कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
k.prashantji@gmail.com
आपको याद है कि अभी-अभी कोलकाता से एक मेडिकल वायरस चला था, जो देखते-देखते सारे देश में फैल गया था? ‘डॉक्टरोसेफलाइटिस’ नामक वायरस! कहानी इतनी ही थी कि कोलकाता में किसी डॉक्टर को किसी मरीज के परिजन ने पीट दिया! बस, ‘डॉक्टरोसेफलाइटिस’ पैदा हुअा अौर देखते-देखते देशभर के डॉक्टर इसकी चपेट में अा गये. डॉक्टर की पिटाई बहुत बुरी बात है.
यह मनुष्यता को नीचे गिराने जैसा है. डॉक्टरी पेशे के कारण मिली ताकत से, कोई डॉक्टर किसी मरीज की ‘पिटाई’ करे या मरीज या उसके परिजन अपने मनमाफिक न होने के कारण, किसी भी तरह की हिंसा करें, यह समान रूप से निंदनीय व वर्जनीय है.
लेकिन एक डॉक्टर की पिटाई का बदला हजारों डॉक्टर मिल कर मरीजों को अौर उनके परिजनों को पीटकर लें, यह भी मुझे पूर्णत: अस्वीकार्य है. अपराध एक का अौर सजा दोषी-निर्दोष का विवेक किये बिना सबको, यह किस तरह सही हो सकता है? हर सांप्रदायिक दंगा, हर जातीय उन्माद यही तो करता है! मैं ऐसा इसलिए नहीं कह रहा हूं कि डॉक्टरी एक ‘नोबल प्रोफेशन’ है, सेवा का क्षेत्र है. नहीं, यह अाज पूर्णत: व्यापार-धंधा है, जिसकी सारी नैतिक भित्ति ढह चुकी है. चिकित्सा के व्यापार-धंधे में लगे दूसरे डॉक्टर, अपने बीच के ऐसे डॉक्टरों को पसंद नहीं करते हैं, उनकी खिल्ली उड़ाते हैं.
मनुष्य के सबसे कमजोर क्षणों से जुड़ा यह पेशा अाज सबसे कुटिल व हृदयहीन पेशा बन चुका है. लेकिन हम सिर्फ डॉक्टरों से ऐसी शिकायत कर सकते हैं क्या? जब सरकार ने ‘मॉब लिंचिंग’ को कानून-व्यवस्था बनाये रखने की व्यवस्था में शुमार कर लिया है, तब डॉक्टर-मरीज एक-दूसरे का इलाज ‘मॉब लिंचिंग’ से करें, तो इसमें हैरान होने जैसा क्या है!
डॉक्टर अौर मरीज का रिश्ता एक अजीब-सी बुनियाद पर खड़ा है. लोग चाहते हैं कि वे शरीर के साथ जैसी भी चाहे मनमानी करें, जो भी चाहें खाएं-पीएं, लेकिन उन्हें ऐसा कुछ हो ही नहीं, जिससे उनके मस्त जीने में खलल पड़े. यह सरासर गलत ही नहीं, अवैज्ञानिक भी है, शरीर-शास्त्र के विपरीत है.
डॉक्टर बना जो अादमी गले में स्टेथोस्कोप लगाये खड़ा है, यह भी इसी में से पैदा हुअा है. इसके लिए हर अादमी एक मौका है कि जिसे वह कहता है कि तुम चाहे जैसे रहो, जो खाअो-पियो चिंता नहीं, हम तुम्हें ठीक कर देंगे. शर्त बस इतनी है कि इसका जो खर्च मैं मांगूं, वह देते जाना. यह समीकरण एकदम ठीक चलता है. इसमें दोनों ने अपनी-अपनी सुविधा का रास्ता बना लिया है.
