Advertisement
वक्त के तकाजे से बेखबर पार्टियां
यह सच है कि भूमि अधिग्रहण और किसानों-खेती की समस्याएं हमारी अर्थव्यवस्था से अभिन्न रूप से जुड़े विषय हैं, पर इनका समाधान राहुल की वापसी के स्वागत समारोह के लिए आयोजित दैत्याकार रैली से कतई नहीं हो सकता. एक पुरानी कहावत है कि सुबह का भूला शाम तक घर लौट आये, तो भूला नहीं समझा […]
यह सच है कि भूमि अधिग्रहण और किसानों-खेती की समस्याएं हमारी अर्थव्यवस्था से अभिन्न रूप से जुड़े विषय हैं, पर इनका समाधान राहुल की वापसी के स्वागत समारोह के लिए आयोजित दैत्याकार रैली से कतई नहीं हो सकता.
एक पुरानी कहावत है कि सुबह का भूला शाम तक घर लौट आये, तो भूला नहीं समझा जा सकता. सवाल यह है कि क्या तकरीबन दो महीने से लापता कांग्रेस उपाध्यक्ष इस समय को सुबह से शाम तक के अंतराल की तरह बरत सकते हैं? कुछ लोगों को ‘लापता’ शब्द खटक सकता है, क्योंकि हमें यह बताया जाता रहा है कि राहुल पार्टी अध्यक्षा सोनिया गांधी से बाकायदा छुट्टी लेकर गये थे और यह जानने की कोशिश करना कि वह कहां, कैसे आत्मचिंतन-आत्ममंथन कर रहे हैं, उनकी निजता में नाजायज दखलंदाजी है, जिसे कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. बहरहाल लापता शब्दश: अनुवाद करना अपराध नहीं करार दिया जा सकता. इससे पहले भी राहुल अपनी मनमर्जी से ही संसद की या सड़क की राजनीति में सक्रिय या निष्क्रिय होते रहे हैं और उनके अनुचर, भक्त, प्रशंसक भी इस प्रवृत्ति से परेशान नजर आने लगे हैं. इस बात का भरोसा कोई नहीं दिला सकता कि भविष्य में कब वह फिर किस अत्यावश्यक काम के लिए अंतरध्यान हो जायेंगे! फिलहाल कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी की घर वापसी को जश्न के माहौल में पूरे जोशो-खरोश के साथ ऐलाने-जंग के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश करने में जुटी है. दिक्कत यह है कि ‘घर आया मेरा परदेसी, प्यास बुझी इन अंखियन की’ की तर्ज पर ‘कदम-कदम बढ़ाये जा!’ वाला जुझारु माहौल नहीं पैदा किया जा सकता.
यह जगजाहिर है कि आज बदले माहौल में कांग्रेस के भीतर राहुल के पुनरागमन के स्वागत समारोह में पलक पांवड़े बिछाने के लिए सभी उतावले नहीं दिखलायी देते. जो यह स्वीकार करने को विवश हैं कि नेहरू-गांधी परिवार की शरण में ही इस पार्टी का कल्याण निरापद है, वह भी मुंह खोल कर यह सुझाने लगे हैं कि यह वक्त संगठन में सर्वोच्च सत्ता के हस्तांतरण के लिए माकूल नहीं. राहुल की निर्णायक ताजपोशी के पहले ही नवरत्न दरबारियों में बगावत की बू महसूस की जा सकती है. कैप्टन अमरिंदर सिंह हों या शीला दीक्षित और संदीप दीक्षित, दो टूक या घुमा-फिरा कर एक ही बात कह रहे हैं- राहुल को तत्काल अध्यक्ष पद पर बिठलाने की उतावली की दरकार नहीं- संकट की इस घड़ी में अनुभवी सोनिया ही कुशल रण-संचालन कर सकती हैं और तितर-बितर विपक्ष को एकजुट कर भाजपा के खिलाफ सार्थक मोर्चाबंदी करने में कामयाब हो सकती हैं. राहुल के भविष्य या अतीत का विश्लेषण हमारी राय में समय का अपव्यय ही है. जो असली मुद्दा विचारणीय है- भारत के जनतंत्र के संदर्भ में- वह राजनीतिक दलों में समयानुकूल बदलाव का है. जो सवाल पूछा जाना चाहिए, वह यह है कि क्या चोटी पर विराजमान नेता का चेहरा बदल देने से ही किसी दल का कायाकल्प हो सकता है? क्या यह काम किसी भी दल में ‘आंतरिक मामला’ कह कर नितांत अपारदर्शी और अजनतांत्रिक तरीके से संपन्न कराया जा सकता है? जो दल अगर ऐसा करने पर आमादा हो, क्या उस दल से देश में जनतांत्रिक परंपराओं की रक्षा की अपेक्षा की जा सकती है?
