्यवहार में वह पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी तो हैं ही, एक राष्ट्राध्यक्ष के रूप में भी वह साम्राज्यवादी व्यवहार करते हैं. अमेरिका आरंभ से ही चाहता था कि भारत अमेरिकी हितों के लिए उसकी परछाई की तरह चले. आजादी के बाद ही भारत को अमेरिकी साम्राज्यवाद के अनुकूल ढालने की कोशिश हुई. लेकिन भारत ने अमेरिकी परछाई बनने के बजाय अपनी स्वतंत्र अस्मिता पर ज्यादा ध्यान दिया.
भारत ने अर्थव्यवस्था को पूंजीवादी सांचे में ढालने के बजाय लोककल्याणकारी, सार्वजानिक उपक्रमों के सांचों में ढाल दिया. इसने कूटनीतिक रूप से गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व किया और अपने वैचारिक सहयोगी के रूप में यह तत्कालीन सोवियत संघ के करीब गया. लंबे समय तक साम्राज्यवादी दंश झेलने वाले देश के लिए यही उचित रास्ता हो सकता था.
जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ था, तब भी अमेरिका ने भारत के विरुद्ध कूटनीतिक पहल की. बांग्लादेश के युद्ध के समय तो अमेरिका ने सीधे तौर पर भारत पर सैन्य हमले का दबाव बनाया, लेकिन भारत उसके सामने नहीं झुका. उस दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरुद्ध अपमानजनक बयान दिये. उस दौर में हेनरी किसिंजर ने भारत के विरुद्ध कूटनीति करते हुए पाकिस्तान से चीन की गुप्त यात्रा की और बाद में अमेरिका तथा चीन के बीच राजनीतिक संबंध बना. कहा जाता है कि उसी घटना के बाद अगस्त, 1971 में भारत ने सोवियत संघ के साथ मित्रता की संधि की.
जब भारत ने अपनी परमाणु क्षमता विकसित करने की कोशिश की, तब भी अमेरिका ने अड़ंगा लगाया. पोखरण में परमाणु परीक्षण के बाद भारत पर अमेरिका ने कई कठोर प्रतिबंध लगाये. अगर अमेरिका की इन नीतियों को देखा जाये, तो उसकी मंशा भारत को अमेरिकी हितों के अनुकूल ढालने और उसका अनुचर बनाने की रही है. इसे पोखरण में परमाणु परीक्षण के दौरान डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के कथन से समझा जा सकता है. परमाणु परीक्षण की सफलता से उत्साहित और भावुक होते हुए डॉ कलाम ने परमाणु ऊर्जा आयोग के प्रमुख आर चिदंबरम से कहा था कि अब एक अरब वाले हमारे देश को कोई नहीं कह सकता कि उसे क्या करना है. अब हम तय करेंगे कि क्या करना है. भारत न केवल अपनी स्वतंत्र अस्मिता का हिमायती रहा है, बल्कि उसने हमेशा उत्पीड़ित राष्ट्रों का समर्थन किया है.
सोवियत संघ के विघटन के बाद नये कूटनीतिक-आर्थिक स्रोतों की खोज में भारत नव उदारवादी नीतियों (अमेरिकी वैश्वीकरण) की ओर गया. लेकिन भारत ने अपनी स्वायत्त कूटनीतिक छवि बचाये रखने की कोशिश की. भारत क्षेत्रीय संगठनों द्वारा बड़ी शक्तियों के बरक्स अपनी कूटनीति मजबूत करने में लगा रहा. इसी क्रम में ब्रिक्स के गठन और उसमें भारत की भूमिका ने अमेरिका के लिए बेचैनी पैदा कर दी. इस वर्ष हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के बाद ट्रंप ने ब्रिक्स के सदस्य देशों पर टैरिफ लगाने की चेतावनी दी. उन्होंने सीधे तौर पर कहा कि ‘अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व’ को कम करने के इरादों को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा. ‘अमेरिकी डॉलर के प्रभुत्व’ के लिए ट्रंप का तिलमिलाना ही उनके साम्राज्यवादी चरित्र का संकेत है.
विकासशील देश सहित कई देश चाहते हैं कि विश्व व्यापार के लिए कोई ऐसी मौद्रिक नीति तय हो, जो किसी देश की मुद्रा पर आधारित न हो. डॉलर का प्रभुत्व अमेरिका को कई ऐसी शक्तियां देता है, जिससे किसी देश पर कठोर प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं. इस साल के ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के घोषणापत्र में आम सहमति पर आधारित बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली पर बल देते हुए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन में सुधार की बात कही गयी. यह विचार विश्व व्यापार में विकासशील देशों के हितों पर आधारित है और किसी भी एकपक्षीय नियंत्रण को अस्वीकार करता है.
यह विचार अमेरिका की आंख की किरकिरी बन गया. कूटनीतिक-आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ एवं ट्राई कांटीनेंटल इंस्टिट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के कार्यकारी निदेशक विजय प्रसाद का कहना है कि विश्व की बैंकिंग एवं व्यापारिक संस्थाएं अमेरिका की निगरानी में काम करती हैं. अगर कोई देश अमेरिका को नाराज कर देता है, तो वह उस पर प्रतिबंध लगा देता है और ये तमाम एजेंसियां उस देश की सरकार का गला घोंट सकती हैं. उसे वे कर्ज देना रोक सकती हैं और उसके उत्पादों के क्रय-विक्रय का भुगतान रोक सकती हैं. जब यूनान पर यूरोपीय यूनियन और अमेरिका ने वित्तीय दबाव डाला था, तब उसके वित्त मंत्री ने तंज कसते हुए कहा था कि आज के दौर में तख्तापलट जरूरी नहीं कि टैंकों से ही हो, अब कभी-कभी वे बैंकों से भी होते हैं. वित्तीय एकाधिकार के विरुद्ध ब्रिक्स के घोषणापत्र में भले ही किसी देश का नाम नहीं लिया गया हो, लेकिन उसका संकेत स्पष्ट है. ट्रंप का भारत पर टैरिफ का बोझ डालना व्यक्तिगत तुनकमिजाजी का परिणाम नहीं है.
भले ही वह भारत के प्रधानमंत्री के साथ दोस्ती का राग अलापते रहें, उनकी बुनियादी सत्ता संरचना ही विश्व व्यवस्था में एकाधिकार कायम रखने की है. इस भूलभुलैया में रहना जोखिम भरा है. भारत को ऐतिहासिक, समसामयिक और दीर्घकालीन वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए विदेश नीति तय करनी चाहिए. ट्रंप के व्यापारिक सलाहकार पीटर नवारो और अमेरिका के वित्त मंत्री हार्वर्ड लुटनिक लगातार भारत पर हमलावर हैं और कह रहे हैं कि ब्रिक्स का हिस्सा बनना बंद करो, अमेरिका और डॉलर का साथ दो, वरना टैरिफ का सामना करो. भारत और ग्लोबल साउथ के देशों को ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन जैसी संस्थाओं द्वारा अपनी कूटनीतिक-आर्थिक स्वायत्तता की रक्षा करनी चाहिए. साम्राज्यवादी एकाधिकारी मंशाओं को वैचारिक रूप से समझे बिना विकासशील देशों की आत्मनिर्भरता की राह कठिन है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