परेशानी वहां खड़ी होती है, जहां इसमें वह तत्व आ जुड़ता है, जो बीमार है. वह इलाज के लिए डॉक्टर चाहता है, लेकिन उसकी गांठ ढीली है. अब सामने डॉक्टर तो कहीं है नहीं; जो है वह तो ‘ले अौर दे’ वाले समीकरण का एक खिलाड़ी है.
वह बीमार को देखकर खुश होता है, उसकी जेब देख कर नाक-भौं सिकोड़ता है. अाखिर डॉक्टर-मरीज के बीच की तनातनी अधिकांशत: सरकारी अस्पतालों में क्यों होती है? देश के सरकारी अस्पतालों की हालत ऐसी है कि वहां स्वस्थ अादमी भी बीमार हो जाये. काम करनेवाले डॉक्टरों, स्टाफ, नर्स अादि से लेकर मरीजों अौर उनके परिजनों तक के लिए कम-से-कम बुनियादी सुविधाएं भी वहां उपलब्ध नहीं हैं. बीमार सरकारें खुद को जिंदा रखने में ही इस कदर व्यस्त हैं कि बीमारों की यह दुनिया उनके यहां दर्ज भी नहीं होती हैं.
फिर भी अस्पताल चलते हैं, हजारों जरूरतमंद रोज इन दरवाजों तक पहुंचते हैं. एक तरफ है तनावग्रस्त, जरूरतों के नाकाफी होने से त्रस्त अस्पताल अौर डॉक्टर; दूसरी तरफ है बीमारी से टूटा हुअा मरीज और उसके परिजन! जब ये दोनों रू-ब-रू होते हैं, तो किसी में, किसी के प्रति सम्मान या सहानुभूति का एक कतरा भी नहीं होता है.
मार-पीट की घटनाएं निंदनीय हैं, सख्त कार्रवाई की मांग करती हैं. लेकिन यह कार्रवाई कौन करे? डॉक्टर करें कि प्रशासन? सरकारी अस्पतालों में प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह अस्पताल कर्मचारियों की सुरक्षा करे.
अस्पताल की जिम्मेदारी है कि उसका हर घटक मरीजों से इस तरह पेश अाये कि उसके बीमार मन में कृतज्ञता का भाव पैदा हो. सरकार की जिम्मेदारी है कि वह जन-स्वास्थ्य केंद्रों की जरूरतों को पूरा करने के लिए अावश्यक संसाधन मुहैया कराये.
डॉक्टरों की जिम्मेदारी है कि वे मरीज से मशीनी नहीं, मानवीय रिश्ता बनायें. मरीज अौर उनके परिजनों की जिम्मेदारी है कि वे डॉक्टरों को भगवान नहीं, अपना सहायक इंसान मानें. ऐसा हो, तो टकराहट के अधिकांश कारण खत्म हो जायेंगे. फिर भी किसी ने किसी के साथ गलत किया, तो उसे कानून के हवाले किया ही जा सकता है.
अब एक बड़ा सवाल डॉक्टरों से पूछना बाकी रह जाता है. अापका काम बीमार का इलाज करना भर नहीं है. आपका काम है कि अाप ऐसा इलाज करें कि मरीज को दोबारा अापके पास आने की सामान्यत: जरूरत ही न पड़े. अाप मरीज को एटीएम मशीन न समझें. बीमार का स्वास्थ्य उसकी मुट्ठी में ला देना, यही डॉक्टर की सही भूमिका है. लेकिन डॉक्टर मरीज को सदा-सर्वदा के लिए अपनी मुट्ठी में रखना चाहते हैं.
यह चिकित्सा के धंधे का ‘वोटबैंक’ है. यह बहुत अनैतिक है. जब तक यह चलेगा, डॉक्टरों को कोई भी संरक्षण नहीं दे सकेगा अौर न सामान्य जन का कभी इलाज ही हो सकेगा. स्वास्थ्य का स्वावलंबन अौर स्वावलंबन के लिए चिकित्सा ही इसका सही इलाज है.