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सामाजिक सुधार समय की मांग

जब भी कोई परिवर्तनकारी घटना घटती है तो उसमें युवा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और मोहन भागवत का यह कथन भी एक परिवर्तनकारी प्रवृत्ति की सूचना है तथा युवा इसका अनुसरण करेंगे.

हाल ही में एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि शास्त्रों में हिंदू धर्म में जाति के उच्च या निम्न होने की कोई अवधारणा नहीं है. मोहन भागवत का यह वक्तव्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पहले के सरसंघचालकों के विचार के अनुरूप ही है, उससे भिन्न नहीं. मोहन भागवत ने जो कुछ भी कहा है, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चिंतन परंपरा में है और वह हिंदू चिंतन का भी हिस्सा है.

यहां इस बात को जानना भी महत्वपूर्ण है कि विचार के क्षेत्र में पहले से ही दो तरह की अवधारणाएं काम करती रही हैं. दरअसल चिंतन की दो ही धाराएं भी हैं. एक यहूदी धारा है, जिससे क्रिश्चियनिटी और इस्लाम निकले हैं. और एक हिंदू धारा है जिससे हिंदू, फिर बौद्ध, सिख, जैन और जरथ्रुष्टवाद निकले हैं. दोनों ही चिंतन धाराओं में एक बुनियादी फर्क है. जहां यहूदी परंपरा में शैतान और भगवान की कल्पना है, वहीं हमारी परंपरा में ऐसा नहीं है. हिंदू चिंतन में द्वंद्व हमेशा बना रहता है और जीवन में परस्पर विपरीत तत्व भी काम करते रहते हैं.

आइंस्टीन से लेकर फ्रॉयड तक की बात करें, यानी विज्ञान व मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुई नयी खोजों की बात करें, तो उनसे भी यही साबित हुआ है कि जो हिंदू चिंतन परंपरा है वह ज्यादा वैज्ञानिक और सही है. उस दृष्टि से भी अगर देखें, तो वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था के बारे में मोहन भागवत ने जो कुछ भी कहा है, वह पहले भी संघ के दूसरे सरसंघचालक कहते रहे हैं.

गुरु गोलवलकर तथा संघ के सभी सरसंघचालक इस बात को कहते रहे हैं कि जाति व्यवस्था के आधार पर समाज को बांटने का काम अंग्रेजों और दूसरे शासकों ने किया. इसी कारण समाजवादियों ने भी जाति तोड़ो का आंदोलन चलाया. पर यह भी सत्य है कि समाजवादी जहां एक तरफ जाति तोड़ो का आंदोलन चलाते थे, वहीं दूसरी तरफ हर नेता जाति का सहारा भी लेता था.

जबकि इसके ठीक विपरीत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जाति व्यवस्था को अपनी आंतरिक संरचना में कोई स्थान ही नहीं दिया है. इसके कई उदाहरण हैं. एक उदाहरण तो महात्मा गांधी का ही है. गांधीजी जब संघ के शिविर में गये, तो उस समय वे हरिजन उद्धार के प्रयास में लगे हुए थे और उस समय वही उनका सबसे बड़ा काम भी था और लक्ष्य भी था.

उनकी यह जानने में उत्सुकता थी कि संघ के शिविर में कितने हरिजन हैं. पर वहां तो जाति के आधार पर कोई रजिस्ट्रेशन था ही नहीं, सो उनको अलग से इसके बारे में पूछना पड़ा. उनके पूछने पर संघ के संस्थापक ने बताया कि संघ में जाति के आधार पर स्वयंसेवकों का वर्गीकरण नहीं किया जाता है.

तो मोहन भागवत ने समारोह में जो भी कुछ कहा है, वह दरअसल संघ की आंतरिक संरचना की ही अभिव्यक्ति है कि चाहे वर्णाश्रम की व्यवस्था हो या उससे निकली हुई यह जाति व्यवस्था, दोनों ही मनुष्य निर्मित व्यवस्था हैं. यानी ये ईश्वरीय व्यवस्था नहीं हैं. वे ऐसी व्यवस्था नहीं हैं जिसे बदला नहीं जा सकता है. सुधार नहीं किया जा सकता है. ये सारी जो सामाजिक व्यवस्थाएं हैं, उन्हें समय के अनुरूप सुधारा जाता है, उनमें बदलाव किया जाता है, समय का जैसा तकाजा होता है उसके अनुसार काम किया जाता है.

