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भारत के रजिस्ट्रार जनरल एवं सेंसस कमिश्नर ने गत दिसंबर में ‘रिपोर्ट ऑन मेडिकल सर्टिफिकेशन ऑफ कॉजेज ऑफ डेथ-2013’ भारत सरकार को सौंपा. जन्म एवं मृत्यु पंजीयन अधिनियम 1969 के अंतर्गत नागरिक पंजीयन व्यवस्था से प्राप्त आंकड़ों की यह इस शृंखला में चालीसवीं रिपोर्ट है. इस रिपोर्ट में इकत्तीस राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों से […]

भारत के रजिस्ट्रार जनरल एवं सेंसस कमिश्नर ने गत दिसंबर में ‘रिपोर्ट ऑन मेडिकल सर्टिफिकेशन ऑफ कॉजेज ऑफ डेथ-2013’ भारत सरकार को सौंपा. जन्म एवं मृत्यु पंजीयन अधिनियम 1969 के अंतर्गत नागरिक पंजीयन व्यवस्था से प्राप्त आंकड़ों की यह इस शृंखला में चालीसवीं रिपोर्ट है. इस रिपोर्ट में इकत्तीस राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों से प्राप्त आंकड़ों को बीमारियों के अंतरराष्ट्रीय वर्गीकरण के दसवें संस्करण (1993) के अनुसार वर्गीकृत किया गया है.
जन्म एवं मृत्यु पंजीयन अधिनियम, 1969 के अंतर्गत मृत्यु के कारणों का चिकित्सकीय प्रमाणन (मेडिकल सर्टिफिकेशन ऑफ कॉजेज ऑफ डेथ) योजना लागू की गयी है. प्रमाणन आंकड़े चुनिंदा अस्पतालों में मृत्यु के उपरांत तैयार रिपोर्ट के आधार पर तैयार किया जाता है. यह चुने हुए अस्पताल मुख्यत: शहरी क्षेत्रों में अवस्थित हैं. सन् 2013 तक 32 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में योजना को लागू करने की अधिसूचना जारी की जा चुकी है. केरल, मेघालय और लक्षद्वीप में रिपोर्ट प्रस्तुत की जाने तक आधिकारिक अधिसूचना जारी नहीं की गयी थी. योजना का क्रियान्वयन राज्यों के अधीन है, जिसके कारण अस्पतालों और संस्थाओं का चयन सभी राज्यों में समरूप नहीं है. रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न राज्यों में अवस्थित 10,6,442 एलोपैथिक चिकित्सकीय संस्थानों में से कुल 20,836 संस्थान ही योजना के अंतर्गत चयनित हैं और इनमें से भी मात्र 12,154 संस्थान योजना के अंतर्गत रिपोर्ट कर रहे हैं. इस मामले में गोवा, पुद्दुचेरी और सिक्किम का रिकॉर्ड अव्वल है कि सभी मौजूद एलोपैथी संस्थानों को योजना में शामिल कर लिया गया है.
चिकित्सकीय मृत्यु प्रमाणन के मामले में भी गोवा और लक्षद्वीप पहले स्थान पर हैं, जहां सभी पंजीकृत मृत्यु को योजनांतर्गत रिपोर्ट किया गया. प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013 में कुल पंजीकृत मृत्यु की संख्या, 46,13,657 में से 9,28,858 यानी 20.1 प्रतिशत की रिपोर्टिंग इस योजना में हुई. वर्ष 2011 और 2012 में भी 20 प्रतिशत मामले ही मृत्यु के चिकित्सकीय प्रमाणन के साथ रिपोर्ट हो सके. रिपोर्टिंग के मामले में चंडीगढ़ दूसरे तथा दादरा एवं नागर हवेली तीसरे स्थान पर रहे. सबसे बुरा रिकॉर्ड झारखंड राज्य का है, जहां मात्र 0.40 प्रतिशत मामले चिकित्सकीय प्रमाणन के साथ रिपोर्ट हो सके. सभी बड़े राज्यों का रिकॉर्ड रिपोर्टिंग के मामले में बुरा है. हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और उत्तर प्रदेश राज्यों से चिकित्सकीय प्रमाणन के आंकड़े ही उपलब्ध नहीं हैं. वर्ष 1986 में योजना के अंतर्गत 14 राज्यों ने 13.5 प्रतिशत पंजीकृत मृत्यु के बारे में चिकित्सकीय प्रमाणन जारी किया था. अब वर्ष 2013 में 31 राज्यों ने मात्र 20.1 प्रतिशत मामलों में प्रमाणन आंकड़े प्रस्तुत किया. इससे प्रतीत होता है कि राज्य योजना को लागू करने और मृत्यु के चिकित्सकीय प्रमाणन के मामले में गंभीर नहीं हैं.
