28.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Trending Tags:

Advertisement

छोटा सहयोगी बनने की रणनीति

नवीन जोशीवरिष्ठ पत्रकारnaveengjoshi@gmail.com कांग्रेस खुश हो सकती है कि एक और राज्य, झारखंड की सत्ता से भाजपा अपदस्थ हो गयी और इसमें उसका भी हाथ रहा. इससे पहले महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की ‘महायुति’ को पूर्ण बहुमत मिलने के बावजूद यह गठबंधन टूटा और भाजपा सत्ता से बाहर हो गयी. वहां भी कांग्रेस सरकार में भागीदार […]

नवीन जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
naveengjoshi@gmail.com

कांग्रेस खुश हो सकती है कि एक और राज्य, झारखंड की सत्ता से भाजपा अपदस्थ हो गयी और इसमें उसका भी हाथ रहा. इससे पहले महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना की ‘महायुति’ को पूर्ण बहुमत मिलने के बावजूद यह गठबंधन टूटा और भाजपा सत्ता से बाहर हो गयी. वहां भी कांग्रेस सरकार में भागीदार बनी. पिछले डेढ़-पौने दो साल में मध्य भारत के पांच राज्यों की सत्ता भाजपा के हाथ से निकल गयी है.
जम्मू-कश्मीर छठा राज्य मान सकते हैं, जहां सत्ता में उसकी भागीदारी जाती रही, हालांकि वहां की स्थितियां अब बिल्कुल अलग हैं. हरियाणा भी कांग्रेस के लिए थोड़ी खुशी लाया, जहां उसने अच्छा प्रदर्शन किया, हालांकि भाजपा सत्ता पर काबिज होने में कामयाब रही.
झारखंड में भाजपा को हराने का जश्न कांग्रेसियों ने इस तरह मनाया, जैसे इस विजय के मुख्य नायक वे ही हों, जबकि सच यह है कि झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन में वह दूसरे नंबर की अपेक्षाकृत छोटी हिस्सेदार है. महाराष्ट्र में वह शिवसेना और एनसीपी के बाद तीसरे नंबर की सहयोगी है.
कर्नाटक में वह बड़ा दल होने के बावजूद जनता दल (एस) के साथ छोटे पार्टनर की भूमिका में आयी, लेकिन अंतत: भाजपा ने उसकी यह खुशी ज्यादा दिन नहीं रहने दी. तो, क्या दशकों तक केंद्र और राज्यों में एकछत्र राज करनेवाली देश की सबसे पुरानी पार्टी अब अपने अस्तित्व के लिए क्षेत्रीय दलों की आड़ लेने को विवश है? या आज के राजनीतिक हालात का उसका स्वीकार या भविष्य की राह तलाशने की रणनीति?
यह निश्चित है कि कांग्रेस को अपनी सम्मानजनक जगह पाने के लिए सीधे भाजपा से टकराना और उसे पराजित करना होगा. साल 2014 के बाद से वह भाजपा के हाथों चुनाव मैदान ही में नहीं, राजनीतिक दांव-पेचों में भी पिटती रही है.
कुछ राज्यों में सबसे बड़ा विधायक दल होने के बावजूद भाजपा उसके मुंह से सत्ता का निवाला छीन ले गयी. कहीं भाजपा ने सीधे उसके विधायकों को अपने पाले में करके मैदान मारा. पिछले छह साल का अनुभव बताता है कि कांग्रेस मोदी-शाह की जोड़ी का मुकाबला न चुनाव मैदान में कर पा रही है, न ही जोड़-तोड़ और सांगठनिक रणनीति में.
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की विजय अवश्य एक अपवाद की तरह रही. इनमें भी पहले दो राज्यों में भाजपा से वह बमुश्किल जीत पायी थी और वह भाजपा की जोड़-तोड़ वाली राजनीति से आशंकित ही रहती है. अरुणाचल और उत्तराखंड में भाजपा-रचित भितरघाती चालें उसकी आशंकाओं का कारण बनी रहीं.
राष्ट्रीय दलों का क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाना हमारी चुनावी राजनीति में कोई नयी बात नहीं है. स्वयं कांग्रेस ने कई बार कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ तालमेल करके अपनी सरकारें चलायी हैं. हाल के वर्षों में भाजपा ने क्षेत्रीय दलों से मेल-बेमेल तालमेल किये.
