America and Russia : संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन युद्ध खत्म करने के मुद्दे पर अमेरिका और रूस का एक साथ आना निश्चय ही बहुत आश्चर्यजनक है. जिन लोगों को शीतयुद्ध की याद है, वे मानेंगे कि दोनों देशों के संबंधों में बड़ा बदलाव आया है. लेकिन मेरा मानना है कि दूसरी बार अमेरिका का राष्ट्रपति चुने जाने के बाद डोनाल्ड ट्रंप के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है. उनका रवैया निरंतरता की ओर ही अग्रसर है. ट्रंप शुरू से ही रूस के साथ बेहतर संबंध बनाये रखने के पक्षधर थे. पहले राष्ट्रपति काल में भी उन्होंने पुतिन के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने की कोशिश की थी. लेकिन तब अमेरिकी डीप स्टेट के कारण वह ऐसा नहीं कर पाये थे. दूसरे राष्ट्रपति काल में ट्रंप ने मस्क की मदद से अमेरिकी डीप स्टेट को खत्म करना शुरू किया है. ऐसे में रूस के साथ बेहतर संबंध बनाने में उन्हें शायद ही मुश्किल आये.
अमेरिका और रूस के साथ यूरोप के मौजूदा रिश्ते को देखें, तो भी अजीब विरोधाभास दिखता है. शीतयुद्ध के दौर में पश्चिमी यूरोप की प्रभावशाली कम्युनिस्ट पार्टियों के तत्कालीन सोवियत संघ से गहरे रिश्ते थे, और अमेरिका इनके विरोधियों को आर्थिक और राजनीतिक मदद देता था. आज यूरोप में दक्षिणपंथ का उभार है, और अमेरिका उससे अलग कम्युनिस्ट रूस के नजदीक जा रहा है. इसका प्रभाव अमेरिका और यूरोप के रिश्ते में आये खिंचाव में तो दिख ही रहा है, इसका असर यूक्रेन युद्ध के खात्मे पर भी पड़ेगा. यूरोप के देश यूक्रेन के साथ हैं, और वे चाहते हैं कि इस युद्ध का अंत होने का मतलब यूक्रेन का आत्मसमर्पण और उसकी संप्रभुता से समझौता नहीं होना चाहिए.
अलबत्ता यह देखने वाली बात होगी कि यूक्रेन युद्ध के खात्मे में यूरोप की भूमिका ज्यादा होगी या फिर अमेरिका-रूस की चलेगी. ट्रंप से व्हाइट हाउस में फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों की मुलाकात के दौरान भी यूक्रेन मुद्दे पर पैदा खिंचाव का असर दिखा, लेकिन अच्छी बात यह रही कि दोनों ने शांति बहाली की बात की. गौरतलब है कि ट्रंप के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद उनसे मिलने वाले पहले यूरोपीय नेता मैक्रों ही हैं. जो लोग यह समझ रहे हैं कि पुतिन के करीब जाकर ट्रंप अपने देश के लिए बेहतर करने की कोशिश में हैं और इससे यूक्रेन युद्ध का मसला हल नहीं होने वाला, वे गलत सोचते हैं. अव्वल तो अमेरिका और रूस का करीब होना ही वैश्विक परिदृश्य में एक बड़ी घटना है. कहने को यह भी कहा जा सकता है कि रूस अब पहले जैसी शक्ति नहीं रहा, जो यूक्रेन युद्ध में भी भलीभांति दिखाई पड़ा. इन तीन वर्षों के दौरान रूस की सैन्य शक्ति और उसकी अर्थव्यवस्था और खराब हुई है. ऐसे में, रूस से शत्रुता निभाना या प्रतिद्वंद्विता रखना अमेरिका के लिए बुद्धिमानी नहीं है.
अमेरिका के लिए रूस से भी ज्यादा मुश्किल देश आज के दौर में चीन है. दरअसल रूस और चीन का एक साथ होना भी अमेरिका के लिए बड़ी मुसीबत का कारण रहा है. ऐसे में, रूस के साथ मिलकर अमेरिका अगर अपने प्रतिद्वंद्वी चीन को कुछ कमजोर या अलग-थलग कर सकता है, तो इसमें कोई बुराई नहीं. इससे ट्रंप की एक बड़ी चिंता दूर हो जायेगी. ट्रंप के रूस प्रेम का यह बड़ा कारण है. हालांकि यह भी ध्यान रखना होगा कि पुतिन का वास्तविक इरादा दरअसल उस नाटो को विस्तार करने से रोकना है, जो कभी यूरोपीय देशों को सोवियत संघ से बचाने के लिए बना था. आज स्थिति यह है कि नाटो का विस्तार रूस के बगल तक हो चुका है और पुतिन की चिंता का यही सबसे बड़ा कारण है. चूंकि ट्रंप अमेरिका को किसी भी वैश्विक संगठन में बनाये रखने के विरोधी हैं, ऐसे में, पुतिन को यह लगता होगा कि ट्रंप को अपने साथ लेकर वह नाटो के असर को खत्म कर सकते हैं. लेकिन अभी तो यह दूर की कौड़ी है, और यूक्रेन के साथ चल रही लड़ाई में बहुत कुछ खो चुके पुतिन फिलहाल बहुत ज्यादा आगे बढ़ने की कोशिश में शायद ही होंगे.