चिकित्सकीय प्रमाणन के अनुसार मृत्यु के पैटर्न पर नजर डालें, तो पायेंगे कि वर्ष 2013 में सबसे ज्यादा मृत्यु, 24.8 प्रतिशत, सत्तर या अधिक आयुवर्ग में हुई है, जो कि स्वाभाविक है. इसके बाद 55-64 तथा 45-54 आयुवर्ग में मृत्यु दर्ज की गयी है. चिंताजनक बात यह है कि प्रमाणन प्राप्त मृत्यु में से 10.9 प्रतिशत मामले नवजात शिशुओं के हैं.
मृत्यु के कारणों पर ध्यान दें, तो लगभग आधी जानें (49.4 प्रतिशत) शरीर के संवहन तंत्र की बीमारियों, संक्रामक एवं परजीवी रोग और सांस संबंधी रोगों के कारण गयीं. संवहन तंत्र की बीमारियों में से मुख्य हैं फेफड़ों के संवहन तंत्र तथा दिल के अन्य रोग, हार्ट अटैक, दिमाग के संवहन तंत्र की बीमारियां और उच्च रक्त चाप. इन बीमारियों से होनेवाली मौतें जहां वर्ष 1990 में 20.6 प्रतिशत थी, यह साल दर साल बढ़ते-बढ़ते 2013 में 29.0 प्रतिशत हो गयी. यह आंकड़ा हमारे रहन-सहन और खानपान में आये परिवर्तन की ओर इशारा करता है.
संक्रामक एवं परजीवी-जन्य रोगों में यद्यपि लगातार कमी हो रही है, लेकिन तपेदिक और खून का संक्रमण मृत्यु के बड़े कारण बने हुए हैं. सांस की बीमारियों का प्रतिशत 1990 से धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है और इस वर्ग में मुख्य बीमारियां हैं निमोनिया और दमा. संवहन तंत्र और सांस संबंधी रोगों से मौतें ज्यादातर 45 वर्ष से अधिक आयुवर्ग में रपोर्ट की गयी हैं.
मृत्यु के कारणों का एक वर्ग है ‘चोट, जहरखुरानी आदि’. इस कारण से हुई मृत्यु में सबसे ज्यादा, 20.2 प्रतिशत, 25 से चौतीस आयुवर्ग में हुई है. यह आंकड़ा यह बताता है कि इस आयुवर्ग में दुर्घटना, भावनात्मक आघात, लापरवाही आदि मृत्यु के मुख्य कारण हो सकते हैं. अगर इस वर्ग को बड़ा कर 15 से 44 वर्ष कर दिया जाये, तो इस वर्ग में इस उम्र वर्ग में होनेवाली मृत्यु का प्रतिशत बढ़ कर 52.4 प्रतिशत हो जायेगा. यह आयुवर्ग उत्पादक आयुवर्ग है और भी किसी देश के विकास के लिए महत्वपूर्ण है. इनके मृत्यु के कारणों का अध्ययन करके इन्हें संभालना बहुत जरूरी है.
सबसे चिंताजनक बात यह है कि कैंसर वर्ग की बीमारियों से होनेवाली मौतों में लगातार वृद्धि हो रही है. वर्ष 1990 में 3.5 प्रतिशत मामलों में जहां मृत्यु का कारण कैंसर था, वर्ष 2013 में बढ़ कर 5.1 प्रतिशत हो गया. केरल में कैंसर से मृत्यु की रिपोर्टिंग सबसे ज्यादा 15.2 है. कैंसर के कारण ज्यादातर मौतें पचपन वर्ष या अधिक उम्र वर्ग में रिपोर्ट की गयी हैं. पाचन तंत्र और श्वसन तंत्र में कैंसर के कारण मौतों की संख्या सबसे अधिक है, जो समाज में बढ़ते तंबाकू सेवन और धूम्रपान की ओर इशारा करता है.
मृत्यु के कारणों के आंकड़े सरकार और संबंधित संस्थाओं के लिए नीति बनाने में सहायक होंगे. इस व्यवस्था को कारगर बनाने हेतु हर जन्म और मृत्यु का पंजीकरण सुनिश्चित किया जाना चाहिए तथा अधिकाधिक मृत्यु के कारणों का प्रमाणन किया जाना चाहिए, जिससे जनस्वास्थ्य प्रबंधन प्रभावी हो सके. रिपोर्टिंग में नये रोग जैसे जापानी इंसिफेलाइटिस, डेंगू, चिकनगुनिया आदि के बारे में भी अलग से आंकड़े होने चाहिए.
बिभाष
कृषि एवं आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ
s_bibhas@rediffmail.com

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