भड़काऊ बयानबाजियां, उत्तेजक भाषण और अभद्र टिप्पणियां हमारे राजनीतिक विमर्श की विशेषता बन गयी है, जिसमें बुनियादी मसलों पर संतुलित विश्लेषण की गुंजाइश लगातार कम हो रही है. इस प्रपंच में सत्ता और विपक्ष दोनों शामिल हैं. नेताओं के ऐसे तेवरों ने विचारधारा की लकीरों को भी मिटा दिया है.. और दिग्विजय सिंह इस ‘खेल’ के एक जानेमाने खिलाड़ी हैं.
धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने का दावा करनेवाले दिग्गी राजा ने जुबानी जमाखर्च के अलावा क्या किया है, इसका हिसाब खुद उनके पास भी नहीं होगा. उन्होंने बाटला हाउस के कथित मुठभेड़ पर सवाल तो उठाया, लेकिन अपनी ही पार्टी की सरकार से कुछ हासिल न कर सके. अनेक मुसलिम युवा आतंकी होने के मनगढ़ंत आरोपों में पुलिस द्वारा प्रताड़ित होते रहे हैं. लेकिन, बड़बोले दिग्गी राजा ने यूपीए सरकार के खिलाफ कभी मुंह नहीं खोला. वे हाशिमपुरा और मलियाना (1987) या दिल्ली (1984) पर कभी बोले हों, याद नहीं आता. मुमकिन है कि कुछ दल अपने निहित स्वार्थो के तहत देश में सांप्रदायिक विषवमन कर रहे हों, लेकिन इसका विरोध प्रतिस्पद्र्धी सांप्रदायिकता या अतिवाद से नहीं किया जा सकता है. दिग्विजय सिंह जैसे बयानवीरों को सांप्रदायिकता और कश्मीर में अशांति जैसे गंभीर मसलों पर देश को भावनात्मक रूप से विभाजित न कर, अपनी वाणी और भूमिका पर गंभीर आत्ममंथन करना चाहिए.