मेरा मानना है कि मोहन भागवत आजकल एक ऐसे राष्ट्रीय पुरुष के रूप में हैं जो दरअसल स्टेट्समैन की भाषा में बोल रहे हैं. यानी, वे न तो शासन की भाषा में बोल रहे हैं, न ही सत्ता की भाषा में बोल रहे हैं. देश, समाज और दुनिया के हित में जो बातें हैं, बस उसी के बारे में ही वे बोल रहे हैं. और समारोह में दिया गया उनका यह वक्तव्य भी स्वागतयोग्य है.

मोहन भागवत संभवत: पहले सरसंघचालक हैं जिनके वक्तव्य में कोई अंतर्विरोध नहीं होता है और उनके बोलने पर किसी तरह का कोई विवाद भी खड़ा नहीं होता है जैसा आम तौर पर पहले लोग खड़ा कर देते थे. इस प्रकार वे एक निर्विवाद, सामाजिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय पुरुष के रूप में उभर रहे हैं या कह सकते हैं कि स्थापित हो रहे हैं.

मेरी समझ से जाति व्यवस्था के संबंध में उन्होंने इस समय जो बातें कही हैं, वह समय की आवश्यकता है. इसी तरह से हिंदू-मुस्लिम के संबंधों के बारे में भी उन्होंने एक बात कही है, जो मेरे हिसाब से बहुत सराहनीय वक्तव्य है.

मुझे यह लगता है कि इस बारे में भी उन्होंने जो कुछ भी कहा है, आज हिंदू समाज में जिस सुधार की जरूरत महसूस हो रही है, उसी को ध्यान में रखकर बोला है और इसके लिए उन्होंने सत्य को आधार बनाया है. तो दोनों बातें सत्य हैं. ऐसा नहीं है कि वे कोई विचार गढ़ रहे हैं, या बना रहे हैं. कहा जा सकता है कि मोहन भागवत ने जो कहा है वह सनातन सत्य पर आधारित है. भागवत के वक्तव्य के बारे में मेरा यही मानना है.

इस बयान के आलोक में समाज से अपेक्षा की बात करें, तो पहली बात यह है कि भागवत एक ऐसे संगठन या संस्था के प्रधान हैं, जो लगातार विस्तार पा रहा है और दो वर्ष बाद सौ साल का भी होने जा रहा है. यानी 98 वर्ष पुरानी संस्था के वे अध्यक्ष, यानी सरसंघचालक हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक ऐसी संस्था है जिसके इतने लंबे समय तक बने रहने, सक्रिय रहने और विस्तार पाने के बावजूद उसमें कोई टूटन-फूटन नहीं हुई है. नहीं तो हम जानते हैं कि संस्थाएं बनती तो हैं, पर बनने के कुछ वर्षों बाद ही कई टुकड़ों में बंट जाती हैं.

एक बात और, मोहन भागवत के बोलने के दो प्रभाव होंगे. पहला, संघ के स्वयंसेवकों को उनके द्वारा कही गयी बातों का संदेश गांव-गांव, घर-घर पहुंचाने की प्रेरणा मिलेगी और समाज में उसके अनुसरण का एक भाव पैदा होगा. उसका कारण यह है कि कांग्रेस जब एक बहुत व्यापक संस्था थी तब भी वह हर गांव में मौजूद नहीं थी. हर गांव तक नहीं पहुंची थी. हालांकि अभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी देश के साढ़े छह लाख गांवों में नहीं पहुंच पायी है.

लेकिन अधिकतर गांवों में उसकी पहुंच हो गयी है. तो इस संदेश पर पूरे भारत की छोटी-बड़ी आबादी में चर्चा होगी और लोग उसका अनुसरण करेंगे. यह उसका सामाजिक संदेश भी है और सामाजिक प्रभाव भी है. मैं मानता हूं कि जब भी कोई परिवर्तनकारी घटना घटती है तो उसमें युवा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और मोहन भागवत का यह कथन भी एक परिवर्तनकारी प्रवृत्ति की सूचना है तथा युवा इसका अनुसरण करेंगे. युवाओं से हमारी अपेक्षा यही है कि वे इसे स्वयं भी अपनाएं और दूसरों को भी इसका अर्थ समझाएं. (बातचीत पर आधारित.)

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