यह सुकून देनेवाली बात है कि अब झारखंड को अपना विधानसभा भवन मिलने जा रहा है. लगभग 450 करोड़ रुपये की लागत से, 39 एकड़ में फैले विधानसभा परिसर का निर्माण शुरू होना राज्य के लिए ऐतिहासिक है. झारखंड को अलग राज्य का दर्जा मिले 13 वर्ष हो गये. इतने साल यह बात कांटे की तरह खटकती रही है कि झारखंड का अपना विधानसभा भवन नहीं है.
दूसरे राज्य से अतिथियों के आने पर यह बात और चुभती थी. विडंबना देखिए कि इस शुभ काम के वक्त भी कुछ लोग इस निर्माण का विरोध कर रहे थे और इनका साथ दे रहे थे कांग्रेस के कई दिग्गज नेता. यह वही कांग्रेस है जो सरकार में साझीदार भी है. विस्थापितों के हक की बात सही है, लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकार की जमीन पर अतिक्रमण हुआ है. विस्थापितों ने कारखाने के लिए जमीन दी. आज उसी जमीन का अतिक्रमण कर लिया गया. वर्षो पहले अधिग्रहीत जमीन पर आज सरकार को जवाब देना पड़ रहा है.
इसपर राजनीति नहीं हो तो बेहतर है, वरना इस निर्माण कार्य का हश्र भी पहले जैसा न हो जाये? मालूम हो कि इससे पूर्व भी ग्रेटर रांची या नयी राजधानी की आधारशिला भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी रख चुके थे, लेकिन वह आज तक बन नहीं पायी. विरोध महज दिखावे के लिए नहीं होना चाहिए. विरोध महज राजनीति के लिए या मतदाताओं को रिझाने के लिए भी नहीं होनी चाहिए. विरोध मुद्दों पर होना चाहिए. विरोध लोगों के कल्याण के लिए होना चाहिए. सभी पार्टियों को एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि अगर कोई काम, कोई परियोजना राज्यहित में है और उससे राज्य को गौरवान्वित होने का क्षण प्राप्त हो रहा हो, तो उसमें सबको मिलजुल कर मदद करनी चाहिए, न कि उसमें रोड़ा अटकाने की कोशिश करनी चाहिए.
नये विधानसभा भवन का निर्माण होना, निस्संदेह एक ऐतिहासिक परियोजना है. इसके निर्माण में सभी को सहयोगपूर्ण रवैया अख्तियार करना चाहिए. राजनीति से ऊपर उठ कर जनकल्याण और राज्यहित की बात सोचना ज्यादा अच्छा है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सभी राजनीतिक दल इस बात को गंभीरता से लेंगे और इसके अनुरूप जनमानस तैयार करने में मदद करेंगे.