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जाति जनगणना विकास के लिए जरूरी

Caste census : वर्ष 1990 के बाद से भारतीय राजनीति ओबीसी वर्ग के इर्द-गिर्द विमर्श केंद्रित होने लगी और इसी के साथ जातिगत जनगणना की मांग भी बलवती होती गयी. हालांकि जब कर्पूरी ठाकुर दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तब भी कालेलकर आयोग की सिफारिशें लागू करने के साथ-साथ जातिगत जनगणना की मांग उठी थी, परंतु तब वह आवाज इतनी मुखर नहीं थी कि राष्ट्रीय राजनीति में सुनी जा सके.

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-पंकज चौरसिया
Caste Census : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली राजनीतिक मामलों की कैबिनेट समिति ने जातिगत जनगणना को मंजूरी दे दी है. यह समाजवादी नेताओं की कई दशकों पुरानी मांग थी, जिसे अब सरकार ने स्वीकार कर लिया है. हालांकि, इस मांग में भाजपा के कई वरिष्ठ ओबीसी नेता भी शामिल रहे हैं, जिनमें प्रमुख नाम गोपीनाथ मुंडे का है. उत्तर भारत में कोटा-पॉलिटिक्स की शुरुआत जननायक कर्पूरी ठाकुर ने की थी, जिसे बाद में कमजोर करने के उद्देश्य से बी बी मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया था. बाद में बी बी मंडल कांग्रेस में शामिल हो गये. मंडल आयोग ने जाति आधारित डाटा के अभाव का उल्लेख किया था, और इसी प्रकार कालेलकर आयोग ने भी डाटा की अनुपलब्धता के कारणों की चर्चा की थी.

वर्ष 1990 के बाद से भारतीय राजनीति ओबीसी वर्ग के इर्द-गिर्द विमर्श केंद्रित होने लगी और इसी के साथ जातिगत जनगणना की मांग भी बलवती होती गयी. हालांकि जब कर्पूरी ठाकुर दूसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे, तब भी कालेलकर आयोग की सिफारिशें लागू करने के साथ-साथ जातिगत जनगणना की मांग उठी थी, परंतु तब वह आवाज इतनी मुखर नहीं थी कि राष्ट्रीय राजनीति में सुनी जा सके.


वर्ष 2006 में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने जब शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू किया, तब जातिगत आधार पर जनसंख्या आंकड़ों को अकादमिक स्तर पर मान्यता मिलनी शुरू हुई, क्योंकि शैक्षणिक संस्थाओं में ओबीसी छात्रों का प्रवेश होने लगा था. हमारे समाज में जाति न केवल राजनीतिक गठबंधनों के निर्माण में, बल्कि मतदाताओं की जातिगत लामबंदी और नीतिगत प्राथमिकताओं के निर्धारण में भी गहरी भूमिका निभाती है. लगभग सभी राज्य अपनी जातीय संरचना को ध्यान में रखते हुए चुनावी रणनीतियां और नीतियां बनाते हैं, ताकि विभिन्न जातियों को आरक्षण की परिधि में समाहित कर, उनके वोटों का ध्रुवीकरण अपने पक्ष या विपक्ष में सुनिश्चित कर सकें.

पिछले तीन दशकों में यह प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आयी है कि सामाजिक न्याय की राजनीति ने भारतीय राजनीति की दिशा और प्रकृति, दोनों को प्रभावित किया है. तथापि, इस प्रक्रिया ने एक जटिल चुनौती को भी जन्म दिया है, जहां प्रतिनिधित्व की राजनीति सीमित होकर कुछ चुनिंदा जातियों और वर्गों तक सिमट गयी है. इसके परिणामस्वरूप, बड़ी संख्या में अदृश्य अतिपिछड़ी जातियां राजनीतिक विमर्श से बाहर रह गयी हैं और सत्ता तथा संसाधनों में उनकी भागीदारी नगण्य बनी हुई है.

चुनावी राजनीति में ये जातियां लंबे समय से उपेक्षा की शिकार बनी हुई हैं. यद्यपि इन्हें औपचारिक रूप से ओबीसी सूची में स्थान प्राप्त हुआ है, पर व्यावहारिक स्तर पर उन्हें न तो आरक्षण का समुचित लाभ प्राप्त हो रहा है और न ही वे लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व की प्रक्रिया में समुचित भागीदारी हासिल कर पा रही हैं. इस संदर्भ में, रोहिणी आयोग की सिफारिशें तथा ओबीसी वर्ग के भीतर उप-वर्गीकरण की मांग इन अदृश्य अतिपिछड़ी जातियों के बहिष्करण को समाप्त करने की दिशा में एक आवश्यक और न्यायसंगत औचित्य प्रस्तुत करती हैं.


