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ऑनलाइन अश्लीलता के खिलाफ

Ranveer Allahbadia controversy: अदालत ने कहा है कि कॉमेडी ऐसी होनी चाहिए, जिसे पूरा परिवार साथ बैठकर देख सके. पीठ ने रणवीर इलाहाबादिया को गुवाहाटी और मुंबई में उसके खिलाफ दर्ज मुकदमे में गिरफ्तारी से संरक्षण देने के अंतरिम आदेश को भी बढ़ा दिया और उससे जांच में सहयोग करने के लिए कहा.

Ranveer Allahbadia controversy : यूट्यूबर और पॉडकास्टर रणवीर इलाहाबादिया मामले में सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने रणवीर को जहां कुछ शर्तों के साथ राहत दी है, वहीं सरकार से ऑनलाइन अश्लीलता के खिलाफ कानून बनाने के लिए कहकर जता दिया है कि इसे यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता. सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने रणवीर को शो टेलीकास्ट करने की इजाजत तो दी ही, पर उससे सभी आयु वर्गों के उपयुक्त शो बनाने के लिए शपथपत्र देने के लिए भी कहा.

अदालत ने कहा है कि कॉमेडी ऐसी होनी चाहिए, जिसे पूरा परिवार साथ बैठकर देख सके. पीठ ने रणवीर इलाहाबादिया को गुवाहाटी और मुंबई में उसके खिलाफ दर्ज मुकदमे में गिरफ्तारी से संरक्षण देने के अंतरिम आदेश को भी बढ़ा दिया और उससे जांच में सहयोग करने के लिए कहा. जबकि इससे पहले 18 फरवरी के अपने फैसले में शीर्ष अदालत ने रणवीर पर दर्ज एफआइआर में गिरफ्तारी से अंतरिम राहत के लिए कोई भी शो प्रसारित न करने की शर्त लगायी थी.

रणवीर मामले में फैसला देने के साथ-साथ अदालत ने ऑनलाइन मंच को विनियमित करने की जो जरूरत बतायी, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है. उसने साफ शब्दों में कहा है कि ऑनलाइन मंच को बेकाबू नहीं छोड़ा जा सकता. लेकिन इसके नियम सेंसरशिप लागू करने वाले भी नहीं होने चाहिए, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत निर्धारित मूलभूत अधिकारों की सीमाओं के भीतर होने चाहिए. उसने सरकार से इस मामले पर विचार करने तथा, सभी हितधारकों को शामिल कर इसे सार्वजनिक करने और इस पर चर्चा करने की बात कही है.

कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के एक दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मामले में पुलिस को जिस तरह नसीहत दी है, उसे भी इससे जोड़कर देखे जाने की जरूरत है. कांग्रेस सांसद ने अहिंसा को बढ़ावा देने वाली एक कविता इंस्टाग्राम पर पोस्ट की थी, जिस पर गुजरात पुलिस ने कथित तौर पर भड़काऊ गीत साझा करने के आरोप में सांसद के खिलाफ एफआइआर दर्ज की थी. कांग्रेस सांसद ने अपने खिलाफ दर्ज एफआइआर रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिस पर फैसला सुरक्षित रखते हुए अदालत ने टिप्पणी की कि संविधान लागू होने के 75 साल बाद तो पुलिस को बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के मतलब को समझना चाहिए. दोनों मामले में शीर्ष अदालत की टिप्पणियां नागरिकों और पुलिस प्रशासन से जिम्मेदार होने की मांग करती हैं.

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