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कूटनीतिक दृढ़ता पर कायम रहें
पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com क्या भारत को पाकिस्तान से वार्ता करनी चाहिए? पारंपरिक मत तो यह रहा है कि जब तक वह दहशतगर्दी को संरक्षण देना जारी रखता है, हमें बातचीत से दूर ही रहना चाहिए. ऐसा लगता है कि अभी हम इस नीति का ही अनुसरण कर रहे हैं. पाकिस्तान […]
पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
क्या भारत को पाकिस्तान से वार्ता करनी चाहिए? पारंपरिक मत तो यह रहा है कि जब तक वह दहशतगर्दी को संरक्षण देना जारी रखता है, हमें बातचीत से दूर ही रहना चाहिए. ऐसा लगता है कि अभी हम इस नीति का ही अनुसरण कर रहे हैं.
पाकिस्तान को पीएम नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने को नहीं बुलाया गया. हमने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान द्वारा वार्ता आरंभ करने के संदेश की भी अनदेखी ही की. शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भाग लेने बिश्केक की अपनी यात्रा के दौरान मोदी ने पाकिस्तान द्वारा अपनी जमीन के ऊपर से होकर उनके विमान को उड़ने देने की पेशकश स्वीकार न की. फिर उस बैठक के दौरान भी उन दोनों के बीच कोई औपचारिक अथवा अनौपचारिक मुलाकात नहीं ही हुई.
हालिया पुलवामा हमले सहित भारत पर लगातार किये जा रहे आतंकी हमलों में पाकिस्तान की प्रमाणित संलिप्तता के मद्देनजर हमारा यह कड़ा रवैया सही है. पूरे पाकिस्तान तक यह संदेश पहुंचना ही चाहिए कि बातचीत और दहशतगर्दी सहचरी नहीं हो सकतीं.
पाकिस्तान ने अवश्य ही यह उम्मीद बांध रखी होगी कि पूर्व की ही भांति भारत एक बार फिर माफ करो और भूल जाओ की नीति पर चलते हुए सामान्य स्थिति की बहाली स्वीकार कर लेगा. ऐसी नरम नीति पाकिस्तान को इस हेतु और ढीठ ही बनाती है कि वह ‘हिंसक हमलों के बाद रणनीतिक तुष्टीकरण’ की अपनी सोची-समझी नीति बेरोक जारी रखे. हमारे द्वारा अपने कड़े रुख पर कायम रहने से ही इस धूर्त चाल की हवा निकल सकती है.
यहां तक तो यह सही है, पर क्या इन दो पड़ोसी देशों के नेताओं द्वारा किसी बैठक में साथ होने के समय भी अपने पारस्परिक व्यवहार से अपना वैमनस्य ही प्रदर्शित करना चाहिए? शंघाई सहयोग संगठन की उक्त बैठक में पुतिन एवं शी जिनपिंग समेत दर्जन भर अन्य नेताओं की नजरों के सामने इमरान खान और नरेंद्र मोदी ने एक दूसरे का अभिवादन तक नहीं किया.
किसी भी संरचित वार्ता अथवा पूर्वनियोजित औपचारिक या यहां तक कि अनौपचारिक शिखर बैठक के संबंध में हमारी यह नीति ठीक हो सकती है, मगर क्या हमारे द्वारा इसे इस सीमा तक ले जाना उचित है कि दो धुर विरोधियों के मध्य मान्य एवं स्थापित बुनियादी शिष्टाचार का पालन भी नहीं किया जाये?
मुद्दे की बात यह है कि राजनय का अर्थ ऐसे किसी व्यवहार की बजाय वैचारिक नीति निर्माण होता है. बातचीत की जाये या नहीं, यह एक ऐसा फैसला है, जिसके सभी दीर्घावधि एवं अल्पावधि नतीजों पर विचार कर उनका पूर्वानुमान करते हुए उसे एक रणनीतिक ढांचे में स्थित किया जाना चाहिए और इस प्रक्रिया में हमारे राष्ट्रीय हितों को ही हमारा एकमात्र विनिर्देशक होना चाहिए.
यदि वार्ता से हमारा राष्ट्रीय हित सधता हो, तो हमें वार्ता करनी चाहिए और यदि वह नहीं सधता हो, तो नहीं करनी चाहिए. पर इस संबंध में कोई भी निर्णय दोनों दिशाओं के एक सिलसिलेवार, निर्मम तथा भावनाविहीन विश्लेषण द्वारा ही लिया जाना चाहिए.
