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सामाजिक मूल्य और राष्ट्रवाद
मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com पिछले कुछ वर्षों में भारत में राष्ट्रवाद पर बहुत बहस हुई है. यहां तक कि बिना ठोस आधार के भी हम किसी को राष्ट्र-विरोधी होने का तमगा देने लगे हैं. इस आम चुनाव में राष्ट्रवाद ही सबसे अहम मुद्दा था, लेकिन इस राष्ट्रवाद के उत्थान के दौर में […]
मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
पिछले कुछ वर्षों में भारत में राष्ट्रवाद पर बहुत बहस हुई है. यहां तक कि बिना ठोस आधार के भी हम किसी को राष्ट्र-विरोधी होने का तमगा देने लगे हैं. इस आम चुनाव में राष्ट्रवाद ही सबसे अहम मुद्दा था, लेकिन इस राष्ट्रवाद के उत्थान के दौर में हमारे समाज में मूल्य और नैतिकता गौण हो गयी.
स्वतंत्रता संग्राम ने जिन सामाजिक मूल्यों को राष्ट्रवाद का अनिवार्य हिस्सा बनाया था, वे कहीं विलीन होते जा रहे हैं. शिक्षण संस्थाओं से लेकर अस्पतालों और नौकरशाही तक, परिवार से लाकर सामाजिक संगठनों तक, सब जगह यदि पुराने समय से तुलना करें, तो आप इस निष्कर्ष से सहमत होंगे.
आज जो घटनाएं हमारे आसपास घट रही हैं, पहले हम उससे बेचैन हो जाया करते थे, लेकिन अब सामान्य-सी बात लगने लगी है. पहले किसी बेईमान व्यक्ति को लोग हिकारत की नजर से देखते थे, पर अब हमारी दृष्टि बदल गयी है. नायक को लेकर भी समाज की अवधारणा बदली है. जाहिर है, ऐसे में राष्ट्रवाद को लेकर भी नये प्रतिमान गढ़े जा रहे हैं, जिस पर बहस लाजिमी है.
हम अक्सर कहते हैं कि जापान के राष्ट्रवाद से हमें सीखना चाहिए, लेकिन हमें वहां की राष्ट्रवादी अवधारणा को भी समझना होगा. उनके सामाजिक मूल्यों को देखें, तो आप आश्चर्य चकित हो जायेंगे.
भूकंप के बाद जब परमाणु संयंत्रों से विकिरण की आशंकाएं पैदा हो गयीं और उससे जलसंकट पैदा हो गया, तो जापानियों ने आपसी सहयोग की मिसाल पेश की. हमारे यहां यदि जलसंकट हो जाए, तो हिंसा हो जाती है. विश्व युद्ध के बाद की क्षति के बावजूद यदि जापान उठ कर खड़ा हो पाया, तो यह उन सामाजिक मूल्यों के कारण है, जिसे हमें सीखने की जरूरत है.
उन्मादी विचार हिंसक होते हैं, किसी न किसी दुश्मन की खोज करते हैं, ताकि अपने उन्माद को मूर्त रूप दे सकें. यह दुश्मन यदि बाहर नहीं मिलता है, तो हिंसा आंतरिक हो जाती है. हमारे समाज में व्याप्त हिंसा उसी उन्मादी मन की अभिव्यक्ति है. इस उन्माद की जड़ में नयी उपभोक्तावादी संस्कृति और उसमें अपनी जगह नहीं बना पाने की हमारी असफलता है.
इस संस्कृति की खासियत है कि आप कभी संतुष्ट ही नहीं हो सकते हैं, क्योंकि इसका नारा है ‘दिल मांगे मोर’. हम चाहतों के अंतहीन सिलसिले में फंस जाते हैं और उसकी पूर्ति नहीं होने से हिंसक हो जाते हैं, क्योंकि अपनी अस्मिता को उपभोक्ता होने की क्षमता से जोड़ लेते हैं. उसमें अक्षम होने से नपुंसक होने का एहसास होता है, जिससे निकलने के लिए हिंसक हो जाते हैं.
यह सही है कि उपभोक्तावादी संस्कृति में मूल्यों की बात बेमानी हो सकती है, लेकिन मूल्यहीन समाज मनुष्य के रहने के लायक ही नहीं हो सकता है. सवाल है कि इस उन्मादी मन से समाज को निजात कैसे मिले? हमारा राष्ट्रवाद मूल्यवान और रचनात्मक कैसे हो?
इसका एक तरीका तो यह हो सकता है कि समाज मूल्यवान लोगों को अहमियत दे. अपने राजनेताओं को भी इस बात की याद दिलाए कि वे गांधी के परंपरा के वाहक हैं. यदि सार्वजनिक जीवन में आये हैं, तो उसकी मर्यादा को भी समझें. समय आ गया है कि हम अपनी नयी पीढ़ी को उसके बारे में बताएं.
