जनक सुता जानकी की जब भी चर्चा होती है, ‘रामचरितमानस’ की ये पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं- ‘पलंग पीठ तजि गोद हिंडोरा/ सियं न दीन्ह पगु अवनि कठोरा/ जिअनमूरि जिमि जोगवत रहउं/ दीप बाति नहिं टारन कहऊं.’ वन गमन के ठीक पहले राम आशीर्वचन के लिए माताओं के पास जा रहे हैं… कौशल्या की आंखों के कोर भीगे हैं. इसलिए नहीं कि उनका प्रिय पुत्र वन जा रहा है, बल्कि उनकी प्यारी बहू जानकी भी वनगमन पथ का पाथेय बनने जा रही है. यह प्रसंग उसी दुलारी सीता को लेकर है, जिसमें कौशल्या राम से कहती हैं- सीता ने पलंग, गोद और हिंडोले को छोड़कर कभी कठोर पृथ्वी पर पैर नहीं रखा है. मैं संजीवनी जड़ी की तरह सदा इसकी रखवाली करती रही हूं. यहां तक कि इसे दीया की बत्ती तक हटाने को नहीं कहा है. ऐसी सीता वन गमन की राह पर हैं. कौशल्या को चिंता इस बात की है कि इतनी सुकुमार जानकी धरती की कठोरता, उसकी ठंड-गर्म तासीर को कैसे बर्दाश्त करेंगी.
सास-बहू के संबंधों की जब भी चर्चा होती है, कलह का बिंब हमारे मन में सहज ही बन जाता है. कलह सास-बहू रिश्ते का स्थायी भाव बन चुका है. ऐसे में अपनी बहू के बारे में सास कौशल्या के ये वचन आदर्श भाव हैं. राम का समूचा जीवन आदर्श ही है. मैथिलीशरण गुप्त अपनी रचना ‘यशोधरा’ में कहते हैं- ‘राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है/ कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है.’ राम का चरित्र मनुष्यत्व का चरम है. उनका जीवन नरत्व का दीपोमय तेज स्तंभ है. इसी दीप स्तंभ का सहज और सहयोगी चरित्र सीता हैं. विवाह के बाद हर समय राम के साथ दिखती हैं. चाहतीं तो वह अयोध्या के मणिमय राजमहल में सुखपूर्वक रह सकती थीं, परंतु पति के साथ कंटकाकीर्ण राह पर चलना चुना. चाहतीं तो जनकपुर के अपने पिता के राजभवन जा सकती थीं, पर उन्हें यह सुख गवारा नहीं था. ‘कवितावली’ में गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं- ‘पुर तें निकसी रघुबीर-वधू, धरि धीर दए मग में डग द्वैं/ झलकीं भरि भाल कनी जल की, पट सूखि गए मधुराधर वै/ फिर बुझति हैं, चलनो अब केतिक, पर्नकुटी करिहौं कित ह्वै/ तिय की लखि आतुरता पिय की अंखियां अति चारु चलीं जल च्वै.’ अयोध्या से राम, सीता और लक्ष्मण निकल चुके हैं. शृंगवेरपुर से आगे की उनकी यात्रा शुरू हो रही है. राम, लक्ष्मण और सीता धीरज के साथ शृंगवेरपुर से दो कदम ही चलते हैं कि सीता के माथे पर पसीने की बूंदें झलकने लगतीं हैं, उनके सुंदर और सुकुमार होंठ थकान के कारण सूख जाते हैं. सीता राम से पूछती हैं, अभी उन लोगों को और कितनी दूर चलना है? कितनी दूर बाद पत्तों की कुटी बनाकर वे रहेंगे? अंतर्यामी राम, सीता की व्याकुलता का कारण समझ जाते हैं. थक चुकीं सीता अब विश्राम चाहती हैं. राजमहल की रहवासी की ऐसी दशा देख राम के सुंदर नेत्रों से आंसू टपकने लगते हैं.
पर क्या सीता सचमुच इतनी सुकुमार हैं. सीता यदि इतनी सुकुमार होतीं, तो बालपन में शिवजी के पिनाक धनुष को खिलौने की तरह कैसे उठा लेतीं. उस धनुष को, जिसे बड़े-बड़े महाबली हिला नहीं पाये थे. ऐसे संदर्भों को देखें, तो जानकी के चरित्र के भी कई आयाम दिखते हैं. सीता का एक और रूप दिखता है, अतीव मेधा, धैर्य और शौर्य की धनी सीता का. राम पुरुष हैं, तो सहज संभाव्य है कि सीता प्रकृति हैं. राम आराध्य हैं, तो सीता भक्ति हैं. वह अध्यात्म की भी प्रतीक हैं. उनकी भक्ति की शक्ति नहीं होती, तो क्या वह प्रतापी और मायावी रावण के सामने टिक पातीं. सीता की भक्ति की शक्ति ही है कि रावण की खोज में, उससे लड़ाई के समय, हर पल वे अपने कर्तव्य पथ पर टिके रहते हैं और उन तक पराक्रम के दम पर अपनी पहुंच बना लेते हैं. सीता और राम प्रकृति के अनन्य प्रेमी हैं. सीता का हरण हो चुका है, राम और लक्ष्मण वन-वन भटकते हुए उन्हें ढूंढ रहे हैं. राह में दिखने वाले पेड़-पौधों, पशुओं, पक्षियों और कीटों तक से सीता का हाल पूछते चल रहे हैं- ‘हे खग मृग, हे मधुकर श्रेनी/ देखि तुम सीता मृगनयनी.’ पक्षी, भंवरा, हिरण, जंगल किसका ध्यान रखेंगे. वे उसी का ध्यान रखेंगे जो उनके सुख-दुख का भागी होगा. सीता उनकी सुख-दुख की भागीदार हैं, उनकी परवाह करती हैं. राम को यह पता है. इसलिए वे बार-बार उनसे पूछते चलते हैं.
मिथिला में जो रामलीला होती है, उसमें किशोरी और युवा जानकी के प्रकृति प्रेम को गहराई से दिखाया जाता है. मिथिला में प्रकृति प्रेमी सीता किशोरी जी हैं. मिथिला की किशोरी जी का प्रकृति प्रेम उनके उछाह और आशावादी भावी जीवन का प्रतीक है, परंतु अयोध्या की बहू सीता का प्रकृति प्रेम कंटकाकीर्ण राहों का प्रतीक है. इसलिए मिथिला अपनी किशोरी जी को दिल से याद करता है. परंतु कंटकाकीर्ण पथ की पाथेय अयोध्या की बहू सीता के दर्द को याद करने से बचता है. जानकी को जब भी इन संदर्भों में देखते हैं, तो उनके कई रूप प्रकट होते हैं. जानकी या सीता हाड़-मांस की देह वाली आम नारी नहीं हैं, प्रकृति और अध्यात्म के गहन मेल का दिव्य प्रतीक हैं. जानकी वह संयोग बिंदु हैं, जहां अध्यात्म और प्रकृति आपस में गहराई से जुड़ जाते हैं. जिन्हें पूर्णता मिलती है राम से, प्रकृति के पुरुष राम से. (ये लेखक के निजी विचार हैं)