अभी तो अमेरिका-रूस का एक साथ होना यूक्रेन युद्ध के खत्म होने की दिशा में भी उम्मीद की तरह है. ट्रंप के रवैये से सरसरी तौर पर यह लगता है कि वह यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को खलनायक की तरह देखते हैं. उन्होंने जेलेंस्की को तानाशाह कहा भी है. खुद जेलेंस्की की राय भी ट्रंप के प्रति अच्छी नहीं है. लेकिन यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में आप दो अमेरिकी राष्ट्रपतियों- जो बाइडेन और डोनाल्ड ट्रंप के रवैये को देखें, तो अंतर साफ-साफ दिखाई देता है. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन ने रूस के खिलाफ युद्ध में यूक्रेन को भारी मदद दी. यह युद्ध अगर इतने दिनों तक जारी है और यूक्रेन ने घुटने नहीं टेके, तो इसके पीछे सबसे बड़ा योगदान अमेरिकी मदद का रहा. दूसरी ओर, ट्रंप इस युद्ध में यूक्रेन की मदद नहीं करने वाले. बल्कि दुनिया के किसी भी इलाके में होने वाले युद्ध में अमेरिका मदद नहीं करेगा.
आलोचकों के एक वर्ग का कहना है कि दुनिया में शांति बनाये रखने की अपनी जिम्मेदारी से अमेरिका मुंह मोड़ रहा है. बेशक अमेरिका से बाहर हस्तक्षेप न करने की ट्रंप की नीति अमेरिकी स्वार्थ से जुड़ी है. ट्रंप के राष्ट्रपति काल में अमेरिका का पैसा सिर्फ अमेरिका की बेहतरी में खर्च होगा. अमेरिका बाहर कहीं हस्तक्षेप नहीं करेगा, तो इससे युद्ध और अशांति की आशंकाएं बढ़ेंगी नहीं, घटेंगी. ट्रंप यूक्रेन युद्ध में जेलेंस्की की मदद नहीं करेंगे, तो यूक्रेन युद्ध जल्दी खत्म होगा. सिर्फ एक बात की गारंटी नहीं दे सकते. यह नहीं कह सकते कि यह युद्ध कब खत्म होगा और इसकी कीमत क्या होगी. लेकिन रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे जिस युद्ध के तीन वर्ष पूरे हो चुके हैं, और जो तीसरे विश्वयुद्ध की शक्ल अख्तियार कर सकता था, उसके खत्म होने की संभावना ही बड़ी बात है.
हाल ही में यूक्रेन में पाये जाने वाले खनिजों के मामले में जेलेंस्की और ट्रंप के बीच जो सहमति बनी है, उससे भी दो बातें साफ होती हैं. एक यह कि ट्रंप-जेलेंस्की के रिश्ते उतने शत्रुतापूर्ण नहीं हैं, जितना कि बताया जा रहा है. अगर उनके आपसी संबंध तनावपूर्ण होते, तो जेलेंस्की के सामने अमेरिका से समझौता करने की क्या मजबूरी थी? जाहिर है कि दोनों के बीच एक स्तर पर समझदारी बनी हुई है. फिर खनिज समझौते से यह भी साफ हो जाता है कि यूक्रेन को आने वाले दिनों में रूस के हमले से बचाने के बदले ट्रंप जेलेंस्की से यह कीमत वसूल रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र में यूक्रेन के प्रस्ताव पर चीन और भारत ने वोटिंग न कर तटस्थता का संदेश दिया. लेकिन कुल मिलाकर देखें, तो बदल रहा वैश्विक परिदृश्य और यूक्रेन युद्ध के खत्म होने की उम्मीद भारत के लिए भी उतनी ही संभावनापूर्ण है, क्योंकि भारत शुरू से ही अपने आपको निष्पक्ष और शांति का पक्षधर बताता रहा है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)