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क्यों सूखा-मुरझाया है अपना देश!
कुमार प्रशांत गांधीवादी विचारक k.prashantji@gmail.com हमारी अाजादी ने 71 वसंत देख लिये हैं. बहत्तर साल की उम्र अादमी के थकने, रुकने, सिकुड़ने की उम्र होती है. मगर किसी मुल्क के इतिहास में 71 साल युवा होने की, कमर सीधी करने की अौर पंख खोल अासमान थाहने की उम्र होती है. क्या हमारा मुल्क 71 साल […]
कुमार प्रशांत
गांधीवादी विचारक
k.prashantji@gmail.com
हमारी अाजादी ने 71 वसंत देख लिये हैं. बहत्तर साल की उम्र अादमी के थकने, रुकने, सिकुड़ने की उम्र होती है. मगर किसी मुल्क के इतिहास में 71 साल युवा होने की, कमर सीधी करने की अौर पंख खोल अासमान थाहने की उम्र होती है.
क्या हमारा मुल्क 71 साल जवान हुअा है कि 71 साल बूढ़ा? क्या अाप भीतर से महसूस करते हैं कि उत्साह में झूमता अपना देश बढ़ रहा है, धूल झाड़ता खड़ा हो रहा है अौर अासमान सर कर रहा है? या सब कुछ एक अंधेरे में घिरता-डूबता जा रहा है; कि हम एक ऐसी अंधेरी सुरंग में पहुंच गये हैं कि जिसके किसी सिरे से प्रकाश का कोई अाभास मिल नहीं रहा है; अौर रास्ता बदल लें, ऐसी हिम्मत व हिकमत हमारे तथाकथित नेताअों में है नहीं.
कुछ लोग महात्मा गांधी से रास्ता पूछते हैं! सारी जिंदगी हम उनसे रास्ता ही तो पूछते रहे, मानते कुछ भी नहीं रहे. जब वे थे तब भी; जब वे नहीं रहे तब भी अौर अाज, जब उनका काम तमाम किये हमारी वीरता के 71 साल हो रहे हैं तब भी, शब्द या वाक्य बदल कर लोग इस बूढ़े के पास अाते हैं अौर पूछते हैं कि अाज देश में गांधी कहां हैं?
मैं कहता हूं कि मान लें हम कि गांधी कहीं नहीं हैं, तो क्या मुल्क नहीं है, हम नहीं हैं? हम क्यों न यह खोजने की कोशिश करें कि हमारी 71 साल की अाजादी में इसके नागरिक की कोई पहचान या भूमिका बची है क्या? खोजना ही है, तो हम यह खोजें कि 71 साल के इस सफर में वे सारे सपने कहां छूट गये, जिन्हें गांधी ने हमारी अांखों में बुन दिये थे?
गांधी में शिफत है कि वे बहुत कम शब्दों में अौर बड़ी सरल भाषा में बात कह देते हैं. यह सरलता उनको बहुत कठिन लगती है कि जो गांधी को जीकर नहीं, पढ़कर समझना चाहते हैं. गांधी ने जो जिया नहीं, वह कहा नहीं; हमने जो कहा उसे कभी जिया नहीं. गांधी ने कहा- ‘वकील अौर नाई दोनों के काम की कीमत एक-सी होनी चाहिए, क्योंकि अाजीविका पाने का हक दोनों को एक-सा ही है.’
उन्होंने कहा- ‘मजदूर अौर किसान का सादा जीवन ही सच्चा जीवन है.’ अाजादी के बाद कुर्सी पर बैठनेवालों से उन्होंने कहा- ‘इस पर मजबूती से बैठो, लेकिन इसे हल्के से पकड़ो.’ यानी सत्ता की कुर्सी से चिपके मत रहो. लेकिन हम कहां हैं? कहां मजबूती से बैठो अौर हल्के से पकड़ो की सीख अौर कहां अाज का अालम कि जो जहां पहुंच गया है, वहीं चिपक गया है. एक राष्ट्रीय दल का अध्यक्ष ललकारता है ‘भाड़े के कार्यकर्ताअों’ को कि तैयारी ऐसी करो कि हमें अगले 25 साल तक जीतते ही जाना है. यानी लोकतंत्र दूसरा कुछ नहीं, गद्दी पाने अौर फिर उसे हमेशा के लिए हथियाये रहने की दादागिरीभर है.
महात्मा गांधी का जीवन बहुत कठिन था, क्योंकि वे जिन मूल्यों को मानते थे उनके साथ जीते थे. हमारा जीवन अौर हमारे मूल्य परस्पर जुड़ते नहीं हैं.
वे जिन मूल्यों के लिए मरते थे, हम उन मूल्यों को कहीं-न-कहीं मारते हैं. फिर भी हम उन्हें ‘महात्मा’ कहते थकते नहीं. गांधी जिसके लिए जिये अौर मरे, वह अादमी (अंतिम अादमी) कहां रहता है! क्या खाता-पीता-अोढ़ता-बिछाता है, किसे पता है? क्या नीति अायोग को पता है, कि जिसे यह भी पता नहीं है कि सालभर में देश में कितना रोजगार पैदा हुअा? राज्य सरकारों को पता है, कि जिन्हें यह भी पता नहीं है कि उनके नारी संरक्षण गृहों में क्या हो रहा है?
यह व्यवस्था बताती है कि पिछले 10 सालों में तीन करोड़ से ज्यादा किसानों ने किसानी से तौबा कर ली है. मतलब गांधी जिस किसान का जीवन ही सच्चा जीवन मानते थे, उसने किसानी ही छोड़ दी है. इसका दूसरा पहलू यह है कि इसी अवधि में 25 हजार से ज्यादा किसानों ने अात्महत्या कर ली है. अात्महत्या का सीधा मतलब एक ही है- जीवन व जीविका से बेजार इंसान! यही गांधी का अंतिम अादमी है.
इसी के बच्चे कुपोषित हैं; यही है जिसकी किशोर अाबादी के पास जीवन की न कोई दिशा है, न शिक्षा की कोई व्यवस्था है; यही वह युवा बेरोजगार है, जो रह-रहकर ही खत्म हो जाता है; यही है जिसे कुचलकर, उसकी अंतिम बूंद तक निचोड़ लेने में व्यवस्था लगी है; यही है जिसकी बेटियां हर तरफ बलात्कार का शिकार हो रही हैं.
अाजादी का यह कैसा महाभंजक स्वरूप उभर रहा है कि जिसे लाल किले पर चढ़कर भी यह दिखायी नहीं दे रहा है कि यह किला जर्जर हो चुका है?
हमें यह हिसाब लगाना ही चाहिए कि 71 साल पहले हमने जो सपने देखे थे, वे सपने कहां तक पूरे हुए अौर कितनों तक पहुंचे? सवाल अांकड़ों का नहीं है; सवाल है कि हमारी अाजादी 71 साल जवान हुई है या 71 साल बूढ़ी हुई? जवानी अौर बुढ़ापे में सिर्फ उम्र का ही फर्क नहीं होता है, उम्मीदों अौर अात्मविश्वास का भी फर्क होता है! सरकारी खेतों में हर चुनाव के वक्त उम्मीदों की जरखेज फसल होती है, लेकिन अाजादी भूखी ही जागती है अौर भूखी ही सो जाती है!
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