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शहरों की विफलता के जिम्मेदार

प्रभु चावला एडिटोरियल डायरेक्टर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla @newindianexpress.com गैतिहासिक काल के मोहनजोदड़ो से शुरुआत कर वैदिक काल के इंद्रप्रस्थ और प्राचीन रोम तक शहरों पर उनके शासकों एवं सभ्यताओं की छाप रही है. मोहनजोदड़ो जहां अपनी सफाई व्यवस्था, जल इंजीनियरिंग और अन्नागारों के लिए जाना जाता है, वहीं लंदन तथा पेरिस गंदगी और […]

प्रभु चावला
एडिटोरियल डायरेक्टर
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla
@newindianexpress.com
गैतिहासिक काल के मोहनजोदड़ो से शुरुआत कर वैदिक काल के इंद्रप्रस्थ और प्राचीन रोम तक शहरों पर उनके शासकों एवं सभ्यताओं की छाप रही है. मोहनजोदड़ो जहां अपनी सफाई व्यवस्था, जल इंजीनियरिंग और अन्नागारों के लिए जाना जाता है, वहीं लंदन तथा पेरिस गंदगी और महामारियों से मुक्ति पाकर आधुनिक दुनिया के प्रोज्ज्वल प्रतीक माने जाते हैं.
प्राचीन भारत के पाटलिपुत्र जैसे चंद शहरों को छोड़कर शायद ही कोई वर्तमान महानगर भारत के मुकुट का रत्न कहला सकता है. पिछले कुछ सप्ताहों के दौरान पटना और पुणे गलत वजहों से चर्चा के केंद्र बने रहे. पटना के जल जमाव ने यह स्थिति ला दी कि वीआइपी कॉलोनियों में डूबे पड़े अपने राजकीय आवासों से वरिष्ठ मंत्रियों तक को नाव से निकालना पड़ा. पुणे में दर्जनभर से ज्यादा लोग तब काल के गाल में समा गये, जब भारी बारिश ने एक नाले की दीवार तोड़ डाली.
देश के बहुत-से शहरों में प्रकृति के प्रकोप तथा मानवीय चूकों के मेल से प्रतिवर्ष आपदाओं का कहर बरपा होकर दुखांत कहानियों के पदचिह्न छोड़ जाता है. जिस रफ्तार और भीषणता से भारतीय शहर इन आपदाओं से अस्तव्यस्त किये जाते रहे हैं, वह देश की नगरीय शासन व्यवस्था के खोखलेपन तथा उदासीनता की पोल खोलता रहा है.
अपने पिछले कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने देश की नगरीय दुरवस्था के प्रति अपनी चिंता के वशीभूत होकर ‘स्मार्ट सिटी’ के एक नवीन विचार को सामने रखा. इसके अंतर्गत नगरीय भारत के कायाकल्प की परिकल्पना के अंतर्गत प्रत्येक राज्य से उनके कुछ चुनिंदा शहरों के लिए प्रस्ताव मांगे गये. इस अवधारणा का बुनियादी फलसफा शहरों के लिए एक समग्र योजना पर आधारित है, जिसमें बुनियादी ढांचे के सुधारों से लेकर जल-मल प्रवाह के उपचार तक सभी प्रासंगिक मुद्दे शामिल हैं, जो पटना के हालिया परिदृश्यों से बचाव के समाधान भी हैं.
गौर करने की बात यह है कि इस योजना के अंतर्गत किसी भी मौजूदा महानगर को नहीं लिया गया, ताकि देश के दूसरे पायदान के शहरों की नारकीय स्थिति से उनका उद्धार संभव हो सके.
विस्तृत समीक्षा के बाद अंततः एक सौ शहरों का चयन हुआ, जिन्हें प्रारंभिक बीज धन के रूप में पांच सौ करोड़ रुपये मुहैया किये गये. इन शहरों में लगभग 10 करोड़ लोग रहते हैं. स्पष्ट है कि मोदी तथा उनकी टीम के लोगों ने इस योजना की शुरुआत के पूर्व इस पर पर्याप्त मस्तिष्क मंथन किया था.
स्मार्ट सिटी मिशन का उद्देश्यकथन यह बयान करता है कि ‘शहर देश की अर्थव्यवस्था हेतु वृद्धि के इंजन होते हैं. वर्तमान में भारत की 31 प्रतिशत आबादी देश के नगरीय क्षेत्रों में रहते हुए भारत के जीडीपी में 63 प्रतिशत का योगदान करती है. बढ़ते शहरीकरण की वजह से वर्ष 2030 तक इन शहरों की जनसंख्या बढ़कर देश की आबादी के 40 प्रतिशत तक पहुंच कर जीडीपी में 75 प्रतिशत तक योगदान कर रही होगी, जिसके लिए भौतिक, संस्थागत, सामाजिक तथा आर्थिक अवसंरचना के समग्र विकास की आवश्यकता होगी. स्मार्ट शहरों का विकास उसी दिशा में एक कदम है.
