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रोजगार सृजन की आवश्यकता

सबके लिए सरकारी नौकरी की व्यवस्था करना संभव नहीं है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा सरकारी नौकरियों की व्यवस्था की जा सकती है. गैर-सरकारी क्षेत्रों की नौकरियों में सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकती है.

डॉ अनुज लुगुन, सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया

anujlugun@cub.ac.in

नौ सितंबर को बेरोजगार युवाओं ने बेरोजगारी और निजीकरण के खिलाफ ‘नौ बजे, नौ मिनट’ का सांकेतिक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया था. यह विरोध प्रदर्शन सोशल मीडिया पर भी ट्रेंड कर रहा था. इसके बाद 17 सितंबर को युवाओं ने ‘राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस’ मनाकर न केवल सोशल मीडिया में बहस छेड़ दी है, बल्कि राजनीतिक गलियारों में भी इसकी चर्चा होने लगी है.

इसमें संदेह नहीं कि कोरोना महामारी के कारण देश की अर्थव्यवस्था में ऐतिहासिक गिरावट आयी है. लेकिन, इससे भी इंकार नहीं है कि कोरोना के पहले से ही अर्थव्यवस्था ढलान पर थी और उसे संभाला नहीं गया. अर्थव्यवस्था के गिरने का सीधा असर सामाजिक जीवन पर पड़ता है. कोई भी क्षेत्र या समूह इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता. ऐसे में युवाओं और रोजगार सृजन का प्रभावित होना स्वाभाविक है.

क्या कोरोना महामारी के कारण ही बेरोजगारी बढ़ी है? कोरोना काल के पहले के आंकड़े बताते हैं कि बेरोजगारी का प्रतिशत लगातार बढ़ा है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, दुनियाभर में बेरोजगारी दरों में वृद्धि हुई है. खासकर, दक्षिण एशिया में बड़े पैमाने पर रोजगार दरों में गिरावट आयी है.

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2019 तक 72 प्रतिशत लोगों के रोजगार पर खतरा मंडरा रहा है. देश के युवा इस खतरे को महसूस कर रहे थे, लेकिन तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों ने इसे नजरअंदाज किया. 2019 के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में रोजगार के मुद्दे को कितना महत्व मिला था, यह सब जानते हैं.

हम उन प्रायोजित मीडिया बहसों से भी परिचित हैं, जिनमें सांप्रदायिक और कथित देशभक्ति के शोरगुल के अलावा शायद ही जनता के सरोकार की बातें शामिल थीं. जाहिर है, युवाओं के मुद्दों पर संवेदनशीलता नहीं बरती गयी. नौकरी का सृजन करनेवाले सेक्टर का निजीकरण तेजी से जारी था. कोरोना महामारी भले ही सरकार के लिए ‘एक्ट ऑफ गॉड’ हो, युवाओं के भविष्य के लिए खतरा बन गयी है.

रोजगार के लिए अर्थव्यवस्था का मजबूत होना जरूरी है. लेकिन, बाजार पर टिका रोजगार सामाजिक सुरक्षा नहीं दे सकता. देश में उदारीकरण के बाद अर्थव्यवस्था संभलती हुई दिखी. वैश्वीकरण की प्रक्रियाओं से जुड़ने से रोजगार के नये अवसर मिले, लेकिन ये टिकाऊ नहीं हो सके. जिस विदेशी निवेश के सहारे अर्थव्यवस्था को संभालने और रोजगार सृजन की नीतियों को अपनाया गया था, उसका अलग ही परिणाम दिखने लगा.

उदारीकरण की नीतियों से निजीकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया जाने लगा और सार्वजनिक क्षेत्र के जो उपक्रम बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन करते थे, उनकी भागीदारी कम होने लगी. इससे रोजगार सृजन में कमी आने लगी. इन नीतियों ने न केवल विदेशी पूंजी का आयात किया, बल्कि देशी पूंजीपतियों का वैश्विक चरित्र भी निर्मित किया. इसने पूंजी के संकेंद्रण को बढ़ावा दिया.

पिछले दशकों से दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में अनेक भारतीय पूंजीपतियों का नाम भी शामिल हो रहा है. कोरोना काल में भी अमीरों की सूची में इनकी रैंकिंग बढ़ी है. लेकिन, इसी अनुपात में रोजगार की दरें भी तेजी से घटी हैं. निजी हाथों में पूंजी के संकेंद्रण ने राज्य के हाथों से रोजगार सृजन की क्षमता छीन ली.

सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले रेलवे जैसे सेक्टर में भी नियुक्तियां लगभग ठप होने लगीं. उदारीकरण की नीतियों ने रोजगार की प्रकृति को भी बदल दिया. पहले जहां रोजगार का अर्थ सामाजिक सुरक्षा थी, वह विचार ही खत्म हो गया. नौकरियों में स्थायित्व की जगह संविदा और ठेके की व्यवस्था कर दी गयी. धीरे-धीरे शिक्षा, चिकित्सा और पुलिस जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में भी स्थायी नौकरियां खत्म होती गयीं और उसकी जगह अस्थायी नौकरी की व्यवस्था शुरू हो गयी.

जैसे पारा शिक्षक, शिक्षा मित्र, स्वास्थ्य मित्र, सहायक पुलिस, जल सहिया आदि. ऐसी नौकरियों में वेतन, भत्ते, एवं अन्य सुविधाओं में भारी कटौती की गयी. इन कर्मियों द्वारा सुविधाओं की मांग किये जाने पर, इन पर लाठीचार्ज किये गये. इस प्रकार श्रम कानूनों को कमजोर कर श्रमिक होने की गरिमा को ठेस पहुंचाना, बेहद दुखद है. केंद्र हो या राज्य दोनों जगह एक जैसी ही स्थिति है.

निःसंदेह, युवाओं के लिए यह स्थिति त्रासदपूर्ण है.सरकारों के झूठे आश्वासन ने युवाओं को दुखी किया है. रोजगार के लिए आवेदन मांगना, फिर आवेदन रद्द करना, परीक्षा तिथि व रिजल्ट का इंतजार और अंत में कोर्ट में मामला लटक जाना, ये सारी प्रक्रियाएं कितनी यंत्रणादायी हैं, इसे शायद ही कोई मनोचिकित्सक बता पायेगा. सरकार को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए.

रोजगार का राष्ट्रीय कैलेंडर होना चाहिए और स्वरोजगार के लिए स्पष्ट खाका बनाना चाहिए. स्वरोजगार की सरल और पारदर्शी नीतियों द्वारा युवाओं को विभिन्न क्षेत्रों में उनकी क्षमता व अभिरुचि के अनुसार काम उपलब्ध कराया जा सकता है.

राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस का ट्रेंड युवाओं के बढ़ते असंतोष को ही प्रदर्शित नहीं करता, यह युवाओं के भविष्य से जुड़े जरूरी प्रश्नों पर बहस की मांग भी करता है. जिनके प्रति हमारा समाज और हमारी राजनीति लगातार असंवेदनशील होती जा रही है.

posted by : sameer oraon

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