चुनावी प्रणाली में सोशल इंजीनियरिंग के अंतर्गत जातीय समीकरणों को केवल चुनावी लाभ हेतु पुनर्गठित किया जाता है, जबकि सत्ता-संस्थानों में वास्तविक प्रतिनिधित्व का समुचित पुनर्वितरण अधूरा रह जाता है. यह यथार्थ इस ओर संकेत करता है कि राजनीतिक परिवर्तन की सतही परतों के नीचे गहरे सामाजिक असंतुलन आज भी हैं. इन असंतुलनों को केवल जातिगत जनगणना और व्यापक सामाजिक-सांख्यिकीय विश्लेषण के माध्यम से ही उजागर किया जा सकता है. हालांकि यह प्रक्रिया केवल जातियों की गणना तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि प्रत्येक जाति की शैक्षणिक उपलब्धियों, सेवाओं में भागीदारी, शिक्षा तक पहुंच, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, पंचायत स्तर पर उपस्थिति तथा पुलिस-प्रशासन से लेकर न्यायपालिका तक में उनकी स्थिति का समग्र अध्ययन आवश्यक है.

जातिगत आंकड़ों की अनुपस्थिति में अब तक की राजनीति अनुमान, पूर्वाग्रह, और वोट बैंक आधारित सामाजिक इंजीनियरिंग पर निर्भर रही है. किंतु यदि विधिपूर्वक जाति आधारित जनगणना संपन्न होती है, तो यह कुछ समुदायों हेतु आरक्षण की सीमा में संशोधन तथा जातिगत उप-वर्गीकरण की मांग को नयी वैधता प्रदान करेगी. यह प्रक्रिया मंडल आयोग के एकमात्र दलित सदस्य एल आर नाइक की उस ऐतिहासिक टिप्पणी की प्रासंगिकता को पुनर्स्थापित करेगी, जिसमें उन्होंने ओबीसी वर्ग के भीतर के गहरे अंतर्विरोधों की ओर संकेत किया था. यह कर्पूरी ठाकुर के आरक्षण मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्रदान करेगी तथा नीतीश कुमार द्वारा पंचायत स्तर पर अतिपिछड़ा वर्ग को दिये गये आरक्षण के मॉडल को केंद्र सरकार द्वारा अपनाने की आवश्यकता को बलवती बनायेगी.


वर्तमान परिदृश्य में भाजपा और कांग्रेस जैसे प्रमुख राष्ट्रीय दलों को यह स्वीकार करने की दिशा में अग्रसर होना पड़ रहा है कि जाति मात्र सांस्कृतिक पहचान नहीं, एक राजनीतिक श्रेणी भी है, जिसे राजनीतिक संरक्षण की दृष्टि से नहीं, बल्कि संरचनात्मक पुनर्वितरण के संदर्भ में समझे जाने की आवश्यकता है. हालांकि, इन दलों के दृष्टिकोण में आया यह परिवर्तन मुख्यतः राजनीतिक बाध्यताओं, चुनावी गणित, तथा गठबंधन-राजनीति के दबावों का परिणाम है, जो समकालीन राजनीतिक यथार्थ और सामाजिक समीकरणों के अनुरूप है, विशेष रूप से बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में, जहां सामाजिक न्याय की राजनीति की गहरी जड़ें हैं, जातिगत जनगणना एक निर्णायक चुनावी मुद्दे के रूप में उभरकर सामने आयी है.

बिहार में नीतीश कुमार सरकार द्वारा कराये गये जातीय सर्वेक्षण ने इस बहस को और अधिक धार प्रदान की है. इससे यह संकेत मिलता है कि जाति आधारित आंकड़े और उनके विश्लेषण अब केवल सामाजिक अध्ययन की वस्तु नहीं रह गये हैं, बल्कि वे नीति निर्माण, संसाधन आवंटन और राजनीतिक वैधता के निर्धारण में एक केंद्रीय कारक बनते जा रहे हैं. प्रश्न केवल इस बात का नहीं है कि जातिगत आंकड़े एकत्रित किये जायें, बल्कि यह भी है कि क्या राज्य और नागरिक समाज इन आंकड़ों से प्राप्त निष्कर्षों को स्वीकार करने के लिए आवश्यक राजनीतिक साहस और नीतिगत प्रतिबद्धता प्रदर्शित कर पायेंगे. यदि ऐसा होता है, तभी डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा परिकल्पित सामाजिक लोकतंत्र को वास्तव में साकार किया जा सकेगा.
(ये लेखकद्वय के निजी विचार हैं.)

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