बिहार में जद (यू) से लेकर कश्मीर में पीडीपी जैसे कट्टर विरोधी दलों तक से उसने गलबहियां कीं. बिहार में भाजपा अब तक दूसरे नंबर की सहयोगी के रूप में गठबंधन निभा रही है. अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए भाजपा को पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में भी ऐसा करना पड़ा है, लेकिन उसके पास केंद्र की सत्ता में होने की बड़ी ताकत है.
कांग्रेस के सामने अपनी पहचान बनाने का कोई संकट नहीं रहा. आज बड़े भू-भाग में सत्ताच्युत होने के बाद भी वह सब जगह सुपरिचित है. तब भी आज उसे अपने अस्तित्व के लिए छोटे क्षेत्रीय दलों या अपने से ही छिटक कर अलग हुए क्षत्रपों का जूनियर पार्टनर बनना पड़ रहा है. शायद यह नयी रणनीति है!
महाराष्ट्र में शिवसेना-एनसीपी के साथ सरकार बनाने के प्रस्ताव पर उसका असमंजस स्पष्ट रूप से सामने आया था. सोनिया गांधी को यह फैसला करने में बहुत वक्त लगा. शरद पवार के कई प्रयास के बाद ही वे राजी हुईं. कांग्रेस के लिए दो कारणों से यह कड़वा घूंट था. एक तो भाजपा से भी कट्टर हिंदू पार्टी शिवसेना का साथ देना और दूसरे उस राज्य में तीसरे नंबर का जूनियर बनना, जहां कभी उसका एकछत्र राज था. अंतत: कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने शिवसेना नीत गठबंधन और सरकार में शामिल होने का फैसला किया.
अब झारखंड में झामुमो का जूनियर पार्टनर बनने में उसे ज्यादा हिचकिचाहट नहीं हुई. लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व अपनी इस विवशता को नयी रणनीति में बदलना चाहता है. छोटे सहयोगी के रूप में ही सही, सरकार में शामिल होना उसके कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने और उन्हें जमीनी ताकत देने का काम करता है. इससे मुख्य प्रतिद्वंद्वी सत्ता से बाहर होता है, तो दोहरा फायदा है.
उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस तीन दशक से सत्ता से बाहर है. इसका परिणाम यह है कि उसके पास इन राज्यों में जमीनी कार्यकर्ता ही नहीं रह गये. राजनीति आज विचार-निष्ठा और सामाजिक सेवा नहीं रह गयी है. नेताओं-कार्यकर्ताओं को सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी चाहिए होती है या अपना अवैध-अनैतिक साम्राज्य बचाने के लिए सरकार का संरक्षण. इसीलिए सत्तारूढ़ दल की तरफ उनकी भगदड़ मची रहती है. पुराने कांग्रेसी भी धीरे-धीरे दूसरे दलों में चले गये.
महाराष्ट्र में कांग्रेस ने धुर-विरोधी शिवसेना के साथ जाना बेहतर समझा, तो अब कम-से-कम वह अपने कई कार्यकर्ताओं-नेताओं को सत्ता-सुख दिला सकती है. और इस तरह भाजपा को भी सत्ता से बाहर रख सकती है. जाहिर है, इससे कांग्रेस को देशभर में अपना संगठन मजबूत करने में मदद मिल सकती है.
इस रणनीति के खतरे भी हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को इसके कटु अनुभव हो चुके हैं. बिहार में वह वर्षों से राजद की छोटी सहयोगी से ऊपर नहीं उठ सकी. उत्तर प्रदेश में उसने एक बार बसपा से और दो बार सपा से गठबंधन किया. हर बार क्षेत्रीय दल लाभ में रहे. कांग्रेस का प्रभाव क्षेत्र और सीमित हो गया. आज तक दोनों राज्यों में कांग्रेस अपने खड़े होने लायक जमीन भी नहीं तलाश पायी है. बीते लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा ने कांग्रेस को अपने गठबंधन में लेने से मना कर दिया था.
छोटा सहयोगी बनने की रणनीति कांग्रेस के लिए तात्कालिक ही हो सकती है. भाजपा को टक्कर देने के लिए उसे किसी क्षेत्रीय दल की आड़ से बाहर निकलना होगा. क्षेत्रीय दलों का बड़ा सहयोग भाजपा को कुछ राज्यों में अपदस्थ तो कर सकता है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर का मोर्चा कांग्रेस को ही लड़ना होगा. इसके लिए जिस मजबूत संगठन, जनता के बीच सक्रियता और जन-मुद्दों को धार देने का कौशल चाहिए, उसकी तैयारियां भी कहीं हैं?

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें