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सुखदेव को कालेपानी से बेहतर लगती थी शहादत

भगत सिंह व सुखदेव दोनों मानते थे कि हमारे शासकों, विशेषकर अंग्रेज जाति, की हमारे प्रति भावनाओं में कोई आश्चर्यजनक हितकारी परिवर्तन होना लगभग असंभव है

वर्ष 1907 में 15 मई को तत्कालीन पंजाब प्रांत के लुधियाना में एक पंजाबी खत्री परिवार में जन्मे सुखदेव थापर ने 23 मार्च, 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल में भगत सिंह व राजगुरु के साथ हंसते-हंसते शहादत पायी थी. उन तीनों का साझा ‘कुसूर’ था- कुख्यात साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे लाला लाजपत राय पर गोरों की पुलिस द्वारा बरसाई गयी लाठियों का बदला लेने के लिए लाहौर के अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जेम्स स्कॉट की हत्या की ‘साजिश’ रचना और धोखे में सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन सांडर्स को मार डालना.

उनके द्वारा एक साथ अपने प्राणों से देश प्रेम का मोल चुकाने के बाद कई दशकों तक राजगुरु समेत उन तीनों को उनके शहादत दिवस पर वैसे ही साथ-साथ याद किया जाता रहा, जैसे शहादत के वक्त उन्होंने एक सुर में गाया था- ‘दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वफा आयेगी.’ परंतु बाद में यह सिलसिला टूट गया. सुखदेव और राजगुरु लगभग बिसरा दिये गये और 23 मार्च केवल भगत सिंह के नाम होकर रह गया. नि:संदेह, इसके लिए हमारी नायक पूजा की वह प्रवृत्ति जिम्मेदार है, जिसमें एक के बाद दूसरे की ही जगह नहीं होती और यहां तो ये तीन थे. तिस पर सामाजिक कृतघ्नता की विडंबना यह कि बाकी दोनों को उनकी जयंतियों पर याद करने की परंपरा भी मजबूत नहीं हो पायी. हालांकि उनकी शहादतें कतई उपेक्षणीय नहीं थीं. बहरहाल, आज सुखदेव की जयंती के अवसर पर उनकी ही बात करें, तो भगत सिंह और सुखदेव के जीवन में उनकी शहादत के अलावा भी बहुत कुछ साझा था. मसलन, उन्होंने देश को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से क्रांतिकर्म का एक जैसा रास्ता चुना और एक साथ लड़ते हुए शहादत पायी. दोनों 1907 में पंजाब में पैदा हुए. दोनों बचपन से ही आजादी का सपना पाले हुए थे और दोनों ने लाहौर नेशनल कालेज से पढ़ाई-लिखाई की थी.

वर्ष 1928 में आठ सितंबर को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी की स्थापना कर चंद्रशेखर आजाद को उसका कमांडर-इन-चीफ बनाया गया, तो सुखदेव उसकी सेंट्रल कमेटी के सदस्य और पंजाब के संगठन प्रमुख नियुक्त किये गये थे. अनंतर, वे छबील दास और सोहन सिंह जोश आदि के संपर्क में आये, तो मार्क्सवाद की ओर झुके और पंजाब के छात्रों व युवाओं को ‘नौजवान भारत सभा’ के बैनर तले मजदूरों व किसानों के बीच काम करने के लिए प्रेरित करने लगे. जानना दिलचस्प है कि भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु पर सांडर्स की हत्या का मुकदमा चल रहा था तो सुखदेव को कालापानी, यानी लंबे जेल जीवन से फांसी बेहतर लगती थी. इसलिए एक समय उनको ‘अंदेशा’ हुआ कि हो न हो, उन सबकी फांसियां काले पानी में बदल दी जाएं और त्रासद काला पानी उन्हें बेदम करके रख दे, तो उन्होंने अलग जेल में बंद भगत सिंह को लिखा कि काला पानी भुगतते हुए ‘मरने’ से बेहतर होगा कि आत्महत्या कर लें.

इस पर भगत सिंह ने उन्हें सावधान करते हुए लिखा कि ‘आत्महत्या एक घृणित अपराध है…पूर्ण कायरता का कार्य…, कोई भी मनुष्य ऐसे कार्य को उचित नहीं ठहरा सकता. आपत्तियों से बचने के लिए आत्महत्या कर लेने से जनता का मार्गदर्शन नहीं होगा, वरना यह एक प्रतिक्रियावादी कार्य होगा… हां, अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के प्रयत्नों में मृत्यु के लिए तैयार रहना और श्रेष्ठ व उत्कृष्ट आदर्श के लिए जीवन दे देना कतई आत्महत्या नहीं है. संघर्ष में मरना एक आदर्श मृत्यु है.’ अनंतर, उन्होंने सुखदेव को समझाया कि ‘यदि आपने पकड़े जाते समय ही आत्महत्या कर ली होती, तो क्रांतिकर्म की बहुत बड़ी सेवा की होती, परंतु इस समय इस पर विचार करना भी हमारे लिए हानिकारक है…’

भगत सिंह व सुखदेव दोनों मानते थे कि हमारे शासकों, विशेषकर अंग्रेज जाति, की हमारे प्रति भावनाओं में कोई आश्चर्यजनक हितकारी परिवर्तन होना लगभग असंभव है, क्योंकि इस प्रकार का कोई परिवर्तन ऐसी क्रांति के बिना संभव ही नहीं है, जो केवल सतत कार्य करते रहने से, प्रयत्नों से, कष्ट सहन करने से एवं बलिदानों से ही उत्पन्न की जा सकती है. और वे दृढ़ संकल्प थे कि ऐसी क्रांति उत्पन्न करके रहेंगे. भगत सिंह और सुखदेव के बीच समानताएं थीं, तो मतभेद व असहमतियां भी थीं. भगत सिंह उनकी इस बात को नहीं मानते थे कि लंबा जेल जीवन पस्त या निर्जीव करके रख देता है. उनका तर्क था कि ‘केवल जेलें ही अपराध और पाप जैसे सामाजिक विषयों का स्वाध्याय करने का सबसे उपयुक्त स्थान हैं. स्वाध्याय का सर्वश्रेष्ठ भाग है स्वयं कष्टों को सहना.’
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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