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निजीकरण एकमात्र विकल्प नहीं है

विश्व बैंक जैसी संस्थाओं ने भी यह माना कि आर्थिक प्रवाह में विस्तार के साथ ही आर्थिक गैर-बराबरी भी बढ़ी है. हम जिन उदारवादी सिद्धांतों पर चलकर निजीकरण को अपनाते जा रहे हैं, अपने सामाजिक संदर्भों में उनका परीक्षण बेहद जरूरी है.

इंदिरा गांधी ने 1969 में जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, तब उनके सामने देश के सुदूरवर्ती जनता को सरकार की योजनाओं से जोड़ने की चुनौती थी. सरकार का मानना था कि वाणिज्यिक बैंक सामाजिक उत्थान के कार्यों में योगदान नहीं कर रहे हैं. ये उन्हीं क्षेत्रों में निवेश कर रहे हैं, जहां अधिक मुनाफा है. उस वक्त 14 बड़े बैंकों के पास 70 फीसदी पूंजी जमा थी. बैंक कर्ज में कंपनियों की ज्यादा भागीदारी थी. कृषि और लघु-कुटीर उद्योगों को ऋण की उपलब्धता कम थी. सुदूरवर्ती क्षेत्रों में निजी बैंकों की शाखाओं का विस्तार नहीं था.

इंदिरा गांधी ने जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया, तो उन पर आरोप लगे कि वह ‘गरीबों का मसीहा’ बन रही हैं. मोरारजी देसाई ने वित्तमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. विश्लेषक इसे राजनीतिक फायदे के लिए उठाया गया कदम मानते हैं. बहरहाल, बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने देश के अंदर आर्थिक संरचना का विस्तार किया. इससे सुदूरवर्ती क्षेत्रों में बैंकों की शाखाएं खुलीं.

हरित क्रांति योजना को बैंकों के राष्ट्रीयकरण का बहुत बड़ा लाभ मिला. आज फिर से बैंकों के निजीकरण की बात उठ गयी है. वर्तमान में उन्हीं बैंकों की शाखाएं राष्ट्रीयकरण के दौर से दस गुना से ज्यादा तक बढ़ चुकी हैं. सरकार की योजनाओं को आधार देने का काम सरकारी बैंक ही कर रहे हैं. प्रधानमंत्री जन-धन योजना, मनरेगा, महिलाओं एवं वंचितों के सशक्तीकरण की योजनाओं के लिए सरकारी बैंक ही विश्वसनीय माध्यम बने हुए हैं.

बैंकों के राष्ट्रीयकरण ने न केवल बैंकिंग प्रणाली में संचयित हो रही पूंजी का विकेंद्रीकरण किया, बल्कि इसने रोजगार की नयी संभावनाओं को भी जन्म दिया. बैंकिंग क्षेत्र में रोजगार के खूब मौके बने. संविधान प्रदत्त सामाजिक न्याय को लागू करने में बैंकों ने बड़ी भूमिका निभायी. आरक्षण द्वारा सभी वर्गों की भागीदारी बढ़ी. महिलाओं के सशक्तीकरण योजनाओं को प्राथमिकता मिली. वेतन, पेंशन, मनरेगा मजदूरों का भुगतान आदि का सशक्त माध्यम सरकारी बैंक ही हैं. बैंकों के निजीकरण से सामाजिकता पर खतरे के भी सवाल उठ रहे हैं.

निजी उपक्रम मुनाफा केंद्रित होते हैं. अभी शिक्षा, स्वास्थ्य, रेल, विमानन, बैंक आदि को निजी क्षेत्रों में सौंपने की तैयारी हो गयी है. तमाम असुविधाओं के बावजूद सरकारी क्षेत्र के स्कूल, अस्पताल, बैंक आदि सुदूरवर्ती जनता को सेवाएं प्रदान करते आये हैं. निजी क्षेत्र जनता की गाढ़ी कमाई के दोहन के गढ़ बन जाते हैं.

ये अपने मुनाफे का आंकड़ा देख कर सेवाओं का विस्तार करते हैं, दूसरा, इनके यहां कार्यरत कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा निश्चित नहीं होती है. काम के घंटे, वेतन एवं भत्ते आदि मामलों में निजी क्षेत्रों की संवेदनहीनता जाहिर है. कोई भी ऐसी निजी संस्था नहीं है, जिसका शिक्षा, स्वास्थ्य और बैंकिंग क्षेत्र में वृहद स्तर पर विस्तार हो. छोटे शहरों तक में इनकी पहुंच नहीं है तो कस्बों, गांवों और जंगलों की बात तो दूर है.

सरकारी बैंकों के सामने एनपीए की गंभीर समस्या है. लेकिन क्या इसकी वजह कर्ज के लेन-देन में खुद सरकारी निगरानी की कमी नहींं है? क्या इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप से इनकार किया जा सकता है? देश में उदारीकरण के बाद उभरे निजी बैंकों ने सरकारी बैंकों के लिए नयी प्रतिस्पर्धा का माहौल जरूर तैयार किया. लेकिन वे एकमात्र विकल्प बनकर नहीं आये थे. विनिवेश में जिस तरह से निजीकरण को विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है वह चिंताजनक है.

लोकतांत्रिक समाज के लिए राजनीतिक पारदर्शिता जरूरी है. निजी स्वार्थ और संकीर्ण राजनीतिक निहितार्थ जनता के भविष्य को दांव पर लगा देते हैं. सार्वजनिक उपक्रम अंततः जनहित के उद्देश्य से काम करते हैं. निजी उपक्रमों की वकालत करनेवाले भी सार्वजनिक उपक्रमों के सामाजिक योगदान को स्वीकार करते हैं. हमें अपनी संस्थाओं को केवल सामाजिक दायित्व से हीन मुनाफे के रूप में नहीं देखना चाहिए.

बाजार में उतार-चढ़ाव से केवल सरकारी उपक्रम प्रभावित नहीं होते हैं बल्कि निजी उपक्रम भी प्रभावित होते हैं. निजी उपक्रम और निजी बैंक भी दिवालिया होते हैं. इंदिरा गांधी के बैंकों के राष्ट्रीयकरण की एक वजह यह भी थी कि उस वक्त कई बैंक डूब गये थे. पिछले वर्षों में बैंकिंग सहित कई अन्य क्षेत्र की कंपनियां डूबी हैं.

बाजार स्वभावतः जोखिमों के अधीन होता है लेकिन हमें यह भी देखना है कि उन जोखिमों से जनता को सुरक्षा दिलाने की सरकारी जिम्मेदारी क्या है? सार्वजानिक क्षेत्रों के विनिवेश और निजीकरण की प्रक्रिया नव-उदारवाद के साथ ही दुनियाभर में तेजी से बढ़ी. नब्बे के दशक की शुरुआत में विचारकों ने मान लिया था कि नव-उदारवादी व्यवस्था का अब कोई विकल्प नहीं है.

सोवियत संघ के विघटन के उस दौर में अमेरिकी विचारक फ्रांसिस फुकोयामा की ‘इतिहास के अंत’ की अवधारणा की खूब धूम मची. लेकिन डेढ़ दशक के अंतराल में ही उन्हें उदारवाद की जटिलताएं दिखने लगी थीं. विश्व बैंक जैसी संस्थाओं ने भी यह माना कि आर्थिक प्रवाह में विस्तार के साथ ही आर्थिक गैर-बराबरी भी बढ़ी है. हम जिन उदारवादी सिद्धांतों पर चलकर निजीकरण को अपनाते जा रहे हैं, अपने सामाजिक संदर्भों में उनका परीक्षण बेहद जरूरी है.

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