इस योजना के कार्यान्वयन हेतु दस केंद्रीय तत्वों की पहचान की गयी: पर्याप्त जलापूर्ति, सुनिश्चित विद्युत आपूर्ति, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन समेत स्वच्छता, सक्षम शहरी गतिशीलता तथा सार्वजनिक परिवहन, किफायती आवासीय व्यवस्था, सूचना प्रौद्योगिकी संपर्क तथा डिजिटलीकरण, प्रौद्योगिकी आधारित सुशासन, सतत पर्यावरण, नागरिकों की संरक्षा एवं सुरक्षा और स्वास्थ्य तथा शिक्षा. पर नौकरशाहों एवं स्थानीय नेताओं ने उक्त मुद्दों को संबोधित नहीं कर मोदी के स्मार्ट सिटी सपने को कपोलकल्पना में तब्दील कर डाला. पटना के लिए बाढ़ कोई नयी विभीषिका नहीं है, पर नीतीश कुमार के सुशासन के अंतर्गत पटना की स्थिति में सुधार की उम्मीद थी.
महाराष्ट्र एक कुशलतापूर्ण शासित राज्य रहा है, फिर भी पुणे कुदरत के कोप से कराह उठा. स्मार्ट सिटी योजना के अंतर्गत चयनित आधे से अधिक राज्य बारिश में जलजमाव के शिकार हो जाते हैं. दूसरे पायदान के सभी शहर ट्रैफिक जाम, सड़कों के गड्ढों तथा गंदगी और भरे एवं ठहरे नाले-नालियों की बदबू से बेहाल हैं.
उनमें से कोई भी न तो एक कुशल परिवहन व्यवस्था विकसित कर सका है और न ही पर्यावरण के संरक्षण का कोई तरीका. मोदी की स्मार्ट सिटी महत्वाकांक्षा को पलीता लगाने का दोष निश्चित रूप से मंत्रियों, नौकरशाहों तथा इंजीनियरों की दहलीज तक जाता है. आधिकारिक सूचना के अनुसार, बजट आवंटन का केवल आधा ही विमुक्त किया जा सका है, जबकि उसके भी केवल 36 प्रतिशत का उपयोग हो सका है.
अठाइस शहरों में एक भी परियोजना पूरी नहीं हो सकी है, जबकि 14 शहरों में केवल एक परियोजना संपन्न हुई है. शर्मनाक यह है कि स्मार्ट सिटी के लिए चयनित किसी भी शहर में सड़कों, जल निकासी, जलापूर्ति पाइपों तथा अन्य नागरिक सुविधाओं के पूर्ण नक्शे तक मौजूद नहीं हैं. मिशन की विफलता का एक प्रमुख कारण नगर एवं अन्य निकायों का अस्थिर प्रशासन है. एक जिलाधिकारी अथवा नगर निकाय प्रमुख का औसत कार्यकाल सिर्फ दो वर्ष है.
स्थानीय सियासी दबाव के सामने न झुकनेवाले इंजीनियरों का शीघ्र स्थानांतरण कर दिया जाता है. देश में शायद ही कोई ऐसा नगर निकाय है, जो भ्रष्टाचार से मुक्त हो.
विफलता सामने होने पर अधिकारीगण जमीनी परियोजनाएं लेने की बजाय स्कूलों की छतों पर सोलर पैनल लगाने, पार्कों का सौंदर्यीकरण और फुटपाथों पर बेंचें लगाने जैसी नुमाइशी योजनाओं पर काम कर रहे हैं.
स्मार्ट सिटी मिशन के लिए जिम्मेदार लोगों में से किसी ने भी स्वयं यह सत्यापित करने की कोशिश नहीं की है कि क्या नाले-नालियां साफ करने, जल निकायों को ठीक करने तथा जल जमाव अथवा ट्रैफिक जाम के लिए जिम्मेदार सार्वजनिक भूमि के अतिक्रमणों की पहचान का जमीनी काम वस्तुतः हुआ भी है या नहीं.
यह तो साफ है कि किसी भी सपने अथवा उद्यम को हकीकत में बदलने के लिए जनता की भागीदारी जरूरी है. भारत के सामाजिक पिरामिड के शीर्ष से निम्न का नहीं, बल्कि निम्न से शीर्ष का तरीका ही जनता को हितभागी बनाते हुए योजनाओं तथा कार्यक्रमों की सफलता सुनिश्चित कर सकता है. बुद्धिमत्तापूर्ण विचारों के कार्यान्वयन हेतु परिवर्तन के और भी अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण साधन आवश्यक होते हैं, सिर्फ पिटी-पिटाई लीक पर चलनेवाले चतुर व्यक्ति ही नहीं.

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