चाणक्य की राजनीति की मेरी समझ के अनुसार वार्ता अथवा अवार्ता अपने आप में कोई साध्य नहीं, सिर्फ किसी साध्य के साधन हैं और वह साध्य राष्ट्रीय हित है. चाणक्य ने स्वयं ही विभिन्न नीतिगत विकल्पों के एक मिश्रण को तरजीह दी, जिसका सार साम, दाम, दंड और भेद की उनकी सुप्रसिद्ध नीति में समाहित है.
पांचवां परंतु कम जाना-माना नीतिगत विकल्प ‘आसन’ भी है, जिसका तात्पर्य ‘सीमारेखा पर बैठे रहने की सोची-समझी रणनीतिक नीति’ है. इन विकल्पों से एक सुविचारित सामरिक योजना के अंशगत रूप में किसी एक अथवा कई नीतियों के सम्मिलित चयन तथा इस्तेमाल की कला ही प्रबुद्ध विदेश नीति कहलाती है. बालाकोट पर हमारा हवाई हमला दंड का एक उत्तम उदाहरण था. पाकिस्तान द्वारा बातचीत की पेशकश पर हमारा मौन भी उसी नीति का सातत्य है.
क्या हम हमेशा ही दंड की नीति पर बने रह सकते हैं? सीमापार से पुलवामा जैसे बड़े आतंकी हमले पर हर बार बालाकोट जैसे ही प्रत्युत्तर देने के आशय में हां. पर, प्रत्येक परिस्थिति और अवसर पर पाकिस्तान से अछूत की तरह व्यवहार करना दंड के प्रभाव को न्यून करने के अतिरिक्त अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसको इसका श्रेय भी दिलायेगा कि वह भारत से अच्छे संबंधों का आकांक्षी है. हमें यह भी समझना चाहिए कि दो परमाणु शक्तिसंपन्न पड़ोसी देशों द्वारा हमेशा ही उग्र बने रहना विश्व को विचलित किये रखता है.
हमारी एक वांछित नीति तो यह हो सकती है कि हम अपनी पसंद के वक्त पर अपनी ही शर्त और एजेंडे पर वार्ता में भाग लें और इस एजेंडे में शीर्ष पर दहशतगर्दी हो. इससे विश्व को यह संदेश जायेगा कि भारत बेहतर संबंधों के लिए राजी तो है, मगर अपनी शर्तों पर, जो दहशतगर्दी के संरक्षण में पाकिस्तानी रिकॉर्ड को देखते हुए उचित होगा.
हम इसी नीति को अपनायें और इस पर कायम रहें, ताकि पाकिस्तान को इस विषय में कोई भ्रम न रहे. हम इसके लिए भी तैयार रहें कि यदि पाकिस्तान हमारी शर्तों पर वार्ता को राजी होता है, तो यह वार्ता दहशतगर्दी के प्राथमिक एजेंडे से बहके नहीं, न ही उसके दायरे में अनचाहे अन्य मुद्दे भी शामिल हो जायें.
इसके साथ ही, उपयुक्त समय पर हमें पाकिस्तान में उपयुक्त वार्ताकारों के साथ द्विमार्गी कूटनीति अथवा पृष्ठभौमिक माध्यम की बातचीत की रणनीतिक उपयोगिता पर भी विचार करना चाहिए, जो फौज तथा आइएसआइ समेत पाकिस्तानी सियासत के अंदरूनी गठजोड़ के साथ होगी. पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बड़ी मुश्किल में पड़ी है.
साम की रणनीति के तहत वहां के उन वर्गों तक सुनियोजित पहुंच बनानी होगी, जिन्हें अमन से फायदा होगा. इसके अलावा, पाकिस्तान को अकेला करने की कूटनीतिक कोशिशें तो जारी रहनी ही चाहिए, जैसा पीएम मोदी ने बिश्केक में यकीनन किया.
हमें बस तदर्थवाद या रणनीतिक सातत्य के अभाव से बचे रहना होगा. चाणक्य ने हमें सिखाया कि भावना और रणनीतिक नियोजन, संवेगात्मक प्रतिक्रिया एवं दीर्घावधि योजना निर्माण तेल और पानी के ही सदृश हैं, जो आपस में कभी भी समरूप नहीं मिल सकते.
मगर इस बीच, अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में हमें पाकिस्तानी नेताओं के साथ सामान्य शिष्टाचार भी नहीं छोड़ने चाहिए. कूटनीति दृढ़ता का समर्थन तो करती है, पर आवश्यक सामाजिक गरिमा के अभाव का नहीं.
(अनुवाद : विजय नंदन)
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