-डॉ सौरभ, एसोसिएट प्रोफेसर साउथ एशियन स्टडीज, जेएनयू-
Nepal : सोमवार को भारी हिंसा और लगभग बीस मौतों के बाद नेपाल की सरकार ने सोशल मीडिया पर लगाया गया प्रतिबंध हटा लिया था, लेकिन अगले दिन नेपाली संसद में प्रदर्शनकारियों के घुसने, आग लगाने, मंत्री पर हमला करने और अंतत: प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल के इस्तीफा देने से साफ है कि नेपाल एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता के चंगुल में फंस गया है.
इससे एक दिन पहले भी प्रदर्शनकारियों ने संसद परिसर जैसे प्रतिबंधित क्षेत्रों में घुसपैठ की थी और पोखरा, बिराटनगर, बुटवल और चितवन जैसे शहरों में हिंसा फैल गयी थी. हिंसा को देखते हुए विभिन्न हिस्सों में कर्फ्यू लगाया गया और सेना तैनात की गयी थी. लेकिन आंदोलन के हिंसक और अराजक होने के बाद सरकार की तरफ से की गयी तमाम कवायदें नाकाफी साबित हुईं.
युवा दरअसल ओली सरकार द्वारा फेसबुक, यूट्यूब, एक्स, व्हाट्सएप सहित दो दर्जन से अधिक सोशल मीडिया एप्स पर लगाये गये प्रतिबंध के खिलाफ सड़कों पर उतरे थे. राष्ट्रीय ध्वज के साथ सड़कों पर उतर कर ‘भ्रष्टाचार बंद करो, सोशल मीडिया नहीं’, ‘सोशल मीडिया पर प्रतिबंध हटाओ’, और ‘युवा भ्रष्टाचार के खिलाफ’ जैसे नारों से स्पष्ट है कि कई कारणों से युवा सरकार से पहले से ही नाराज थे, और सोशल मीडिया पर प्रतिबंध ने उनके गुस्से को और भड़का दिया. फिर सोमवार को ओली सरकार ने प्रदर्शनकारियों पर जिस तरह गोली चलायी, उसके बाद सरकार के हाथ से स्थिति निकल गयी.
प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों के घरों तक को निशाना बनाया. कहा तो यह भी जा रहा है कि कुछ मंत्रियों के इस्तीफे देने के बाद सेनाध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को भी इस्तीफा देने की सलाह दी, जो ओली के अलग-थलग पड़ जाने के बारे में ही बताता है. नेपाल के युवा दरअसल सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी क्षुब्ध थे. लेकिन सोशल मीडिया पर प्रतिबंध ने देश में व्यापक हिंसक स्थिति उत्पन्न की. जब वैश्विक अर्थव्यवस्था और सूचनातंत्र डिजिटल हो चुका है, तब सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने का ओली सरकार का प्रतिगामी कदम लाखों लोगों को समाचार, मनोरंजन और व्यवसाय से वंचित करना था.
प्रधानमंत्री ओली ने सोशल मीडिया पर प्रतिबंध का बचाव राष्ट्रीय संप्रभुता के मुद्दे के रूप में किया था, जबकि उनके आलोचकों का तर्क था कि सरकार द्वारा हिंसा का प्रदर्शन युवाओं की असहमति को चुप कराने का अलोकतांत्रिक प्रयास था. आंकड़े बताते हैं कि नेपाल की करीब 90 प्रतिशत आबादी इंटरनेट का उपयोग करती है और अकेले फेसबुक के वहां करीब 1.35 करोड़ उपयोगकर्ता हैं, जबकि इंस्टाग्राम के 36 लाख उपयोगकर्ता हैं.
नेपाल के छात्रों का विरोध भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और आर्थिक असमानता के खिलाफ व्यापक निराशा से भी प्रेरित था, जो कि टिकटॉक और रेडिट पर ‘नेपो किड’ ट्रेंड द्वारा बढ़ी थी, जो एक तरफ राजनेताओं के बच्चों की शानदार जीवनशैली को उजागर करती है, वहीं कर्मठ युवाओं के सामने बेरोजगारी और अनिश्चित भविष्य के बारे में बताती है.
ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, नेपाल वैश्विक भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक, 2024 में एक स्थान गिरकर 126वें स्थान पर आ गया है. भ्रष्टाचार, क्रोनी कैपिटलिज्म और शोषणकारी राजनीति ने नेपाल के बड़े जनसमुदाय को निराश किया है. खराब शासन, राजनीतिक अस्थिरता और नेताओं की पद लोलुपता से नेपाल के युवा क्षुब्ध थे. नेपाल में छात्रों के विरोध प्रदर्शन और बांग्लादेश तथा श्रीलंका में हुए विरोधों में कई समानताएं रहीं, जो युवाओं की सरकार से नाखुशी, प्रणालीगत शिकायतें, और सुधार की मांगों जैसे महत्वपूर्ण विषयों से संबंधित हैं.
पिछले साल अगस्त में बांग्लादेश में छात्रों का हिंसक विरोध प्रदर्शन अंतत: प्रधानमंत्री शेख हसीना के इस्तीफे और निर्वासन में परिणत हुआ. उससे पहले 2022 में, श्रीलंकाई छात्रों ने गंभीर आर्थिक संकट के बीच ‘अरागलया’ संघर्ष आंदोलन की अगुवाई की, जिसका परिणाम तत्कालीन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के देश छोड़ने और प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के इस्तीफे के रूप में सामने आया था. दोनों ही देशों में आंदोलनकारी छात्रों ने सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा किया, मीडिया ब्रीफिंग का आयोजन किया, और कर्फ्यू और सैन्य कार्रवाई के बावजूद दबाव बनाये रखा.
वैश्वीकरण के इस युग में डिजिटल मीडिया ने चुनी हुई सरकारों के समक्ष ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी है, जिसमें सरकारें जनप्रदर्शन के जरिये हटायी जाने लगी हैं. इससे सरकारों पर पारदर्शिता और जवाबदेही का दबाव कहीं ज्यादा बढ़ गया है. गौर करने की बात है कि दक्षिण एशिया में छात्रों के प्रदर्शन सरकार के विशिष्ट नीति निर्णयों, जैसे कि नेपाल में सोशल मीडिया पर प्रतिबंध, बांग्लादेश में नौकरी कोटा की पुनर्स्थापना और श्रीलंका में आर्थिक संकट से शुरू हुए थे, लेकिन वे तेजी से व्याप्त भ्रष्टाचार, अवसरों की कमी और सरकारी अतिक्रमण के खिलाफ व्यापक आंदोलनों में बदल गये.
इन तमाम मामलों में प्रारंभ में शांतिपूर्ण प्रदर्शन सरकारी दमन के कारण बढ़ गये, जिसमें घातक बल, कर्फ्यू, और असहमति को दबाने के प्रयास शामिल थे, जिसने जनता की नाराजगी और बढ़ा दी. इसके अलावा आंदोलनकारी छात्रों ने एक-दूसरे से जुड़ने, शिकायतें साझा करने और सार्वजनिक समर्थन प्राप्त करने के लिए सोशल मीडिया का व्यापक उपयोग किया. आज के छात्र आंदोलन पहले से कहीं अधिक डिजिटल रूप से अंतर्संबंधी और वैश्विक रूप से जुड़े हुए हैं. एक्स, इंस्टाग्राम और टिकटॉक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म विरोध प्रदर्शन आयोजित करने, वास्तविक समय में अपडेट साझा करने तथा सार्वजनिक राय को आकार देने का माध्यम बन गये हैं.
प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली के इस्तीफे के बाद नेपाल जिस तरह राजनीतिक अस्थिरता की ओर बढ़ रहा है, उसे देखते हुए पड़ोसी भारत में चिंता बढ़ गयी है और सशस्त्र सीमा बल ने नेपाल के साथ 1,751 किमी की खुली सीमा पर सतर्कता बढ़ा दी है. यह खुली सीमा दोनों देशों के नागरिकों को अवरोध रहित आवाजाही की अनुमति देती है. लेकिन जब नेपाल में राजनीतिक अशांति या विरोध होता है, तब भारत में भी सीमाओं पर उच्च सुरक्षा की जरूरत होती है, क्योंकि यह अशांति खासकर सीमाई शहरों में व्यापार को प्रभावित कर सकती है. यहां याद किया जा सकता है कि 2015 के मधेसी आंदोलन से न सिर्फ भारत से नेपाल जाने वाले आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति रुकी थी, बल्कि वह ईंधन की कमी का कारण बना, जिससे दोनों देशों के संबंधों पर भी असर पड़ा. जाहिर है, नेपाल में जारी हिंसा के मद्देनजर भारत को सतर्क रुख अपनाने की आवश्यकता है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

