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आत्मघाती पाकिस्तान

भारत और अन्य पड़ोसी देशों को अस्थिर करने का उद्देश्य पाकिस्तान की रक्षा और विदेश नीति का आधारभूत पहलू है. बीते सात दशकों में वहां शासन पर पाकिस्तानी सेना का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण रहा है. सेना ने कुख्यात खुफिया एजेंसी आइएसआइ द्वारा समूचे दक्षिणी एशिया में आतंकियों, अलगाववादियों, तस्करों और अपराधियों का बड़ा संजाल […]

भारत और अन्य पड़ोसी देशों को अस्थिर करने का उद्देश्य पाकिस्तान की रक्षा और विदेश नीति का आधारभूत पहलू है. बीते सात दशकों में वहां शासन पर पाकिस्तानी सेना का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण रहा है.

सेना ने कुख्यात खुफिया एजेंसी आइएसआइ द्वारा समूचे दक्षिणी एशिया में आतंकियों, अलगाववादियों, तस्करों और अपराधियों का बड़ा संजाल बनाया है. भारत और अफगानिस्तान ने लगातार इसकी शिकायत की है. इस नेटवर्क का विस्तार इन दो देशों के अलावा नेपाल और बांग्लादेश में भी है. यहां तक कि यूरोप और अमेरिका में हुई अनेक घटनाओं में पाकिस्तान-समर्थित आतंकी और चरमपंथी गिरोहों का हाथ होने के मामले सामने आये हैं.

पाकिस्तान के भीतर भी अपने वर्चस्व को बनाने-बचाने के लिए आइएसआइ ने विभिन्न हिस्सों में आतंकी समूहों को पाला-पोसा है. पिछले साल संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी ऐसे समूहों की सूची में पाकिस्तान में सक्रिय 139 संगठनों का नाम है. इनमें अल-कायदा के सरगना अल-जवाहिरी से लेकर तहरीके-तालिबान, लश्करे-तैयबा, जैशे-मोहम्मद, हक्कानी नेटवर्क से लेकर दाऊद इब्राहिम तक शामिल हैं.

इन गिरोहों में से कुछ कश्मीर में और कुछ अफगानिस्तान में वारदातों को अंजाम देते हैं तथा अन्य समूह पाकिस्तान के भीतर अल्पसंख्यकों, उदारवादी नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा आम नागरिकों को निशाना बनाते रहते हैं. आतंकवाद को राजनीतिक और कूटनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की पाकिस्तानी राजकीय नीति का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ा है.

आज पाकिस्तान सामाजिक रूप से टूटा हुआ और आर्थिक तौर पर कंगाल देश है. साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के मुताबिक, साल 2000 से अब तक आतंकी घटनाओं में वहां 63,724 मौतें हो चुकी हैं. इस्लामाबाद, रावलपिंडी, लाहौर, कराची, क्वेटा, पेशावर जैसे बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों तक ये गिरोह सक्रिय हैं.

अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों के अनुसार, 2010 तक पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय भारत से अधिक थी. विभिन्न देशों से मिली वित्तीय मदद और व्यापक आर्थिक विषमता जैसे कारकों का संज्ञान लेते हुए भी कहा जा सकता है कि उसके पास आर्थिकी को पटरी पर रखने के मौके थे. परंतु, पाकिस्तानी सत्ताधीश तो धार्मिक चरमपंथियों को बढ़ावा देने तथा पड़ोसियों के विरुद्ध छद्म युद्ध करने में लगे हुए थे. अनेक आधिकारिक अध्ययनों ने इंगित किया है कि अस्सी के दशक के बाद से आतंकवाद ने अर्थव्यवस्था को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है.

खुद पाकिस्तानी आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि 2001 के बाद से आतंक से लड़ने में 123 बिलियन डॉलर की चपत लगी है. बीते चार दशकों में निवेश और सहायता में भी लगातार गिरावट दर्ज की गयी है. इन तथ्यों के बावजूद सरकारों ने आतंक को प्रश्रय देने की नीति पर पुनर्विचार नहीं की है. यह रवैया एक राष्ट्र-राज्य के रूप में उसके अस्तित्व के लिए ही आत्मघाती हो गया है.

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