हमारी युवा पीढ़ी इस सौभाग्य से वंचित है कि उनकी मुलाकात ऐसे मूल्यवान लोगों से हो सके, जिनसे उन्हें प्रेरणा मिले.स्वतंत्रता संग्राम में हजारों ऐसे लोग थे, जो राष्ट्रीय स्तर पर महानायक न भी हों, पर स्थानीय स्तर पर अपने मूल्यों के कारण जाने जाते थे.
हर गांव, हर शहर में ऐसे अनेक लोग थे, जिनके बलिदान की गाथा, स्थानीय स्तर पर ही सही, लोककथा बन गयी थी. उनकी कमजोरियां भी रही होंगी, लेकिन उनकी खासियतों से ही समाज के मूल्य बने थे, जिसे हमें सीखना होगा. रेणु के मैला आंचल का ‘बावनदास’, जो मूल्यों के प्रति इतना प्रतिबद्ध था कि इसके लिए उसने अपनी जान तक दे दी. समाज इन ‘बावनदासों’ से भरा था. हमें उनके जीवन को आदर्श के रूप में अपने समाज को लौटाना पड़ेगा.
मुझे ऐसे कई लोगों से मिलने का मौका मिला था, जिनसे मूल्यवान राष्ट्रवाद की झलक मिलती थी. ऐसे एक व्यक्ति थे बिहार के मुंगेरीलाल बाबू, जिनके राजनीतिक मूल्यों की दुहाई आज भी लोग देते हैं. कई बार मंत्री रह चुके मुंगेरीलाल की सादगी से कोई भी बाल मन प्रभावित हो सकता था. उनकी दूरदर्शिता देखिए कि उस समय मुंगेरलाल कमीशन ने जो रिपोर्ट दी थी, उसकी गूंज आज भी सुनायी देती है.
वह पहले व्यक्ति थे, जिसने महिला, महादलित, अति पिछड़ा और गरीब लोगों के लिए आरक्षण में जगह देने की बात की थी और इसलिए नहीं कि इससे उनकी राजनीति चमकती, बल्कि इसलिए कि सही मायने में उन्हें सामाजिक न्याय की चिंता थी. वह आठवीं कक्षा की पढ़ाई छोड़ कर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गये थे, लेकिन उनका व्यक्तिगत पुस्तकालय देखने लायक था.
ऐसे ही फारबीसगंज के नेता थे सरयू बाबू, जिनको हर जाति, हर धर्म के लोग वोट देते थे. उनका जनसंपर्क देखने लायक था. कांग्रेस के समाजवादी धड़े से आते थे.
फणीश्वर नाथ रेणु के मित्र भी थे और विरोधी भी. उनका व्यक्तिगत जीवन स्वतंत्रता संग्राम के उन्हीं मूल्यों को समर्पित था, जिसकी चर्चा हम ऊपर कर रहे थे. भोला पासवान शास्त्री, कमलदेव नारायण सिन्हा, मोईनुल हक और कई ऐसे लोग थे, जो इतिहास के पन्नों से धीरे-धीरे गायब हो रहे हैं. समाज अपने नायकों को भूलने लगा है.
जरूरी नहीं है कि गांधी-नेहरू जैसे महनायकों से ही समाज के सभी तबकों के लोग प्रेरणा ले सकें. जो नायक उनके नजदीक थे, उनके अपने समाज के थे, भले ही महानायक न हों, उनके माध्यम से भी हम समाज से संवाद कर सकते हैं. और, यह संवाद ही उन्मादी मन की दवा है. जगह-जगह जनतांत्रिक विचार मंच बनाये जाने की जरूरत है, ताकि यह संवाद हो सके.
बिहार-झारखंड के नेतरहाट विद्यालय के पूर्ववर्ती छात्रों ने दिल्ली के केंद्रीय विद्यालयों के साथ मिल कर कविताओं की अंत्याक्षरी का कार्यक्रम शुरू किया है.
साथ में तय हुआ है कि कवियों के नाम पर बच्चे पेड़ भी लगाएं. ऐसे कार्यक्रमों से ही हम रचनात्मक राष्ट्रवाद की बात सोच सकते हैं. यदि शहर-शहर और गांव-गांव में हमारे बच्चे समाज के मूल्यवान लोगों, लेखकों, कवियों, अच्छे शिक्षकों, अच्छे डाॅक्टरों के लिए पेड़ लगाने लगें, तो उसकी छाया में हमारी पीढ़ियां स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों को सीख कर उन्हें आगे बढ़ा लेंगी.
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