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अब कुछ वादे सच्चे से

आलोक पुराणिक वरिष्ठ व्यंग्यकार puranika@gmail.com इंसान के बस की ना है जी, सब ऊपरवाले के खेल हैं. दिल्ली और कई राज्यों में दमघोंटू जहरीले धुएं से थोड़ी निजात तब मिली, जब थोड़ी बहुत बारिश हुई. ऊपरवाले ने करा दी बारिश तो सांस आ गयी.सब ऊपरवाले का आसरा है जी. नये बने पुल टूट जाते हैं. […]

आलोक पुराणिक

वरिष्ठ व्यंग्यकार
puranika@gmail.com
इंसान के बस की ना है जी, सब ऊपरवाले के खेल हैं. दिल्ली और कई राज्यों में दमघोंटू जहरीले धुएं से थोड़ी निजात तब मिली, जब थोड़ी बहुत बारिश हुई. ऊपरवाले ने करा दी बारिश तो सांस आ गयी.सब ऊपरवाले का आसरा है जी. नये बने पुल टूट जाते हैं. पब्लिक ठेकेदार को ना कोसती, दुर्भाग्य को कोसती है और जिंदा बचे हुए कहते हैं- ऊपर वाला महान है जी, बचा दिया.
जो कुछ है, ऊपर वाला ही कर रहा है. एकदम आदिमयुग के आदिमानव वाला फील आ रहा है कि सब कुछ प्रकृति के भरोसे है. हमारे भरोसे तो सिर्फ नदियां गंदी हो सकती हैं जी. बचाने की जिम्मेदारी ऊपरवाले की है.
अब वक्त आ गया है कि कुछ सच्चे टाइप के वादे किये जायेंगे, इस टाइप के वादे ना हों कि साफ हवा देंगे, साफ पानी देंगे. सच्चे टाइप के वादे हों, तो पब्लिक भी तैयार रहे. अभी क्या होता है कि पब्लिक सच में उम्मीद सी करने लगती है कि जीने के लिए जरूरी हवा और पानी मिलता रहेगा.
पब्लिक को इश्तिहार मिलने लगते हैं- हमने तो प्रदूषण पच्चीस प्रतिशत कम कर दिया था, पीछे से पराली का धुआं आ गया जी. यानी पब्लिक जो मर रही है, उसमें उस राज्य के धुएं का रोल है, हमने तो साफ कर दिया था जी.
खांसती-मरती पब्लिक खबरों में पढ़ती रहती है कि प्रदूषण में बारह प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी है. कहां कमी हो गयी है? यहां सांस ना ली जा रही है और वो कह रहे हैं कि प्रदूषण कम हो लिया है जी.
प्रदूषण कम होने की रिपोर्ट लिखनेवाला फार्महाऊस में, या ऑक्सीजन चैंबर में बैठकर लिख रहा है कि प्रदूषण कम हो गया है! या लिखनेवाला स्विट्जरलैंड में गया हो सकता है, वहां बैठकर कोई लिखे, तो कह सकता है कि प्रदूषण में शत-प्रतिशत कमी आ गयी है. इसलिए अब वक्त है सही-सही वास्तविकता के करीब वादे करने का.
धुआं ना रुकने का, जहर ना रुकने का और प्रदूषण ना कम होने का. अब सरकारें चलायें परमार्थ अंतिम वस्त्र योजना, जिसके तहत प्रदूषण से मरनेवालों को अंतिम वस्त्र उर्फ कफन की व्यवस्था सरकारें किया करेंगी.
कफन का इंतजाम हो सकता है, इंतजाम ही क्या, इस पर तो अच्छी-खासी राजनीति भी हो सकती है. एक नेता कहेगा- उस पार्टी ने सिर्फ और सिर्फ सूती कफन दिया है, हम सिल्क का कफन देंगे. दूसरी पार्टी कहेगी- सब पार्टियां बेकार हैं. बाकी सब का दावा है कि कफन बंदे के परिजनों को बंदे के मरने के बाद दिया जायेगा.
हमारी पार्टी तो कफन जीते जी ही देगी. जैसे बंदे के बीमार होने की खबर आये, मेडिकल प्रिस्क्रिप्शन दिखाकर ही कफन लिया जा सकता है, हमारे पार्टी के दफ्तर से. मौत से पहले ही कफन देते हैं, हम वक्त से आगे चलते हैं- टाइप चुनावी नारा भी हो सकता है. जी अब इस तरह के वादे ही होने चाहिए, ये वास्तविक रीयलिस्टिक और पूरे किये जा सकते हैं.

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