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स्वाभिमान जगाने वाले गुरु गोबिंद सिंह

यूं तो भारतवर्ष में वैशाख महीने को नये वर्ष के त्योहार के रूप में मनाया जाता है- फसलें कटती हैं और किसान अपनी कठिन मेहनत के बाद हर्षोल्लास के साथ कुछ विश्राम भी पा लेता है

यूं तो भारतवर्ष में वैशाख महीने को नये वर्ष के त्योहार के रूप में मनाया जाता है- फसलें कटती हैं और किसान अपनी कठिन मेहनत के बाद हर्षोल्लास के साथ कुछ विश्राम भी पा लेता है. इन दिनों प्रकृति भी अपनी भरपूर सुंदरता बिखेरती है. सभी खुशियों के मूड में आ जाते हैं, परंतु सिखों के लिए बैसाखी, खालसा सृजना दिवस के रूप में मनायी जाती है. इसी दिन गुरु गोबिंद सिंह जी ने वर्ष 1699 में खालसा का सृजना किया थी.

उन्होंने दृढ़ संकल्प किया कि ये जो समाज की शक्ति बिखर गयी है, इसे समेटना होगा. लोगों में जनशक्ति का संचार करना होगा. उनके स्वाभिमान को जगाना होगा और उनमें अदम्य उत्साह भर कर गीदड़ों में शेर की शक्ति लानी होगी, उनकी मानसिकता बदलनी होगी, ताकि वे सदैव शक्ति-पुंज बन कर तुर्कों के अत्याचारों से जूझ सकें और उन्हें परास्त कर सकें.

उन्हें अस्त्र-शस्त्र से भी निपुण बनाना होगा, ताकि वे बड़ी-से-बड़ी ताकत से निडरतापूर्वक सामना कर सकें. वे ऐसे लौह पुरुष बन जायें कि उनके सामने तुर्कों का झुंड गीदड़ों की तरह भागे, तभी मेरा नाम गोबिंद सिंह सार्थक होगा. पंथ प्रकाश के रचयिता इसे यूं व्यक्त करते हैं-

‘जिनकी जाति और कुल माहीं. सरदारी नहि भई कदाहीं.

कीटन तै इनको मृगिंदू, करो हरन हित तुरक गजिंदू

इन ही को सरदार बनावों, तबै गोबिंद सिंह नाम सदावों.’

इस परिवेश में गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की सृजना की.

‘इहु बिचार कर सतगुरु पंथ खालसा कीन.

भीरू जातिन के तई अती बड़प्पन दीन.’

उन्होंने सन् 1699 में वैसाखी वाले दिन एक विशाल जन सम्मेलन बुलाया और उसमें स्वयं का बलिदान देने वाली परीक्षा द्वारा पांच व्यक्तियों को चुना. इन पांच व्यक्तियों में एक खत्री, एक जाट, एक धोबी, एक कहार और एक नाई जाति का था. इनमें एक पंजाब, एक पश्चिमी उत्तर प्रदेश, एक गुजरात, एक ओड़िशा और एक कर्नाटक का था. विखंडित भारत को संगठित करने का यह सर्वप्रथम प्रयास था.

अब गुरुजी ने इनका नामकरण ‘पांच प्यारे’ कर दिया और प्रत्येक के नाम के साथ सिंह जोड़ दिया. इनकी सहायता से लोहे के बाटे में, लोहे के खड़े को संचालित करते हुए और साथ में पांच गुरुवाणी का पाठ करते हुए, जल में मिलाये गये मीठे बताशे से अमृत तैयार हुआ. सर्वप्रथम इन पांच प्यारों को अमृत पान गुरुजी ने कराया और बाद में स्वयं भी इनके हाथों से अमृत पान किया और गोबिंद राय से गोबिंद सिंह हो गये. सबों को बराबरी का दर्जा प्रदान करते हुए उन्होंने विनम्रता का यह उच्च कोटि का उदाहरण पेश किया, इसलिए भाई गुरुदास जी ने कहा-

‘वाह-वाह गोबिंद सिंह आपे गुरु चेला’

यह एक अद्भुत ऐतिहासिक एवं क्रांतिकारी घटना थी, जिसने वक्त की दिशा को एक निर्णायक मोड़ दिया. उस दिन लगभग बीस हजार लोगों ने अमृत पान किया. इस अमृत पान से लोगों की मानसिकता बदल गयी. स्वयं को दीन-हीन समझने वाले, जाति-कर्म से अभिशप्त लोगों में नये जीवन का संचार हुआ. ऊंच-नीच की भावना लुप्त हो गयी, ब्राह्मण-शूद्र सभी एक साथ बैठ सकते थे, खा सकते थे. जेडी कनिघम अपनी पुस्तक में इस प्रकार लिखते हैं-

‘गुरु जी ने अमृत पान कराकर अपने अनुयायियों को शूर-वीर में परिवर्तित कर दिया, जो शेर को उसकी मांद में चुनौती देने का सामर्थ्य रखते थे. साथ ही चारों वर्णों के लोग बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा सभी एक समान हो गये और सभी एक ही संगत एवं पंगत में बैठ खाने लगे.’

गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की सृजना कर चिरशोषित एवं चिरउपेक्षित जनसाधारण को राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का योद्धा बनाकर देश को विखंडित होने से बचाने के कार्य में एक महत्वपूर्ण एवं चिरविस्मरणीय ऐतिहासिक कदम उठाया. ‘अकाल पुरुष’ परमात्मा की वंदना करते हुए आप सिर्फ यह वरदान मांगते हैं कि शुभ कार्यों के संपादन में मैं कभी भी पीछे नहीं हटूं और धर्म युद्ध में शत्रुओं का नाश कर निश्चय ही विजय प्राप्त करूं.

‘देह शिवा वर मोहि इहै, शुभ करमन ते कबहुं न डरौं,

न डरौं अरि से जब जाइलरों, निशचै कर अपनी जीत करौं.’

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