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बस्तर की त्रासदी के सबक

बस्तर में लगातार हो रही हिंसा को नीतिगत स्तर पर ही हल किया जा सकता है. आदिवासियों को पूर्वाग्रह से नक्सली मान कर निर्णय लेने की नीति कारगर साबित नहीं हो सकती है.

अप्रैल के पहले सप्ताह में सर्च ऑपरेशन के लिए गये सुरक्षा बलों पर माओवादियों ने हमला किया था, जिसमें 22 जवान शहीद हुए थे. यह बस्तर की पहली घटना नहीं थी. पिछले दो दशकों से बस्तर संभाग हिंसा से ग्रस्त है. बस्तर में सेना की तैनाती देश की सीमा पर तैनाती से कम नहीं है. कोरोना की भयावह त्रासदी में भी वहां मुठभेड़ और हिंसा की घटनाएं हो रही हैं.

इसी साल 17 मई को सुकमा जिले के सिलंगेर गांव में सीआरपीएफ कैंप का विरोध कर रहे निहत्थे प्रदर्शनकारी आदिवासियों पर पुलिस ने गोली चलायी, जिसमें तीन आदिवासी मारे गये. कुछ दिन बाद गोलीबारी के दौरान भगदड़ में घायल एक गर्भवती आदिवासी महिला की भी मौत हो गयी.

अब तक उस क्षेत्र में पुलिस-प्रशासन और आदिवासी जनता के बीच तनाव बना हुआ है. बस्तर के आदिवासी अपने हक के लिए गोलबंद होते रहे हैं, लेकिन इस बार पहले से ज्यादा मुखर हैं. सिलंगेर घटना के विरोध में 15000-20000 की संख्या में आदिवासी लगातार सभाएं कर रहे हैं. आदिवासी गांव से सीआरपीएफ कैंप को हटाने की मांग पर अड़े हैं.

बस्तर में सीआरपीएफ कैंप के प्रति आदिवासी समाज की नाराजगी बहुत ज्यादा है. उनका आरोप है कि कैंप लगने से आदिवासियों का जनजीवन प्रभावित होता है. जंगलों में निर्बाध आवाजाही पर रोक लगती है, क्योंकि पुलिस वाले नक्सली के नाम पर उनसे मारपीट करते हैं. प्रशासन आश्वासन दे रहा है कि यह कैंप उनके विकास के लिए है. जब तक कैंप नहीं बनेगा, तब तक वहां न सड़क बन सकती है और न ही कोई प्रशासनिक काम संभव होगा, क्योंकि माओवादी इन कार्यों में बाधा पहुंचाते हैं, लेकिन आदिवासियों का कहना है कि हमें विकास चाहिए, स्कूल, अस्पताल और आंगनबाड़ी चाहिए, लेकिन पुलिस कैंप नहीं चाहिए.

आदिवासी संविधान की पांचवीं अनुसूची और पेसा अधिनियम-1996 का हवाला देकर कह रहे हैं कि उनकी जमीन पर ग्रामसभा की अनुमति के बिना कैसे कोई कैंप लगाया जा रहा है? इस बीच उच्च अधिकारियों और आदिवासियों के बीच बैठक भी हुई. बैठक में आदिवासियों ने तीन मृतकों को दिये गये मुआवजे की रकम 30,000 रुपये को यह कहते हुए लौटा दिया कि उनकी जान की कीमत इतनी कम नहीं है.

इससे आदिवासियों के गुस्से को समझा जा सकता है. सिलंगेर में जिस जगह गोलीबारी हुई थी, वहां आदिवासियों ने शहीद स्मारक बना दिया है. सवाल है कि पुलिस और आदिवासी क्यों आमने-सामने हैं? वर्तमान में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है. जब भाजपा की सरकार थी, तब कांग्रेस आदिवासियों के उत्पीड़न का आरोप सरकार पर लगाती थी. कांग्रेस ने चुनाव में इसे अपने मुख्य एजेंडे में भी शामिल किया था.

अब कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद आदिवासियों में तीखा असंतोष है, क्योंकि कांग्रेस ने अब तक ऐसी कोई नीति पेश नहीं की है, जिससे आदिवासियों के प्रति संवेदना प्रकट हो. सिलंगेर की घटना का वीडियो उपलब्ध है, जिसमें हजारों की संख्या में मौजूद आदिवासी कह रहे हैं कि उनकी आंखों के सामने निहत्थे लोगों को गोली मारी गयी है. इसके बावजूद सरकार ने दंडाधिकारी स्तर पर जो जांच समिति गठित की, उसमें पुलिस की गोली से आदिवासियों की मौत का उल्लेख तक नहीं है.

मारे गये आदिवासियों को बिना किसी जांच के नक्सली कहा गया. जब विरोध बढ़ा, तो उनके लिए मुआवजे की घोषणा की गयी. सरकार वहां बेला भाटिया एवं ज्यां द्रेज जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं को आदिवासियों से मिलने पर रोक लगाती रही. विरोध होने पर उन्हें अनुमति दी गयी. सिलंगेर मामले में भूपेश सरकार का रवैया निराशाजनक है.

बस्तर में लगातार हो रही हिंसा को नीतिगत स्तर पर ही हल किया जा सकता है. आदिवासियों को पूर्वाग्रह से नक्सली मान कर निर्णय लेने की नीति कारगर साबित नहीं हो सकती है. विरोध-प्रदर्शन कर रहे आदिवासी संविधान की पांचवीं अनुसूची एवं पेसा अधिनियम-1996 लागू करने की मांग कर रहे हैं. आदिवासियों के सवाल वाजिब हैं. वे कह रहे हैं कि उपर्युक्त दोनों संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार किसी भी योजना एवं परियोजना के लिए ग्रामसभाओं से अनुमोदन अनिवार्य है.

इसके बावजूद ग्रामसभाओं से क्यों नहीं विचार-विमर्श किया जाता है? दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि अनुसूचित क्षेत्रों का संवैधानिक अधिकार राज्यपाल को सौंपा गया है, लेकिन इस संबंध में कभी भी उनकी ओर से कोई ठोस पहल देखने को नहीं मिली है. सिलंगेर हिंसा पर भी आदिवासी समाज ने राज्यपाल को आवेदन देकर मामले में हस्तक्षेप की मांग की है.

आक्रोश एवं असंतोष के बावजूद वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही अपना रहे हैं, इसका स्वागत किया जाना चाहिए. इससे गंभीरता से समझने की जरूरत है कि अगर सरकार अपनी कमजोरी को छुपाने के लिए आदिवासी अधिकारों का दमन करती है, तो उनके असंतोष को माओवादियों के पाले में जाने से नहीं रोका जा सकता है. ऐसा पहले भी हो चुका है.

विश्लेषकों का मानना है कि माओवादी आंदोलन के उन्मूलन के नाम पर शुरू हुआ शासन प्रयोजित ‘सलवा जुडूम’ आंदोलन की हिंसा से आदिवासियों में जो असंतोष उभरा था, उसने माओवाद को और मजबूत किया. बस्तर में हो रही हिंसा के नीचे आदिवासियों के संवैधानिक अधिकार दफन हैं. जरूरी है कि उनकी लोकतांत्रिक मांगों को सुना जाए. घटना की उच्च स्तरीय न्यायिक जांच हो और दोषियों को सजा मिले. आदिवासी समाज को आश्वस्त किया जाए कि उनकी गरिमा का अपहरण कोई भी संस्था नहीं कर सकती है.

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