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लोगों की जान न लेने लगे यह फीस!

निजी स्कूल अभिभावकों का खून किस तरह चूस रहे हैं, इसकी कथा अनंत है. मैं भी अनुभवों को आपके साथ बांटने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं. रिजल्ट निकलते ही स्कूल प्रबंधन इस तरह की तैयारी में जुट जाते हैं जैसे देश के किसी बड़े बाबा का समागम होने वाला हो और दान-दक्षिणा […]

निजी स्कूल अभिभावकों का खून किस तरह चूस रहे हैं, इसकी कथा अनंत है. मैं भी अनुभवों को आपके साथ बांटने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं. रिजल्ट निकलते ही स्कूल प्रबंधन इस तरह की तैयारी में जुट जाते हैं जैसे देश के किसी बड़े बाबा का समागम होने वाला हो और दान-दक्षिणा देनेवाले भक्तों की अपार भीड़ जुटने वाली हो. री-एडमिशन, डेवेलपमेंट फीस, मेंटनेंस फीस और न जाने कौन-कौन सी फीस की लिस्ट पहले से तैयार रहती है. महंगाई बढ़ने के जिक्र के साथ फीस बढोतरी की सूचना भी रहती है.

इधर अभिभावकों की स्थिति ऐसी होती है मानो कि शादी का रिश्ता और लेन-देन तय हो जाने के बाद उसे तिलक-दहेज की रकम लेकर तय तिथि को दूल्हे के घर हाजिर होना है. रकम का इंतजाम फिर चाहे जैसे करना पड़े. रिजल्ट आने के बाद अभिभावकों के लिए एक और जरूरी रस्म है, कॉपी-किताब की खरीदारी. अधिकतर निजी स्कूलों में यह प्रथा है कि क्लास के अनुसार पहले से ही छात्रों के लिए नयी किताबोंको एक थैले में पैक कर दिया जाता है. थैले में कॉपी, पेंसिल, रबर यहां तक कि जिल्द भी शामिल होती है. यानी कि कंप्लीट पैक. अब जिन्होंने पैक का शुल्क अदा कर दिया है वे रसीद दिखायें और थैला लेकर निकलें. एक अभिभावक ने मुझसे कहा कि ‘‘सर, बिट्टू का किताब आ गया देख लीजिए.’’ मैने देखा कि कुछ किताबें तो एकदम जरूरी थीं, लेकिन कुछ किताबें थोपी हुई लग रही थीं. एक ड्रॉइंग किताब जिसमें मुश्किल से दस पóो होंगे, उसका दाम जब हमने उसे दिखाया तो वह ऐसे ठिठक गया जैसे 400-500 रुपये का जूता पहननेवाले व्यक्ति ने अचानक रीबॉक के शोरूम में घुस कर जूते का दाम पूछ लिया हो. जब बच्चों का सालाना इम्तिहान संपन्न हो जाता है, तो एक विषय प्रोजेक्ट का भी होता है. इसमें बच्चों को कुछ चित्र वगैरह चिपका कर प्रोजेक्ट बनाना पडता है. जब मेरे बच्चे ने प्रोजेक्ट बना कर मुङो दिखाया तो मेरे पांव तले की जमीन खिसक गयी. मैंने देखा कि उसने अपनी उसी साल की किताबोंके पन्नों से चित्र काट कर कॉपी में चिपका दिये हैं. पूछने पर उसने बताया कि ‘‘मिस बोली कि काट लो बुक से ही.’’ बात साफ है. इस साल की किताब इसी साल स्वाहा हो जाये, ताकि वह किसी और बच्चे के काम न आये.

आज निजी स्कूल शिक्षा से ज्यादा व्यापार के केंद्र बन गये हैं. एक स्कूल ठीक से चलना शुरू भी नहीं हो पता कि दूसरी शाखा खोलने की तैयारी शुरू हो जाती है. अगर सरकार फीस पर कोई डंडा चलाये, तो नाम बदल देते हैं. रीएडमिशन फी को एन्युअल फी बना देते हैं. कान इधर से पकड़ो या उधर से, बात तो बराबर है. यही हाल रहा तो आनेवाले दिनों में हमें सुनने को मिलेगा कि पांचवीं क्लास के बच्चे की फीस नहीं भर पाने के कारण उसके पिता ने आत्महत्या कर ली.

मनोज अग्रवाल

प्रभात खबर.कॉम

manoj.agarwal@prabhatkhabar.in

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