शासन को आंदोलन का रूप देना एक रूमानी और रोमांचकारी विचार है. लेकिन, शासन रोमांच नहीं, जिम्मेवारी है. सत्ता को ‘एडवेंचर राइड’ समझना अराजकता की ओर उठाया गया पहला कदम है और दिल्ली के मुख्यमंत्री कई मायनों में इसी ओर बढ़ते नजर आ रहे हैं.
केजरीवाल शासन को आंदोलन का रूप देने पर आमादा हैं. सोमवार को अपनी घोषणा के अनुरूप केजरीवाल ने धारा 144 का उल्लंघन करते हुए दिल्ली पुलिस के चार कर्मचारियों पर कार्रवाई की मांग लेकर भारतीय शासन व्यवस्था के केंद्र- नॉर्थ ब्लॉक के सामने धरने पर बैठने की कोशिश की.
जब गणतंत्र दिवस परेड की तैयारी की संवेदनशीलता को देखते हुए उन्हें नॉर्थ ब्लॉक की ओर बढ़ने से रोका गया, तो वे रेल भवन पास ही धरने पर बैठ गये और मीडिया को संबोधित करते हुए दिल्लीवासियों से सड़कों पर उतरने का आह्वान किया.
उन्होंने अगले दस दिनों तक धरना स्थल से सरकार चलाने का ऐलान किया और कहा कि अगर उनके इस कदम से किसी तरह का संकट पैदा होता है, तो इसकी जिम्मेवारी केंद्र सरकार पर होगी.
कुछ इस तरह मानो सुशासन लुका-छिपी का खेल हो. ऐसा करते हुए केजरीवाल कहीं भारत के मौजूदा संवैधानिक ढांचे में अपनी अनास्था तो नहीं प्रकट कर रहे हैं? क्या वाकई भारत का संवैधानिक ढांचा इतना सड़ांधमय और पतनशील हो गया है कि इसे लोकतांत्रिक तरीके से दुरुस्त करने की कोई गुंजाइश नहीं बची है? केजरीवाल शायद इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद इस लोकतांत्रिक ढांचे ने ही आम जनता को निजाम बदलने की शक्ति दी है.
दिल्ली में केजरीवाल के नेतृत्व में ‘आप’ को मिला जनादेश इसका जीता-जागता उदाहरण है. देश के संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति से उम्मीद की जाती है कि वे इस लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करेंगे. किसी भी ‘वृक्ष’ को समय-समय पर कांट-छांट की जरूरत पड़ती है और यह काम अकसर नयी पीढ़ी को करना होता है.
लेकिन, यह ऐतिहासिक जिम्मेवारी निभाने की जगह केजरीवाल इस वृक्ष को ही बांझ साबित करने की राजनीति करते दिख रहे हैं, यह भूलते हुए कि अपनी रुग्णता के बावजूद इस वृक्ष में ‘नयी राजनीति’ को शरण देने की शक्ति और ईमानदारी बची हुई है.