।। पुष्परंजन।।
(नयी दिल्ली संपादक, इयू-एशिया न्यूज)
जब भारतीय सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक संबंधों को अपराध करार दे रहा था, लगभग उसी वक्त ऑस्ट्रेलिया में भी हाइकोर्ट ने समलैंगिक विवाह कानून को अवैध माना. कैनबरा हाइकोर्ट के इस फैसले से 27 समलैंगिक जोड़ियों का जीवन अधर में लटक गया है. 22 अक्तूबर, 2013 को ऑस्ट्रेलिया की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की विधानसभा ने समलैंगिक जोड़ियों को परिणय सूत्र में बंधने का प्रस्ताव पास किया था. डेढ़ महीने में 27 समलैंगिक जोड़ियों ने शादी रचायी थी. 11 दिसंबर, 2013 को भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाघ्याय की पीठ ने दिल्ली हाइकोर्ट के 2009 में दिये उस फैसले को दरकिनार कर दिया, जिसमें समकामी वयस्कों के बीच बननेवाले सबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर किया गया था. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, ‘भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंध ‘अप्राकृतिक हरकत’ है और यह गैरकानूनी भी है. इसे बदलने का अधिकार सिर्फ संसद के पास है.’ आइपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिक, अप्राकृतिक और पशुओं से यौन संबंध बनानेवालों को उम्रकैद की सजा दी जा सकती है. इस फैसले से पहले केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को जानकारी दी थी कि भारत में करीब 25 लाख समलैंगिक हैं, जिनमें सात फीसदी (यानी पौने दो लाख) एचआइवी संक्रमित हैं. इससे मुराद यह था कि समलैंगिक संबंधों से एचआइवी संक्रमण फैलता है, जो कि पूर्णत: सही नहीं है.
विडंबना देखिये कि आइपीसी की धारा 377 को 1861 में अंगरेजों ने लागू किया था. उसी ब्रिटेन की संसद ने जुलाई, 2013 में समलैंगिकों के बीच विवाह को वैध बनाने का प्रस्ताव पास किया है. 29 मार्च, 2014 तक ‘सेम सेक्स मैरिज’ कानून को अमल में लाने का लक्ष्य ब्रिटिश सरकार ने निर्धारित कर रखा है. अपने यहां से अंगरेज चले गये, पर कानून छोड़ गये, जिसे ढोने के लिए हम अभिशप्त हैं. 2011 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने पहली बार ‘एलजीबीटी’ (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांस्जेंडर) अधिकारों पर सहमति पत्र प्रस्तुत किया था, जिस पर 94 देशों ने हस्ताक्षर किये थे. उस समय 57 देशों ने इसका विरोध किया था. बाद में तीन देशों ने समलैंगिक अधिकार का समर्थन किया था. बाकी 46 देश न तो इस पार हैं, न उस पार.
दक्षिण एशिया में सिर्फ नेपाल एक ऐसा देश है, जहां सितंबर, 2007 में समलैंगिक संबंध को कानूनी रूप से वैध माना गया, जबकि नेपाल में अब भी हिंदू बहुसंख्यक हैं. पूर्वी एशिया में चीन ने 2007 में समलैंगिक संबंधों को वैध करार दिया, उससे पहले 1991 में हांगकांग और 1996 में मकाऊ, 2002 में मंगोलिया, उत्तर-दक्षिण कोरिया, ताइवान ने समलैंगिक संबंधों को सही मान लिया था. जापान ने तो 1880 में ही पुरुषों के आपसी और औरत-औरत के बीच हमसुहबत को कानूनी रूप से मान्यता दे दी थी. दक्षिण-पूर्व एशिया में कंबोडिया, पूर्वी तिमोर, इंडोनेशिया, लाओस, फिलीपींस, सिंगापुर, थाइलैंड, वियतनाम ने समलैंगिक रिश्तों को कानूनी मंजूरी दी है. मध्य एशिया में कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान ने समलैंगिक संबंध को वैध माना है, तो बाकी दो देश तुर्कमेनिस्तान और उजबेकिस्तान ने महिलाओं के बीच समकामी संबंधों की इजाजत दी है. पश्चिम एशिया में बहरीन, इराक, इजराइल, जॉर्डन, लेबनान, वेस्ट बैंकवाले फिलस्तीनी क्षेत्र में समलैंगिक संबंध को स्वीकार किया गया है, लेकिन गाजापट्टी वाले फिलस्तीनी क्षेत्र में सिर्फ समकामी औरतें यह संबंध कायम कर सकती हैं. कुवैत और तुर्की ने भी महिलाओं को अनुमति दी गयी है कि वे हमजिन्सिया संबंध बनाएं. यूरोपीय संघ ने इस कारण तुर्की को कटघरे में खड़ा कर रखा है कि उसने क्यों समलैंगिक पुरुषों को इससे वंचित रखा है.
जो मुसलमान देश समलैंगिक संबंधों को हराम मानते हैं, वहां इसके विरुद्ध सजाएं अलग-अलग हैं. यमन, सऊदी अरब, सोमालीलैंड, नाइजीरिया, अफगानिस्तान, ईरान में समलैंगिक संबंध बनानेवालों को मौत की सजा का प्रावधान है. कुछ मुसलमान देशों ने हमजिन्सिया संबंधों के विरुद्ध दो से दस साल तक की जेल तय कर रखी है. इससे निष्कर्ष यही निकलता है कि समलैंगिक संबंध पर इसलामी देश ही नहीं, दीन को माननेवाले भी एकमत नहीं है. बौद्धों में थाइ, जिन्हें ‘थेरावदा बौद्ध’ कहते हैं, समलैंगिक संबंधों का समर्थन नहीं करते, लेकिन थाइलैंड से बाहर कनाडा, यूरोप, नेपाल के बौद्ध धर्मावलंबियों ने इसका विरोध नहीं किया है. रूढ़िवादी यहूदी समलैंगिक संबंधों को स्वीकार नहीं करते, मगर उत्तर अमेरिका में फैले ‘रिफार्म जुडिजम’ और ‘इजराइली प्रोग्रेसिव मूवमेंट’ चलानेवाले इसके प्रबल समर्थक हैं.
चर्च इस सवाल पर चुप है कि चौथी सदी के दो संतों, सर्गिस और बच्चू, ने बाकायदा शादी रचायी थी, उन्हें क्यों रोमन कैथलिक चर्च और इस्टर्न ऑर्थोडाक्स चर्च ने स्वीकार किया था. संत सैबेस्टाइन विश्व के पहले ‘गे आइकॉन’ माने जाते हैं. इसके बावजूद वैटिकन और रोमन कैथलिक चर्च समलैंगिक संबंध स्वीकार नहीं करते. 2001 में नीदरलैंड ने जब समलैंगिक विवाह को मान्यता दी, तो पोप जॉन पॉल द्वितीय ने उसका विरोध किया था. पोप बेनेडिक्ट सोलहवें को भी यह स्वीकार नहीं था. फिर भी यूरोपीय संघ, स्कैंडेनिवियाई देश और स्वीट्जरलैंड तक ने समलैंगिक रिश्तों को कानूनी मान्यता दी. 2009 के मैनहट्टन घोषणापत्र में 14 रूढ़िवादी ईसाई संगठनों ने ‘एलजीबीटी राइट्स’ और गर्भपात का विरोध किया, पर इवांजेलिकल लुथेरियन चर्च, एक्सोडस इंटरनेशनल, इपिस्कोपल चर्च, यूनाइटेड चर्च ऑफ क्राइस्ट, यूनाइटेड चर्च ऑफ कनाडा जैसे दर्जनों चर्च ‘एलजीबीटी राइट्स’ के समर्थन में खड़े हैं.
सोचिये कि समलैंगिकता के सवाल पर भारतीय राजनीति व समाज दो सीमांतों पर क्यों नजर आता है? हमारे महाकाव्यों, पुराणों में यह विषय चर्चा में रहा है. कुषाण काल में अर्धनारीश्वर, विष्णु पुराण में भस्मासुर का विनाश करनेवाली मोहिनी, महाभारत में शिखंडी, शिव और मोहिनी के संगम से जन्मे अयप्पा जैसे किरदारों को इसी भारतीय समाज ने स्वीकारा और ऊंचा स्थान दिया है. इसलिए संसद को इस पर अपनी स्थिति जल्द साफ करनी चाहिए. ‘एलजीबीटी राइट्स’ के लिए दुनिया भर में जो कुछ भी हो रहा है, उससे कदम मिलाने की जरूरत है. इसे मानसिक बीमारी कह कर न बचें, बल्कि अपने देश का युवा क्या सोचता है, उस पर भी गौर करना जरूरी है, क्योंकि चाय के लिए जैसे टोस्ट होता है, वैसे हर एक ‘फ्रेंड’ जरूरी होता है!