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छप्पर के ऊपर
मिथिलेश कु राय युवा कवि mithileshray82@gmail.com कक्का कह रहे थे कि छत का मिजाज अलग होता है. वह बड़ा होता है. ऊंचा होता है. उसकी बनावट भी दूसरे तरह की होती है. वह किसी भी ओर से तनिक भी झुका हुआ नहीं होता है. उस पर हद से हद मनी प्लांट की लताओं को चढ़ाया […]
मिथिलेश कु राय
युवा कवि
mithileshray82@gmail.com
कक्का कह रहे थे कि छत का मिजाज अलग होता है. वह बड़ा होता है. ऊंचा होता है. उसकी बनावट भी दूसरे तरह की होती है. वह किसी भी ओर से तनिक भी झुका हुआ नहीं होता है. उस पर हद से हद मनी प्लांट की लताओं को चढ़ाया जा सकता है या कुछ फूल के गमले लगाये जा सकते हैं.
नहीं तो अक्सर वह खाली ही रहता है, अपने बड़प्पन को लिये हुए. जबकि छप्पर को देख लो. बेचारा हमेशा व्यस्त रहता है. उस पर लताएं तैरती रहती हैं. फूल खिले रहते हैं. फलियां झांकती रहती हैं. उनका कहना था कि छप्पर कभी भी खाली नहीं बैठता. चाहे वह फूस का छप्पर हो या टीन का. लताएं उसकी ओर देखकर गदगद होती रहती हैं कि कल को वो हमको सहारा देगा.
छत को देखकर लताओं के मन में यह विचार नहीं आता. वे दीवार की चिकनाहट की तरफ देखकर मायूस हो जाती होंगी. नन्हीं लता अपनी गर्दन ऊपर कर छत को देखने की असफल कोशिश करती होंगी और हताश हो जाती होंगी. उन्हें देखकर छत के मन में भी नेह नहीं जन्मता होगा. ईंट-सरिया-सीमेंट की बनी छत निर्लिप्त रह जाती होगी.
कक्का ने यह बात क्यों उठायी थी, यह मैं समझ रहा था. सामने का दृश्य उनके मन में उद्गार भर देता है और शब्द स्वतः प्रस्फुटित होने लगते हैं.
कक्का की नजरें ठीक सामने थीं. सामने लाल भैया की बैठकी का छप्पर था. उस फूस के छप्पर पर सेम की लताएं फैली हुई थीं. लताओं में सफेद और नीले रंग के असंख्य फूल खिले हुए थे. फलियों का गुच्छा फूलों और पत्तियों के बीच ऐसा लग रहा था, जैसे वह खिलखिला रहा हो. दूर से देखने पर छप्पर भी हरे से ढका हुआ दिख रहा था और उसकी ओर निहारती आंखों को तरावट मिल रही थी.
कक्का कहने लगे कि देखो, ठीक बगल में वह छत है. लेकिन आने-जानेवालों के आकर्षण के केंद्र में यही छप्पर रहता है. छप्पर पर फैली हरियाली ने छप्पर का मान बढ़ा दिया है. एक-दूसरे ने एक-दूसरे को सहारा देकर एक-दूसरे को जैसे सार्थक कर दिया हो. फिर वे मुझसे यह पूछने लगे कि क्या कभी किसी छत को इतना व्यस्त देखा है. और अनगिनत छप्परों में से कितनों को खाली देखे हो?
कक्का के सवाल पर मैं मुस्कुरा उठा. वह वाजिब कह रहे थे. कुछ दिन पहले की बात है. मैं बगल के गांव की ओर जा रहा था. एक जगह रुककर एक छप्पर को निहारने लगा. वह फूस का छप्पर था. उस पर हरे पत्तों का मेला लगा था. न फूल न फलियां. वे पोइ के साग थे. उसके डंठल का रंग लाल था और पत्ते हरे कचनार थे. गजब दृश्य का सृजन हो गया था.
कोहड़े, कद्दू, सेम से आच्छादित असंख्य छप्पर स्मरण पटल पर आते गये. हाल में कुम्हड़े से लदे एक छप्पर को याद करके मैं मुस्कुराने लगा. चूने के रंग के कुम्हड़े और उसके हरे पत्ते ने मिलकर छप्पर पर एक ऐसी चित्रकारी की थी कि नजरें उस ओर बार-बार उठ जाती थीं. मुझे मौन देखकर कक्का सब समझ गये. मंद-मंद मुस्काते बोले- छप्पर हरियाली को आश्रय देने में व्यस्त रहता है. छत को यह सुख नसीब नहीं होता!
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