यहां तत्काल यह स्पष्ट करना परमावश्यक है कि यह सब सिर्फ राहुल और कांग्रेस पर ही लागू नहीं होता. बदले वक्त के मुताबिक, जरूरी बदलाव या नयी पीढ़ी को कमान सौंपने के बहाने नेतृत्व के विकल्प करिश्मे अथवा अनुभव की पूर्वाग्रहग्रस्त निजी कसौटी तक सीमित रखने के प्रयास से आज आम आदमी को गुमराह करना असंभव है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी कुछ दिनों से इसी तरह की चुनौती से जूझ रही थी कि प्रकाश करात के लंबे राज के बाद कौन गद्दी संभालेगा- येचुरी या पिल्लई? मुकाबला साठोत्तरी पीढ़ी के येचुरी और इनसे दसेक साल बुजुर्ग प्रतियोगी के बीच था. हां, इतना फर्क जरूर था, और यह फर्क छोटा नहीं, कि यहां दो में से एक के चयन का विकल्प था!
कांग्रेस में तो सोनिया के उत्तराधिकारी के लिए राहुल के अलावा किसी दूसरे का नाम सुझाना अनुशासन भंग करने का अपराध ही माना जाता है. बहुत हुआ तो प्रियंका के नारे कुछ देर तक बुलंद करने की ‘अनुमति’ मिल सकती है. कुछ ऐसी ही दिक्कत बहन मायावती, ममता दीदी और अन्य क्षत्रपों की पार्टियों पर भी लागू होती है. बदलते वक्त का कोई तकाजा उन्हें क्यों नहीं महसूस होता? कुनबापरस्ती का सन्निपात चुनावी जनतंत्र के साथ करानेवाले दलों की कमी अपने देश में नहीं रही है- अकाली दल हो या द्रविड़ अस्मिता को ढाल-तलवार की तरह इस्तेमाल करने वाली पार्टियां. जम्मू-कश्मीर तथा पूर्वोत्तर के राज्यों का अनुभव भी बहुत अलग नहीं है.
हकीकत यह है कि भारतीय जनतंत्र के वर्तमान और भविष्य के संदर्भ में राहुल की घर वापसी वाली हलचल और बहस उतनी ही निर्थक है, जितनी धर्मातरण वाली घर वापसी पर सिर फुटौव्वल. यह समय किसी करिश्माई नेता के चमत्कारी नाटकीय हस्तक्षेप से इतिहास की धारा बदलने की प्रतीक्षा में बरबाद करने का नहीं. सार्वजनिक बहस विकास के ठोस मुद्दों पर ही केंद्रित रहनी चाहिए.
यह सच है कि भूमि अधिग्रहण और किसानों-खेती की समस्याएं हमारी अर्थव्यवस्था से अभिन्न रूप से जुड़े विषय हैं, पर इनका समाधान राहुल की वापसी के स्वागत समारोह के लिए आयोजित दैत्याकार रैली से कतई नहीं हो सकता. कभी-कभार ही संसद और सदन के बाहर नजर आनेवाले अनिच्छुक नेता की छवि आसानी से बदलनेवाली नहीं. राहुल और आंख मूंद, मुंह खोल कर उनका अनुसरण करनेवाले कांग्रेसियों की विश्वसनीयता पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है. सभा स्थल में कांधे पर हल धरे राहुल का फोटो लटकाने से वह ‘मदर इंडिया’ वाली नर्गिस का जमा खाता नहीं भुना सकते. रामलीला मैदान में लाख-सवा लाख की भीड़ पड़ोसी राज्यों से जुटाना कठिन नहीं, पर जो कुछ तमाशबीनों को नजर आया, वह प्रायोजित कार्यक्रम सरीखा ही लगा. नये गुलाबी साफे पहने किसान रटे-रटाये जुमलों में राहुल को अपना मसीहा बतलाने को आतुर थे. जमीन अधिग्रहण विधेयक और अध्यादेश के विवादग्रस्त मुद्दों की जानकारी या राय मुखर नहीं कर सके. राहुल का भाषण उनकी चिर- परिचित शैली का ही बंदी रहा. कभी वह श्रोताओं को ऑस्ट्रेलिया ले गये, तो कभी अपने भट्टा पारसौल वाले पराक्रम की याद ताजा कराने में मशगूल रहे. इस बात से बेखबर कि उनके अपने सामान्य ज्ञान की सीमाएं आम हिंदुस्तानी को सुलभ देश और दुनिया के बारे में जानकारी से कहीं संकुचित हैं- जिस ज्ञानदान से वह विपक्ष को नवजीवन दान करना चाहते हैं, उसे ग्रहण करने को कोई आतुर नहीं!
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
pushpeshpant@gmail.com
Prabhat Khabar App :
देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए
Advertisement