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डॉ अनुज लुगुन

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Jharkhand Election : झारखंडी अस्मिता को मिली जीत, पढ़ें अनुज लुगुन का खास आलेख

झारखंड लंबे समय तक औपनिवेशिक वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष करता रहा है. अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध सबसे पहले बगावत करने वाले झारखंडी लोग ही थे. यह आजादी के बाद भी जारी रही, जो स्वतंत्र झारखंड राज्य के आंदोलन के रूप में सामने आयी.

झारखंड : इतिहास से वर्तमान तक

Jharkhand News : एनइ होरो का विश्लेषण यह था कि पुराने समय में झारखंडी समाज आत्मनिर्भर समाज था. इस समाज के पास अन्न एवं कपड़े के उत्पादन के साथ बुनियादी जरूरतें पूरी करने की व्यवस्था और क्षमता थी. झारखंड का अपना बाजार था.

सांस्कृतिक विविधताओं के वाहक हैं आदिवासी

यह इतिहास और संस्कृति की एकांगी धारा के विपरीत उस उपेक्षित और विस्मृत धारा का स्मरण कराता है, जिसमें मनुष्यता और सभ्यता के उच्च गुण मौजूद हैं. जो बताता है कि मनुष्यता का सूचक भिन्न भाषा, संस्कृति, जीवनशैली, ज्ञान परंपरा और विश्व दृष्टि को स्वीकार करना है.

गांव का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अध्ययन

किसी गांव का नाम सुनने पर स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि उसका नाम कैसे पड़ा होगा. अमूमन हम इन प्रश्नों को नजरअंदाज कर देते हैं. लेकिन जब हम ऐसा करते हैं तो क्या उस स्थान से जुड़े ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संदर्भों को विस्मृति की खाई में नहीं धकेल देते हैं

महामारी व मजदूरों की बदहाली

हम जहां हैं, जिस रूप में हैं, वहीं से सामाजिक जिम्मेदारी निभा सकते हैं, इसके साथ सामाजिक सुरक्षा का सवाल भी बना रहे, ताकि भविष्य में कोई आपदा मनुष्यता को नष्ट न कर सके.

वापस लौटे मजदूरों को रोजगार

अब जबकि सरकार ने अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने की घोषणा की है, ‘लोकल को वोकल’ करने की बात हो रही है, तो ऐसे में मनरेगा जैसे और कार्यक्रमों की जरूरत होगी.

ग्रामसभा से ही आत्मनिर्भरता

आत्मनिर्भरता की राह में दो बड़ी चुनौतियां हैं. पहली श्रेष्ठता बोध की ग्रंथि. दूसरी, बहुराष्ट्रीय पूंजी का दखल. ये दोनों एक-दूसरे से जुड़ी हैं और औपनिवेशिक मानसिकता की सूचक हैं.

रोजगार सृजन की आवश्यकता

सबके लिए सरकारी नौकरी की व्यवस्था करना संभव नहीं है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा सरकारी नौकरियों की व्यवस्था की जा सकती है. गैर-सरकारी क्षेत्रों की नौकरियों में सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है.

निजीकरण एकमात्र विकल्प नहीं है

विश्व बैंक जैसी संस्थाओं ने भी यह माना कि आर्थिक प्रवाह में विस्तार के साथ ही आर्थिक गैर-बराबरी भी बढ़ी है. हम जिन उदारवादी सिद्धांतों पर चलकर निजीकरण को अपनाते जा रहे हैं, अपने सामाजिक संदर्भों में उनका परीक्षण बेहद जरूरी है.
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