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अनूठे राजनेता थे चंद्रशेखर

चंद्रशेखर के बारे में कहा जाता है कि सत्ता में वह भले ही बहुत थोड़े समय के लिए रहे, पर देश की राजनीति को उन्होंने आधी शताब्दी तक प्रभावित किया.

कृष्ण प्रताप सिंह, वरिष्ठ पत्रकार

kp_faizabad@yahoo.com

स्वर्गीय चंद्रशेखर, जिनकी आज पुण्यतिथि है, भारत के समाजवादी आंदोलन से निकली इकलौती ऐसी शख्सियत हैं, जिसे देश के प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, लेकिन उनका महत्व इससे ज्यादा उस लंबी राजनीतिक यात्रा में है, जिसमें स्थितियों के अनुकूल न रह जाने पर सीमाओं में बंधते जाने के बावजूद समाजवादी विचारधारा से वे एक पल के लिए भी अलग नहीं हुए. किसी ने क्या खूब कहा है कि वे जीवनभर अपनी ही हथेलियों पर कांटे चुभो-चुभो कर गुलाब उकेरते रहे, ताकि रक्त बहे, तो भी गुलाब महके. चंद्रशेखर समाजवाद के मनीषी आचार्य नरेंद्र देव के शिष्य थे और छात्र जीवन में ही समाजवादी आंदोलन से जुड़ गये थे. राजनीति में उनकी पारी सोशलिस्ट पार्टी से शुरू हुई और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी व प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के रास्ते कांग्रेस, जनता पार्टी, जनता दल, समाजवादी जनता दल और समाजवादी जनता पार्टी तक पहुंच कर खत्म हुई.

एक वक्त कांग्रेस की कथित समाजवादी नीतियों से प्रभावित होकर उन्होंने अशोक मेहता के साथ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी छोड़ दी, तो समाजवादी हलकों में उनकी तीखी आलोचना हुई. चिढ़ाने के अंदाज में उनसे पूछा जाने लगा कि वे कांग्रेस में रह कर कैसा समाजवाद ले आयेंगे? इस पर उन्होंने चिढ़ कर कहा कि उनके रहते कांग्रेस समाजवादी नीतियों पर चलेगी, नहीं तो टूट जायेगी. आगे चल कर समय ने उनकी इस भविष्यवाणी को सही सिद्ध कर दिखाया. युवा तुर्क के रूप में उन्होंने 1971 में इंदिरा गांधी के विरोध के बावजूद कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यसमिति का चुनाव लड़ा और जीते भी. 1974 में भी उन्होंने श्रीमती गांधी की ‘अधीनता’ अस्वीकार कर जेपी आंदोलन का समर्थन किया. उन्होंने कांग्रेस में रहते हुए आपातकाल के विरोध में आवाज उठायी और अनेक उत्पीड़न सहे. 1977 में वह जनता पार्टी के अध्यक्ष बने, तो सत्ता की राजनीति से अलग रह कर कश्मीर से कन्या कुमारी तक की बहुचर्चित भारत यात्रा की.

किसी भारतीय नेता द्वारा की गयी यह सबसे बड़ी पदयात्रा है. जनता पार्टी की विफलता के बाद इंदिरा गांधी फिर सत्ता में लौटीं और उन्होंने स्वर्ण मंदिर पर सैन्य कार्रवाई की, तो चंद्रशेखर उन गिने-चुने नेताओं में से एक थे, जिन्होंने उसका पुरजोर विरोध किया. 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की जनता दल सरकार के पतन के बाद अत्यंत विषम राजनीतिक परिस्थितियों में वह कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने, पर जल्दी ही इस्तीफा देना पड़ा. इतने विषम पथ का राही होने के बावजूद उन्होंने कभी राजनीतिक रिश्ते इस आधार पर नहीं बनाये कि कौन कितनी दूर तक उनके साथ चला. वह सिर्फ 1984 में एक चुनाव हारे. भूमंडलीकरण के रास्ते आयी गैरबराबरी और बेरोजगारी बढ़ाने वाली जिन आर्थिक नीतियों का कुफल हम आज भोग रहे हैं, उनके बारे में भी उन्होंने समय रहते चेता दिया था.

उनका सुविचारित और स्पष्ट मत था कि यह देश जब भी मजबूत होगा, अपने आंतरिक संसाधनों से ही होगा. स्वदेशी और स्वावलंबन यानी आत्मनिर्भरता की भावना को प्रश्रय देने के लिए उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वदेशी जागरण मंच द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों में जाने से भी गुरेज नहीं किया. उन्होंने कई मौकों पर गलत समझे जाने और अलोकप्रिय होने के खतरे उठाये. राजनीतिक छुआछूत के तो वह प्रबलतम विरोधी थे. कहते थे कि हममें से किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह बेवजह दूसरे की देशभक्ति पर शक करता घूमे.

पीएम के रूप में उन्होंने उस कठिन दौर में भी, जब देश का सोना गिरवी रखने की नौबत सामने थी, भूमंडलीकरण की नीतियों के सामने एकतरफा आत्मसमर्पण नहीं किया. उन्होंने नरसिम्हा राव सरकार की आर्थिक नीतियों का जबर्दस्त विरोध किया और जनजागरण अभियान चलाया. इतिहास गवाह है, चंद्रशेखर ने अपने छोटे से प्रधानमंत्रित्वकाल में कई जटिल मसलों को उनके सर्वमान्य समाधान के करीब पहुंचा दिया था. दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें बहुत कम समय मिला.

उनके अंतिम दिनों में देश की राजनीति ऐसे मुकाम पर जा पहुंची थी, जहां उनके पास खोने-पाने को कुछ नहीं रह गया था. उन हालात में चंद्रशेखर नये सिरे से प्रासंगिक हो उठे और उनकी स्थिति अजातशत्रु जैसी हो गयी. तब कोई राजनीतिक पार्टी ऐसी नहीं थी, जिसमें उनके मित्र न रहे हों और उन्हें उनके दिशानिर्देश की जरूरत न पड़ती हो. वह तब भी अपने नैतिक प्रभाव से उन्हें आईना दिखाया करते थे. उनके बारे में कहा जाता है कि सत्ता में वह भले ही बहुत थोड़े समय के लिए रहे, पर देश की राजनीति को उन्होंने आधी शताब्दी तक प्रभावित किया. उन्होंने कहा था कि देश के नेता अलोकप्रियता का खतरा उठा कर जनता को सच्चा नेतृत्व नहीं देना चाहते.

अपने जिंदा रहते उन्होंने अपने किसी पुत्र या पाल्य का राजनीतिक रास्ता हमवार नहीं किया. एक बार उनके बेटे ने पूछा कि वे उसे क्या देकर जा रहे हैं? इस पर उन्होंने अपने एक सुरक्षाकर्मी को बुला कर उससे उसके पिता का नाम पूछा. उसने बताया, तो बेटे से पूछा कि तुम इनके पिता जी को जानते हो? बेटे ने कहा नहीं, तो बोले- मैं तुमको यही देकर जा रहा हूं कि जब तुम किसी को अपने पिता का नाम बताओगे, तो वह यह नहीं कहेगा, जो तुमने इनके पिता के बारे में कहा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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